कीर हमारे ऋषि तुम्हारे, लेबर पार्टी से क्या था नेहरू का कनेक्शन?

कीर स्टार्मर जब लंदन के हिंदू मंदिर गए और स्वामी नारायण मंदिर में माथा टेका तो ब्रिटेन का हिंदू समाज खुशी से झूम उठा. हालांकि ऋषि सुनक भी मंदिर-मंदिर घूम रहे थे और गाय की पूजा करने की उनकी फोटो भी वायरल हो रही थीं, लेकिन कोई गोरा जब ब्रिटेन के मंदिर जाए और जय श्रीराम का नारा लगा दे तो हिंदू समाज झूमेगा ही क्योंकि हिंदू मंदिर में पूजा करे, इसमें खास क्या है? लेबर पार्टी के नेता कीर स्टार्मर ने अपनी पार्टी की कश्मीर नीति तथा पाकिस्तान-परस्ती से भी असहमति जताई है. ये सब बातें कीर को भारतीय समुदाय के निकट लाई. यद्यपि कीर लेबर पार्टी के कमजोर नेता माने जाते हैं. फिर भी भारतीय समुदाय ने उन्हें सिर माथे लिया. नतीजा सामने है, कीर ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बन गए.
दो वर्ष पहले 24 अक्टूबर 2022 को जब ऋषि सुनक यूनाइटेड किंगडम के प्रधानमंत्री चुने गए थे, तब हर भारतीय का माथा गर्व से ऊंचा हो गया था. होता भी क्यों नहीं आखिर जिन अंग्रेजों ने हमें 200 साल तक गुलाम बनाकर रखा था उनके ही देश में एक भारतीय प्रधानमंत्री चुना गया था, लेकिन एक बात खटकती थी और वह यह कि काश! ऋषि सुनक लेबर पार्टी में होते. कंजरवेटिव पार्टी से भारतीयों को कभी लगाव नहीं महसूस हुआ. यह वही टोरी पार्टी थी, जिसके प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को नंगा फकीर कहा था. यह पार्टी कभी हमारी आजादी की समर्थक नहीं रही. हमें आजादी मिली तो लेबर पार्टी की सरकार के समय. 1945 में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने थे क्लीमेंट एटली और उन्होंने 1946 में भारत की आजादी का मसौदा तैयार किया था.
उदारवाद हमें लेबर पार्टी के निकट ले गया
उनके द्वारा पास कराए गए इंडिया इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के तहत हमें आजादी मिली थी इसलिए लेबर पार्टी के प्रति भारतीयों का लगाव सदैव रहा. यूं भी हमारे देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू अपने समाजवादी रुझान के लिए ही जाने जाते रहे. वे जब लंदन में वे कानून की पढ़ाई कर रहे थे, तब से ही वे यूरोप के उदारवादियों के संपर्क में आ गए थे. यह वह दौर था, जब पश्चिमी यूरोप के अधिकांश देश परंपरागत पूंजीवाद के भीतर ही मजदूरों और आम लोगों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे थे. पूंजीवादी समाज की जड़ता से बाहर आने को वहां के बुद्धिजीवी, मजदूर और आम मध्य वर्ग अग्रसर थे. ब्रिटेन, फ्रांस, स्पेन आदि देशों ने व्यापार और उद्योगों पर कब्जा कर रखा था. ये लोग और धन कमाने की प्रबल इच्छा शक्ति के लिए जन अधिकारों को कुचल रहे थे. इस बात का प्रतिरोध जर्मनी से शुरू हुआ और ब्रिटेन उनके लिए स्पेस दी.
