गुजारा भत्ता को लेकर क्या मोदी सरकार को झुका पाएंगे मुस्लिम संगठन?

बेशक मुद्दा वही है लेकिन हालात बदले हुए हैं. 1985 में आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अंतर्गत गुजारा भत्ते के हकदार माने जाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ सड़क से सदन तक जबरदस्त लड़ाई लड़ी थी. तब बोर्ड सरकार को झुकाने में कामयाब हो गया था. इसी मसले पर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले ने बोर्ड और मुस्लिम संगठनों को फिर उत्तेजित कर दिया है, लेकिन फैसले से असंतुष्ट होने के बाद भी बोर्ड सधे कदमों के साथ आगे बढ़ रहा है और कानूनी रास्तों पर जोर दे रहा है, क्यों ? तब कांग्रेस की राजीव गांधी सरकार थी और अब नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली NDA की सरकार है.
सुप्रीम अदालत के फैसले पर सवाल
23 अप्रैल 1985 को एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाह बानो को सुप्रीम कोर्ट द्वारा दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता की हकदार बताए जाने के फैसले ने पूरे देश का माहौल सरगर्म कर दिया था. मुस्लिम संगठनों ने इसे पर्सनल लॉ में दखल माना था. इस लड़ाई में राजीव गांधी की सरकार बैकफुट पर आ गई, सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलट दिया. 1986 में मुस्लिम महिलाओं के लिए विशेष कानून बनाया गया. लगभग चार दशक के अंतराल पर सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर ऐसे ही एक मामले में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का हकदार माना है. इस अदालती फैसले के खिलाफ मुस्लिम संगठनों की प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गई हैं. तय है कि इसकी गूंज अदालत के बाहर भी सुनाई देगी. लेकिन इस बीच सबसे बड़ा सवाल ये है कि संसद में उनके हक में कौन-कौन से दल खड़े होंगे? जल्दी ही बजट सत्र में इसकी झलक दिख सकती है.
हर धर्म की महिला गुजारा भत्ते की हकदार- SC
मुद्दा भले एक हो लेकिन शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जब दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिला को गुजारे भत्ते का हकदार माना था तो उनके लिए कोई अलग कानून वजूद में नहीं था. राजीव गांधी सरकार ने इस फैसले को मुस्लिम महिला (तलाक संबंधी अधिकारों के संरक्षण) अधिनियम 1986 के जरिए निष्प्रभावी कर दिया था. ताजा मामले में धारा 125 के तहत मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता पाए जाने की हकदार मानते समय सुप्रीम कोर्ट के सामने 1986 का वह कानून भी था जिसे शाह बानो मामले को पलटने के लिए तत्कालीन सरकार ने बनाया था. बावजूद इसके कोर्ट ने इस कानून के कारण तेलंगाना के ताजा मामले को धारा 125 के दायरे से बाहर होने की दलील खारिज कर दी थी. कोर्ट ने फैसला दिया है कि कोई भी कानून धारा 125 के अंतर्गत किसी भी धर्म की तलाकशुदा महिला के अधिकारों को प्रभावित नहीं कर सकते.
मुस्लिम संगठनों की राय में फैसला पर्सनल लॉ में हस्तक्षेप
पहली नजर में सुप्रीम कोर्ट का ताजा फैसला एक तलाकशुदा जोड़े अब्दुल समद और उसकी पत्नी के बीच की कानूनी लड़ाई के निपटारे तक सीमित है, लेकिन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड समेत कई मुस्लिम संगठनों का नजरिया इसे लेकर जुदा है. वे इसे मुस्लिम पर्सनल लॉ में सीधा हस्तक्षेप मानते हैं और इस फैसले के दूरगामी प्रभावों को लेकर फिक्रमंद हैं. स्वाभाविक है कि वे चाहेंगे कि यह पलटा जाए. ऐसे ही हालात शाह बानो मामले में पैदा हुए थे. तब मुस्लिम संगठनों ने इसकी लड़ाई अदालत की जगह सड़क और सदन में लड़ी थी और राजीव गांधी सरकार को झुका कर कामयाबी भी हासिल की थी. हालांकि इस लड़ाई में उनकी जीत ने देश के माहौल पर बुरा असर डाला. बहुसंख्यकों के बीच विपरीत प्रतिक्रिया के डर से डैमेज कंट्रोल में राजीव गांधी सरकार ने अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवा दिया लेकिन ये कोशिश कांग्रेस के काम नहीं आई और आने वाले दिनों में कांग्रेस ने इसकी भारी राजनीतिक कीमत चुकाई थी.
