कर्नाटक में आरक्षण का मुद्दा बनी गले की फांस, मौका लपकने को तैयार थे केरल और तेलंगाना
त्रिवेंद्रम और कन्याकुमारी के बीच में स्थित है नागरकोइल. यह दो राज्यों की सीमा को भी अलग करता है. इसके एक तरफ केरल है तो दूसरी तरफ तमिलनाडु. अरब सागर और हिंद महासागर के किनारे बसे इस कस्बे में पूरा हिंदुस्तान दिखता है. मुस्लिम बहुल इस कस्बे में अब सारे हज्जाम भोजपुरी बोलने वाले हैं और बढ़ई व लोहार राजस्थान के. यहां के इंजीनियरिंग कॉलेजों के चलते बिहार और उत्तर परदेश के तमाम नवयुवक आ गए हैं.
उनको हज्जाम चाहिए और अपनी तरफ का खाना भी. इसके लिए बिहार से 10 साल पहले एक हज्जाम दंपति यहां आकर बस गया. खोखे में कुर्सी डाल कर बाल काटने वाले ने अपनी पत्नी को इन लड़कों के लिए टिफिन बनाने के काम में लगा दिया. आमदनी बढ़ी तो दायरा भी. आज इस युगल के पास अपना शानदार मकान है और कई नौकर भी.
जरूरत पड़ेगी तो सीख लेंगे
राम प्रसाद (आर. प्रसाद) हज्जाम ने अब अपनी तरफ के कई लोग बुला लिए हैं. पहले लोग यहां तमिल बोलते थे और मलयालम. उर्दू के कुछ शब्द प्रोफेसर मलिक मोहम्मद की कोठी में सुनाई पड़ते थे. प्रोफेसर मलिक मोहम्मद कोझिकोड विश्वविद्यालय में उर्दू/हिंदी पढ़ाते थे. मगर अब यहां हिंदी भी है और भोजपुरी भी धड़ल्ले से बोली जाती है. व्यापार बढ़ता है तो समृद्धि आती है. राज्य को रेवेन्यू मिलता है. तब आप अपनी संस्कृति की आड़ लेकर संकुचित नहीं हो सकते.
आपकी क्षेत्रीय भाषा आपके सरकारी कामकाज में तो रहेगी लेकिन फिर आप उसे व्यापार के लिए अनिवार्य भाषा नहीं बना सकते. जिसको सीखनी होगी, वह अपनी जरूरत के अनुरूप सीख लेगा. कर्नाटक की कांग्रेस सरकार यह नहीं समझ सकी और अचानक निजी कंपनियों में 70 पर्सेंट आरक्षण तथा कन्नड़ सीखने की अनिवार्यता की घोषणा कर दी.
निजी कंपनियां समृद्धि ले कर आईं
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने निजी कंपनियों में भी आरक्षण देने के अपने फैसले पर कैबिनेट से मुहर भी लगवा ली थी. किंतु निजी कंपनियों की धमकी और आंध्र व केरल द्वारा उन्हें बुलाने की पहल के चलते उसे इस फैसले से पीछे हटना पड़ा. विधानसभा में इस फैसले को पास कराने की जब बारी आई तो सिद्धरमैया सरकार ने अपनी घोषणा वापस ले ली. और इस फैसले पर अमल को टाल दिया. कर्नाटक आज आईटी कंपनियों की सबसे बड़ी पसंद है. बंगलूरू की सारी रौनक और चकाचौंध इन्हीं कंपनियों के बूते है.
आज की तारीख में कर्नाटक जिन कंपनियों के बूते सुदृढ़ अर्थव्यवस्था वाला प्रदेश बना हुआ है, उन पर इस तरह के आदेश के लिए दबाव डालना सरकार के लिए भारी पड़ गया. विरोध होते ही आंध्र प्रदेश और केरल सरकारों ने इन कंपनियों को अपने यहां आने का न्योता दे दिया.
नायडू ने बदली थी हैदराबाद की सूरत
दक्षिण भारत में बंगलूरू और हैदराबाद में सबसे अधिक आईटी कंपनियों के दफ़्तर हैं. वहा की सरकारों को अरबों रुपए का रेवेन्यू इन कंपनियों से मिलता है. लेकिन कर्नाटक सरकार राजनीति के मकड़जाल में उलझ कर एक ऐसा दांव चल बैठी जिससे वह न इधर की रही न उधर की. अब भले वह इस फैसले से पलट गई हो लेकिन निजी कंपनियों का प्रबंधन अब सतर्क तो हो ही गया है. अब कोई भी कंपनी कर्नाटक आने से हिचकेगी. उसके लिए केरल एक नया हब बनेगा.
साल 2014 से पहले जब तेलंगाना अलग नहीं हुआ था और संयुक्त आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू थे तब उन्होंने राजधानी हैदराबाद को आईटी हब में बदल दिया था. इससे आंध्र को खूब रेवेन्यू मिला. आज तेलांगना सरकार उसका लाभ उठा रही है. किंतु चंद्रबाबू जिस आंध्र के मुख्यमंत्री हैं, उसमें कोई भी शहर निजी कंपनियों का हब नहीं है.
केरल में निजी कंपनियों का अभाव
ठीक यही स्थिति केरल में है. केरल में संपन्नता है, समरसता भी है और शांति भी. परंतु निजी कंपनियों को आकर्षित करने के लिए वहां की सरकारों ने पहले कोई प्रयास नहीं किये. इसके विपरीत सटे हुए राज्य कर्नाटक और तमिलनाडु में निजी कंपनियों ने खूब इन्वेस्ट किया हुआ है. जयललिता ने चेन्नई की सूरत बदल दी. भाषा और क्षेत्रीय संकीर्णता में उलझा तमिलनाडु आल इंडिया अन्ना डीएमके सरकार के समय से निजी कंपनियों को लुभाने लगा.