आजादी के पहले भारतीयों को लेबर पार्टी ने सहारा दिया
उस समय विश्व में जहां-जहां इन देशों के उपनिवेश थे, वहां की जनता के मौलिक अधिकारों की ये बिलकुल परवाह करते थे. यहां तक कि ये लोग अपने-अपने ही देश के मजदूर, किसान और नौकरीपेशा वर्ग के अधिकारों की भी अवहेलना करते. सबसे पहले जर्मनी में इस क्रूरता के विरोध में आंदोलन शुरू हो गए. रूढ़िवादी चर्च पूंजीपतियों की पैरवी करते थे इसलिए समाजवादी सोच के आंदोलन को ब्रिटेन में फलने-फूलने का अवसर मिला. वहां प्रोटेस्टेंट चर्च ने लड़ कर सामंतशाही के प्रतीक रोम के पोप से छुटकारा पाया था इसलिए ब्रिटेन की चर्च भी उदारवादी थी और राजनेता भी. वहां की राजनीति में पहले से चले आ रहे अनुदारवादी सोच वाली पार्टी के विरुद्ध लेबर पार्टी 1900 में खड़ी हुई. जल्द ही यह पार्टी वहां के बुद्धिजीवियों की खाद-पानी पाकर फलने-फूलने लगी. ब्रिटिश कॉलोनी, खासकर भारत के जो लोग वहां कामकाज के चलते बस गए थे और जो वहां पढ़ने गए थे, उनको भी इस पार्टी से संबल मिला और बौद्धिक खुराक भी.
नेहरू पर लेबर पार्टी का असर
नौजवानों में इस पार्टी ने जोश भर दिया. जो लोग भारत में आजादी के लिए लड़ी जा रही हिंसक लड़ाई को उचित नहीं समझते थे और उन्हें संसदीय राजनीति के जरिए सत्ता परिवर्तन पसंद था, वे इसकी ओर तेजी से झुके. ऐसे ही नौजवानों में जवाहर लाल नेहरू थे. उन्होंने एचजी वेल्स, जॉर्ज बर्नाड शॉ, बर्टेंड रसेल को पढ़ा. वे देश की आजादी की बात तो सोचते लेकिन हिंसक लड़ाई उन्हें पसंद नहीं थी. उन्हें लगता था कि जब तक आजादी की लड़ाई में आम जन को न जोड़ा गया, कोरी भावुकता से सत्ता के विरुद्ध की गई हिंसा सख्ती से कुचल दी जाएगी. 1910 में भारत लौटने पर पहले तो उन्होंने इलाहाबाद में वकालत शुरू की किंतु उनका मन उधर न लगा. वे कांग्रेस के आंदोलन से जुड़े और 1912 की पटना कांग्रेस में शामिल हुए. यहां भी उन्हें महसूस हुआ कि कांग्रेस कोई जन आंदोलन नहीं है. वह सिर्फ एलीट क्लास का राजनीतिक शगल है.
डोमिनियन स्टेट की मांग नेहरू को पसंद थी
उन दिनों दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के अहिंसक आंदोलन के बारे में उन्होंने अखबारों में पढ़ा. उन्हें इस आंदोलन से खुद को जुड़ा महसूस किया, लेकिन कांग्रेस में उस समय जिन गोपाल कृष्ण गोखले का प्रभाव था, उनकी ठंडी नीतियां प्रगतिवादी सोच के नेहरू को रास नहीं आईं. उन्हें कांग्रेस के गरम दलीय गुट बाल गंगाधर तिलक और एनी बेसेंट की उग्र नीतियां भी. वे अंग्रेजों को भारत से भगाना चाहते थे लेकिन संपूर्ण जन भागीदारी के साथ. हालांकि तिलक और एनी बेसेंट के कुछ बातों में उनकी सहमति थी. 1915 में गोखले की मृत्यु के बाद तिलक और एनी बेसेंट कांग्रेस में अधिक प्रभावी हो गए. इन लोगों ने होम रूल लीग बनायी. तिलक तत्काल संपूर्ण स्वराज्य चाहते थे. किंतु एनी बेसेंट ब्रिटिश सत्ता के भीतर ही भारत को डोमिनियन स्टेट का दर्जा दिलवाना चाहती थीं. आस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड और दक्षिण अफ्रीका को तब तक यह दर्जा मिल चुका था. नेहरू स्वशासन की इस मांग में शामिल हो गए और एनी बेसेंट की होम रूल लीग के सचिव बन गए.
