क्या है ई-सीपीआर तकनीक, कैसे ये ऑर्टिफिशियल हार्ट की तरह करती है काम

देश में बीते कुछ सालों से हार्ट अटैक और कार्डियक अरेस्ट के मामलों में इजाफा हो रहा है. बच्चे भी इस समस्या का शिकार हो रहे हैं. कुछ दिन पहले दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में एक 11 साल की बच्ची को भर्ती कराया गया था. इस बच्ची को संक्रमण हो गया था. जिसकी वजह से हार्ट सही तरीके से काम नहीं कर रहा था. बच्ची को चेस्ट में दर्द था. इस दौरान डॉक्टरों ने जांच की तो पता चला कि उसका हार्ट केवल 25 फीसदी ही काम कर रहा था. बच्ची की हालत लगातार खराब हो रही थी. ऐसे में डॉक्टरों ने उसकी जान बचाने के लिए ई-सीपीआर तकनीक का यूज किया . बच्ची को कुछ दिनों तक इसपर ही रखा गया. करीब 7 दिन के बाद वह स्वस्थ हो गई.
ई-सीपीआर को एक्स्ट्राकोर्पोरियल कार्डियोपल्मोनरी रिससिटेशन कहते हैं. एक ऐसी तकनीक है जो कार्डियक अरेस्ट, हार्ट फेल के मामलों में मरीज की जान बचा सकती है. ई-सीपीआर में एक मशीन का यूज किया जाता है जो हार्ट और लंग्स के फंक्शन करती है. यह मशीन अस्थायी रूप से हार्ट और फेफड़ों के काम को संभालती है. ई-सीपीआर की मदद से हार्ट की तरह ही बॉडी को ब्लड सप्लाई किया जाता है और यह ऑक्सीजनेशन और ब्लड पंप करने में मदद करता है. इससे शरीर में मौजूद हार्ट को फिर से ठीक होने के लिए समय मिलता है. जब तक हार्ट कमजोर रहता है तब तक ई-सीपीआर हार्ट के फंक्शन करती रहती है.
ई-सीपीआर की मदद क्यों ली जाती है
सर गंगाराम अस्पताल में बाल चिकित्सा कार्डियोलॉजी विभाग में डॉ. मृदुल अग्रवाल बताते हैं कि ई-सीपीआर तकनीक से 11 साल की बच्ची की जान बचाई गई है. इस प्रोजीर में एक मशीन की मदद से शरीर में हार्ट के सभी फंक्शन होते हैं. इसकी मदद इसलिए ली जाती है ताकि हार्ट फेल्यिर और कार्डियक अरेस्ट के मरीजों की जान बचाई जा सके. जब हार्ट के काम करने की क्षमता कम होती रहती है तो ई-सीपीआर की मदद से मरीज के शरीर में हार्ट के जो फंक्शन हैं उनको इस मशीन के जरिए कराया जाता है.
आर्टिफिशियल हार्ट भी लगता है
कार्डियोलॉजिस्ट डॉ अजीत जैन बताते हैं कि कुछ मरीजों को आर्टिफिशियल हार्ट भी लगाया जाता है. इसे छाती के अंदर ट्रांसप्लांट किया जाता है और यह प्राकृतिक हार्ट की तरह ही काम करता है, उसको किसी भी उम्र में लगाया जा सकता है. इसको उन मरीजों में लगाया जाता है जिनका हार्ट फेल हो सकता है. हालांकि ये पूरी उम्र के लिए नहीं लगाया जाता. इसको मरीजों में एक विकप्ल के तौर पर लगाना पड़ता है जब तक की उसको हार्ट ट्रांसप्लांट के लिए कोई डोनर नहीं मिल जाता है. इसको 2 से तीन साल की अवधी तक के लिए लगाया जा सकता है. इस बीच ट्रांसप्लांट करना होता है.

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