नतीजा सामने है. आज तमिलनाडु में देश में सबसे अधिक फैक्टरियां हैं. पूरे राज्य में न तो भारी उद्योगों की कमी है न आईटी कंपनियों की. यहां की सड़कों पर भागते 42 टायरा ट्रक इस प्रदेश के त्वरित औद्योगिक विकास को स्पष्ट करते हैं. आज तमिलनाडु जिस जगह पहुंच गया है, वहां देश का और कोई प्रदेश नहीं पहुंच सका है. हालांकि इस प्रदेश में 69 प्रतिशत आरक्षण 1992 के पहले से लागू हो चुका था.
आरक्षण अब गले की फांस
उदारीकरण के बाद से सरकारी क्षेत्रों में नौकरियां घटती गईं और निजी क्षेत्रों में अच्छी नौकरियों के दरवाजे खुलते गए. इसलिए यह मांग भी उठी कि आबादी के अनुपात में निजी क्षेत्र भी आरक्षण लागू करें. कहीं भी निजी क्षेत्र इस पर सहमत नहीं हुआ. उन्होंने कहा, “हम मुनाफे के लिए उद्योग खड़े करते हैं, इसलिए हमें बेहतर उत्पादन और नतीजा चाहिए.” उन्होंने कहा, “हम आरक्षण के नाम पर अपने दफ़्तरों/ कंपनियों को घाटे में नहीं डालेंगे.”
साल 2019 में आंध्र प्रदेश की जगन मोहन रेड्डी सरकार ने भी इसी तरह की घोषणा की थी. तब वह भी आरक्षण को निजी क्षेत्र में लागू नहीं करा सकी थी. राज्य सरकारों की ऐसी घोषणाएं लोक लुभावन भले हों पर इनसे इनका विकास रुक जाता है. क्योंकि निजी कंपनियों ने यदि वह राज्य छोड़ा तो बेरोजगारी का संकट तो आएगा ही रेवेन्यू मॉडल भी ठप हो जाएगा.
पहले भी कई सरकारों को मुंह की खानी पड़ी
कर्नाटक के पहले आंध्र हरियाणा, झारखंड और बिहार ने भी निजी कंपनियों में आरक्षण लागू करने की कोशिश की थी. मगर कोई भी पहल परवान नहीं चढ़ सकी. हर राज्य सरकार अपने यहां के लोगों को रोजगार दिलाने के बाबत इस तरह के फैसले करती रहती है. उनका तर्क होता है कि लोकल लोगों को रोजगार में वरीयता मिलनी चाहिए. पर कंपनियों का कहना है कि इससे उनका कामकाज प्रभावित होगा.
कर्नाटक सरकार ने फॉर्मूला दिया था, कि निजी क्षेत्र की ग्रुप सी और डी में 100 प्रतिशत आरक्षण लोकल लोगों को तथा गैर प्रबंधन में 70 फ़ीसदी तथा उच्च प्रबंधकीय अधिकारियों में 50 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला 15 जुलाई को किया था. लेकिन 17 को ही वह फैसला वापस लेना पड़ गया.
लोकल को वोकल बनने का मौका नहीं
निजी कंपनियां अपने कर्मचारियों की भर्ती में सरकार का दखल नहीं चाहतीं. उनका कहना है, कि इससे कार्य कुशलता प्रभावित होती है. दरअसल किसी भी निजी कंपनी का प्रबंधन यह नहीं पसंद करेगा कि उसके यहां सी और डी कर्मियों में 100 प्रतिशत लोकल लोगों की भर्ती हो. लोकल आदमी अधिक वोकल भी होगा. अगर उसे जबरिया छुट्टी पर भेजा तो वह हर तरह से लड़ने में सक्षम होगा.
एक तो लोकल होने के कारण वह सरकारी अधिकारियों तथा राज नेताओं पर भी उसका व्यापक असर होगा. तथा वह अधिक वेतन की मांग भी करेगा. काम के घंटे भी नहीं बढ़ाए जा सकते. जबकि इन कंपनियों में काफी कुछ प्रबंधन के दबाव में काम होता है. इसलिए ये कंपनियां किसी भी श्रेणी की नौकरियों में 100 प्रतिशत लोकल लोगों की भर्ती नहीं करेंगी.
ग्लोबल विलेज में क्षेत्रीय भाषाएं कहां!
इसके अलावा उच्च श्रेणी की प्रबंधकीय नौकरियों तथा प्रोफेशनल्स को जॉब देने में वे अपने अनुरूप व्यक्ति का चयन करना पसंद करती हैं. इसलिए उनके यहां आरक्षण एक बाधा है. मगर सरकारी नौकरियों की घटती संख्या के चलते सरकार नौकरियां देगी कहां से. हर सरकार की अपनी जनता के प्रति जवाबदेही होती है.
सामाजिक न्याय पर अमल की जिम्मेदारी होती है. इसलिए वह लोकल संस्कृति, भाषा और रीति-रिवाज का दांव चलती है. मगर इसका खामियाजा उस सरकार को उठाना पड़ेगा. कन्नड़, तमिल, तेलुगू अथवा मलयालम की अनिवार्यता की जकड़ को मजबूत करना उनकी अपनी समृद्धि के लिए रोड़ा हैं. जब ग्लोबल विलेज की बात हो रही हो तो क्षेत्रीय भाषाएं कैसे अपना वजूद बचाएंगी!