गांधी ने आजादी के आंदोलन को नई धार दी
1915 में गांधी जी दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे. वहां पर गांधी जी की जादुई ख्याति का असर भारत के बुद्धिजीवियों पर भी था. उनके असहयोग आंदोलन ने कांग्रेस के भीतर भी बहुत-से लोगों को प्रभावित किया था. चंपारण और खेड़ा सत्याग्रह ने गांधी को भी बदल दिया और कांग्रेस के तमाम नेताओं को भी. 1920 में महात्मा गांधी ने जब ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध असहयोग आंदोलन शुरू किया, तब जवाहर लाल नेहरू गांधी के करीब आए और उनके पट्ट शिष्य बन गए. गांधी जी द्वारा निलहे गोरों के विरुद्ध चलाए गए नील (Indigo) आंदोलन और अस्पृश्यता के विरुद्ध छेड़े गए अभियान से वे भारत के शीर्ष राजनेताओं की श्रेणी में आ गए. वे पहले ऐसे भारतीय राजनेता थे जो राजनीतिक आंदोलनों के साथ-साथ समाज सुधार के अपने अभियान को भी जोर-शोर से चलाए हुए थे. मगर गांधी जी की संपूर्ण अहिंसा नेहरू जैसे प्रगतिशील विचार वालों को चुभती भी थी.
पूर्ण स्वतंत्रता की
मांग फिर भी नेहरू सदैव गांधी के प्रति वफादार बने रहे. चौरी चौरा की हिंसा के बाद गांधी जी द्वारा असहयोग आंदोलन अचानक रोक दिए जाने के कारण बहुत लोगों को झटका लगा, लेकिन इसके बावजूद नेहरू ने गांधी का साथ नहीं छोड़ा. नेहरू कांग्रेस को लेबर पार्टी की तरह उदार बनना चाहते थे. रूस की बोल्शेविक क्रांति का उन पर असर पड़ा और उन्होंने कांग्रेस के आंदोलन के लिए विदेशी मित्र तलाशे. वे 1927 में कांग्रेस के भीतर इस प्रस्ताव पर सहमति बनवाने में सफल रहे कि दो वर्ष के भीतर भारत को डोमिनियन स्टेट का दर्जा मिल जाए.यह लेबर पार्टी और यूरोप के समाजवादी आंदोलनों के प्रति नेहरू के रुझान का ही नतीजा था. मगर 1929 में अंग्रेजों ने इस प्रस्ताव को रद्द कर दिया. इसी वर्ष दिसंबर में लाहौर सम्मेलन में नेहरू को कांग्रेस का अध्यक्ष चुना गया और वहीं उन्होंने पूर्ण स्वतंत्रता की मांग कर डाली.
बंटवारे का दुख भी लेबर पार्टी के समय मिला
कांग्रेस की नीतियों का जो मसौदा बनाया उसमें भविष्य में भारत की छवि एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष देश बनाने की थी. नेहरू राष्ट्रीयकरण के पक्ष में थे. ब्रिटेन की लेबर पार्टी भारत को डोमिनियन स्टेट बनाने के पक्ष में थी. इसलिए भी नेहरू का स्वाभाविक रुझान लेबर पार्टी के साथ था. लेबर पार्टी की सरकार के समय ही भारत को पूर्ण स्वराज्य मिला, लेकिन गोरों ने एक भारी दुख भी दिया और वह यह कि भारत को दो टुकड़ों में बांट दिया. इसके लिए एक अव्यावहारिक नीति अपनाई गई. भारत के उत्तर-पश्चिम में पाकिस्तान और पूर्व में भी. इस तरह उन्होंने भारत के भीतर दो पाकिस्तान बनवा दिए. यह बंटवारा हिंदू-मुस्लिम आबादी के लिहाज से किया गया. भारत में जो हिंदू-मुस्लिम समस्या कभी नहीं रही, उसे साकार रूप अंग्रेजों ने दिया. अर्थात् आजादी तो दी लेकिन दुख भी उतने ही. फिर भी भारत के लोग लेबर पार्टी को पसंद करते रहे.