पहले शाह बानो के साथ खड़ी थी राजीव सरकार
करीब 38 साल पहले क्या हुआ था ? शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तीन महीने बाद मुस्लिम लीग के सदस्य जी.एम. बनातवाला ने एक निजी बिल के जरिए मुस्लिमों को धारा 125 के दायरे से बाहर रखने की मांग की. राजीव गांधी की पहल पर केंद्रीय गृह राज्य मंत्री आरिफ मोहम्मद खान ने इसका जोरदार विरोध किया. उन्होंने इस्लामिक मामलों के विद्वान और आजादी की लड़ाई की अगली कतार के नेता मौलाना अबुल कलाम आजाद के कुरान पर आधारित तलाकशुदा औरतों से जुड़े अधिकारों के हवाले से बिल का कड़ा विरोध किया था. संसद में यह बिल गिर गया लेकिन अदालती फैसले के खिलाफ मुस्लिम संगठनों का विरोध तेज होता गया. 1984 में राजीव गांधी ने लोकसभा की 403 सीटों पर जबरदस्त जीत दर्ज की थी लेकिन 1985 के अंत तक उत्तर भारत में उपचुनावों में पार्टी को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा था. इसे शाह बानो मामले का इफेक्ट माना गया. दबाव बढ़ने पर राजीव गांधी का रुख बदला और मुस्लिमों से जुड़े मामलों में उन्होंने आरिफ मोहम्मद खान को दरकिनार कर जेड.ए. अंसारी को तरजीह देनी शुरू कर दी.
मुस्लिम समर्थन खोने के डर से बदला फैसला
आरिफ खान और जेड.ए. अंसारी की पार्टी भले एक रही हो लेकिन शाह बानो मामले में दोनों का स्टैंड नदी के दो छोर की तरह अलग-अलग था. अंसारी ने लोकसभा में अपने तीन घंटे के भाषण में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सिर्फ पूर्वाग्रह से ग्रस्त, भेदभावपूर्ण और विरोधाभासी ही नहीं बताया था बल्कि न्यायधीशों को इस्लामी कानूनों की व्याख्या के नजरिए से “बहुत छोटा इंसान” कहते हुए फैसले को खारिज किया था. फरवरी 1986 में सरकार ने संसद में मुस्लिम महिला बिल पेश किया, जिसके द्वारा तलाकशुदा पत्नी के गुजारे की व्यवस्था उसके संबंधियों पर छोड़ दी गई. पूर्व पति को सिर्फ इद्दत अवधि (तीन महीने) के लिए गुजारा भत्ता देने का जिम्मेदार माना गया. इस बिल को पारित कराने के लिए कांग्रेस ने अपने सांसदों के लिए व्हिप जारी किया था. पार्टी के इस फैसले से दुखी होकर आरिफ मोहम्मद खान ने कांग्रेस छोड़ दी थी.
मोदी का रुख पता, सेक्युलर दल किधर?
मुस्लिम पर्सनल बोर्ड एक बार फिर शाह बानो मामले जैसी चुनौती से रूबरू है, हालांकि अब्दुल समद मामले में उसका स्टैंड पुराना है. यानी सुप्रीम अदालत के इस फैसले को वह शरिया कानून में दखल मानता है, लेकिन 1985 और 2024 के राजनीतिक हालात में बुनियादी फर्क है. तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी जिसे मुस्लिम वोटरों के समर्थन की हमेशा फिक्र थी. 2024 में नरेंद्र मोदी मुस्लिम वोटरों के कड़े विरोध के बीच तीसरी बार सत्ता में हैं, उनकी सरकार तीन तलाक को रद्द कर चुकी है. पिछले कार्यकाल में सरकार तेजी से समान नागरिक संहिता की ओर भी बढ़ रही थी. तीसरी बार पूर्ण बहुमत न मिलने और सहयोगियों के सहारे होने के कारण मुमकिन है कि ऐसे सवालों पर वो उतनी तेजी न दिखाएं. लेकिन अपनी विचारधारा के अनुकूल किसी अदालती फैसले के खिलाफ उनके जाने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. फिर भी पर्सनल लॉ बोर्ड और अन्य मुस्लिम संगठन चाहेंगे कि संसद में यह मुद्दा जोर-शोर से उठे. सरकार का रुख उन्हें पता है लेकिन मुस्लिमों के हक को लेकर हिमायती माने जाने वाली सेक्युलर पार्टियों से वो मदद की उम्मीद करते हैं. कांग्रेस के लिए माना जा रहा है कि हाल के लोकसभा चुनाव में उसकी सीटों की बढ़ोत्तरी में मुस्लिम वोटरों का बड़ा योगदान रहा है. ऐसे में क्या पार्टी इस मसले पर सॉफ्ट हिंदुत्व के साथ राजीव गांधी के दौर की जुगलबंदी करना चाहेगी? उत्तर प्रदेश में सपा, बिहार में राजद तो पश्चिम बंगाल में टीएमसी को मुस्लिम वोटरों का जबरदस्त समर्थन मिलता रहा है. वे क्या स्टैंड लेते हैं, इस पर सबकी नजर रहेगी.

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