चार धाम के लिए इतनी भीड़ क्यों? घुमक्कड़ी और टूरिज्म में बहुत बड़ा फर्क

मैदान की गर्मी से ऊबे लोग पहाड़ों पर जाने का प्रोग्राम बनाते हैं. लोगों की कोशिश रहती है कि जो पहाड़ी स्थान जिसके घर से करीब हो, वह वहां जाए. दिल्ली, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के लोग उत्तराखंड तथा हिमाचल के पर्वतीय स्थलों पर जाना पसंद करते हैं. कश्मीर घाटी कितनी भी सुरक्षित होने का दावा क्यों न किया जाए, मगर लोग वहां जाने से अभी भी हिचकिचाते हैं. बंगाल और बिहार के लिए पसंदीदा स्थान दार्जिलिंग है. उत्तराखंड में चूंकि चार तीर्थ भी हैं, इसलिए भीड़ यहां टूट पड़ती है. पर्यटक और तीर्थयात्री दोनों. अभी 10 मई को केदारनाथ और यमुनोत्री के कपाट खुल गए थे, जबकि बद्रीनाथ और गंगोत्री के कपाट 12 मई को खुले. हेमकुंड साहिब के दर्शन 25 मई से शुरू हुए और पहले ही दिन 3500 लोग वहां पहुंच गए.
ऋषिकेश के आगे बढ़ना मुश्किल
हालत यह है, कि अब ऋषिकेश से ही जाम लगना शुरू हो जाता है. क्योंकि इन धामों में जाने के लिए यात्रा का पहला पड़ाव यही है. इसी के साथ मसूरी के रास्ते में देहरादून से आगे बढ़ते ही जाम शुरू हो जाता है. गाड़ी को मसूरी की माल रोड तक पहुंचने में पूरा दिन लग जाता है. यही हाल नैनीताल, मसूरी और शिमला का है. पहाड़ों में रास्ते सीमित होते हैं और अगर वहां के संपर्क मार्गों पर इतना जाम लगेगा तो वहां के लोगों का आवागमन कैसे होगा. अभी जब से चार धाम यात्रा शुरू हुई है, अकेले केदारनाथ जाने वाले यात्रियों में से 29 लोग जान गंवा चुके हैं. रास्ते कभी भी किसी यात्री को अटैक पड़ जाता है तो उसे अस्पताल तक ले जाना मुश्किल. लोग 16 जून 2013 का केदारनाथ हादसा भूल गए, जब 10 हजार लोग मारे गए थे.
तीर्थ और पर्यटन का घालमेल
दरअसल अपने देश में भी टूरिज्म या पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए प्रचार-प्रसार पर जिस तरह से बढ़ा है. उसके चलते हर स्टेट अपने-अपने यहां के पर्यटन को बढ़ावा देने को बेचैन है. कोई अपने प्रदेश को भगवान की अपनी धरती बताने को व्यग्र है तो किसी का जोर है कि कुछ दिन तो उनके सूबे में गुजारिए. कुछ प्रदेश अपने यहां की धरती को अमूल्य बता रहे हैं. मगर कोई भी अपनी इस विरासत को बचाए रखने को बेचैन नहीं दिखता. पर्यटन का असर वहां की जमीन, वहां के समाज और वहां की संस्कृति पर भी पड़ रहा है लेकिन इसे बचाने के लिए कोई प्रयासरत नहीं है. पर्यटन एक ऐसा उपभोक्तावादी दुधारू बाजार है जो घुन की तरह पहले तो वहां के पर्यटन को बढ़ावा देता है फिर धीरे-धीरे उसे खत्म करने लगता है. इसलिए पर्यटन बाज़ार को बढ़ावा देने के पूर्व अपनी संस्कृति को बचा कर रखना जरूरी है. जबकि पहले तीर्थयात्रा में श्रद्धा होती थी, पर्यटन नहीं.
रोजगार तो मिला पर अपनी विशेषता का लोप भी होता है
ऊपरी तौर पर लगता है कि पर्यटन उस क्षेत्र-विशेष के लोगों के लिए तमाम मौके लेकर आता है. स्थानीय लोगों को रोजगार मिलता है, छोटे और खुदरा सामान बेचने वालों को खरीदार मिलते हैं. लेकिन एक जो अहम बात है वह यह कि यह पर्यटन उद्योग अपनी उपभोक्तावादी कल्चर के चलते स्थानीय विविधता को नष्ट कर देता है. यह कितना घातक है जिसका पता तब चलता है जब विविधता खत्म होने लगती है. उत्तराखंड के पहाड़ों पर हर साल पर्यटकों का इतना दबाव पड़ता है कि मसूरी और नैनीताल जैसे पर्यटक स्थल तो लगभग बरबाद हो गए हैं. यहां पर पूरे वर्ष पर्यटकों की इतनी आवाजाही होती है कि मसूरी में 15 किमी पहले से ही ट्रैफिक जाम शुरू हो जाता है और नैनीताल की तो नैना झील के आसपास बदबू और कचरे का यह आलम है कि अब सुबह-शाम वहां घूमने से ऊबन होती है.