टोनी ब्लेयर ने धोखा दिया
लेबर पार्टी के साथ भारत का मोह भंग तब हुआ जब भारत ने अपनी आजादी की 50वीं सालगिरह पर ब्रिटेन की महारानी को भारत आने के लिए न्योता. उस समय जॉन मेयर की कंजरवेटिव सरकार ने महारानी के भारत जाने की योजना बनवाई. किंतु जब तक महारानी भारत आतीं, ब्रिटेन में सत्ता परिवर्तन हो गया और लेबर पार्टी के टोनी ब्लेयर प्रधानमंत्री बने. भारत में तब इंदर कुमार गुजराल प्रधानमंत्री थे, लेकिन ब्रिटेन की सरकार ने महारानी के भारत दौरे के पहले पाकिस्तान का दौरा प्लान किया. वहां महारानी ने भारत-पाकिस्तान के बीच कश्मीर मुद्दे को हल करने पर जोर दिया और महारानी के साथ आए विदेश मंत्री रॉबिन कुक ने तो पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ भोज में कश्मीर मुद्दे के समाधान के लिए ब्रिटेन की मध्यस्थता की पेशकश कर दी.
जेरेमी कॉर्बिन की भारत विरोधी नीति
यह भारत के लिए बहुत बड़ा झटका था. सरकार ने इस प्रस्ताव की कटु आलोचना की. इसका असर ब्रिटेन में बसे भारतीयों पर भी पड़ा और लेबर पार्टी के प्रति उनकी विरक्ति दिखी. ब्रिटेन में भारतीय काफ़ी संख्या में हैं और वे 50 सीटों पर सीधे असर डालते हैं. 2019 में कश्मीर से धारा 370 हटते ही ब्रिटेन में लेबर पार्टी के नेता जेरेमी कॉर्बिन ने कश्मीर मसले में अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की मांग की और कहा, वहां संयुक्त राष्ट्र की अगुवाई में जनमत संग्रह हो. यह स्पष्ट इशारा था कि लेबर पार्टी भारत विरोधी नीतियों पर चल रही है. नतीजा यह हुआ कि लेबर पार्टी का वहां के भारतीयों ने कड़ा विरोध किया और 2019 के चुनाव में लेबर पार्टी बुरी तरह हारी. लेबर पार्टी के अध्यक्ष इयान लैवरी ने माना कि उनकी पार्टी की इस मांग से ही भारतीय नाराज हुए.
कीर स्टार्मर ने ऋषि सुनक की धज्जियां उड़ा दीं
अभी 4 जुलाई को हुए मतदान में जो आंधी चली, उसने लेबर पार्टी को भारी जीत दिला दी. कंजरवेटिव पार्टी का एक तरह से सफाया हो गया. भारतीयों ने प्रधानमंत्री ऋषि सुनक को नहीं सुना. लेबर पार्टी के नेता कीर स्टार्मर ने भारतीय मतदाताओं को रिझाने की हरसंभव कोशिश की थी. नतीजा उनके पक्ष में गया. 410 सीटें पा कर वहां लेबर पार्टी आ गई है और कीर स्टार्मर नए प्रधानमंत्री बने हैं. भारत के साथ उनके संबंध कैसे रहेंगे, यह तो वक्त बताएगा. मगर भारत को और कीर स्टार्मर को भी इस पर बैठ कर विचार करना होगा.

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