केदारनाथ हादसा लोग भूल गए
साल 2013 में जब केदारनाथ में हादसा हुआ था तब लगा था कि शायद अब उत्तराखंड की सरकार को समझ आ गई होगी और भविष्य में यहां के बेलगाम पर्यटन पर रोक लगेगी. लेकिन एक छोटे-से सूबे के समक्ष आय के और कोई स्रोत ही नहीं थे जो वह पर्यटन के अलावा और कोई उपाय तलाश पाती. लोगों की मांग के चलते छोटे-छोटे राज्य तो बना दिए गए लेकिन उनके यहां आय के स्रोत कैसे विकसित किए जाएं इस पर कभी नहीं विचार किया गया. इसलिए उनके पास यही एक रास्ता बचता है कि वे अपने यहां पर्यटन को ललचाए. जब सरकारें उद्योग और व्यापार को नहीं विकसित कर पातीं तब वे सिर्फ पर्यटन उद्योग के भरोसे रह जाति हैं क्योंकि यह एक ऐसा उद्योग है जिसमें किसी भी तरह के भारी इन्फ्रास्ट्रक्चर की जरूरत नहीं पड़ती. बस उस क्षेत्र विशेष की भौगोलिक बनावट ही काफी होती है.
घुमक्कड़ी और टूरिज्म में बहुत बड़ा फर्क
अगर सरकारें घुमक्कड़ी और टूरिज्म के बारीक फर्क को समझतीं तो शायद ऐसा गड़बड़झाला न हुआ करता. घुमक्कड़ी एक लगन है, एक जूनून और इसके लिए पैसों की जरूरत नहीं होती. लेकिन टूरिज्म एक व्यवसाय है. एक घुमक्कड़ पूरी दुनिया घूमता है कुछ नया जानने के लिए और कुछ नया समझने के लिए. वह शांतिपूर्वक, धैर्य के साथ कहीं भी किसी भी जगह रह लेगा और बसर कर लेगा. लेकिन एक पर्यटक बिना शोर शराबे के नहीं रह सकता. वह जहां जाएगा सबको बता देगा कि वह कुछ खास है. और इस इलाके को उपकृत करने के मकसद से यहां आया हुआ है. इसीलिए आप पाएंगे कि पर्यटन ने सारे संसार का नक्शा बिगाड़ दिया है. उसे भांति-भांति की शराब चाहिए, हर तरह के व्यंजन चाहिए. बैंकाक हो, मकाऊ हो, मनीला हो या दुबई आज इसलिए बदनाम हैं.
टूरिज्म के चलते बाघों पर संकट
नतीजा है कि अपने देश के तमाम सूबों की राज्य सरकारें और खुद केंद्र सरकार भी यही सब कर रही हैं. राज्य सरकारें पैसों की आमद के लालच में पर्यटकों को लुभाने के लिए वह सब करती हैं जिनसे वहां की जलवायु प्रभावित होती है और संस्कृति का ढांचा भी बिगड़ता है. आज अगर जगह-जगह परदेसियों को बाहर करने की मांग उठ रही है उसके पीछे यही मानसिकता है. पर्यटक दक्षिण भारत में जाकर मटर पनीर अथवा दाल मखनी या तंदूरी चिकन की मांग करेगा और उत्तर में आकर डोसा, वड़ा पावा और इडली मांगेगा.
उसे यह समझ में नहीं आता कि अपनी इस तरह की हरकत से वो बायो डायवर्सिटी (जैव विविधता) को चौपट कर रहा है. यह सिर्फ खान-पान की विविधता या संस्कृति को बचाने की ही बात नहीं है बल्कि इसका बुरा असर हमारे देश के हर जीवधारी पर पड़ेगा. मनुष्यों पर भी और अन्य प्राणियों पर भी. यही वजह है कि कभी हम शेरों की घटती संख्या से चिंतित होते हैं तो कभी बाघों की और कभी हाथियों की. इसे काफी पहले ही आभास कर लिया गया था कि जिन बाघों पर हमारे देश को गर्व रहा है बंगाल टाइगर की वह प्रजाति गायब होती जा रही है.
किस जीव को संरक्षित करें
हमारे देश में बाघों को बचाने के लिए टाइगर प्रोजेक्ट की स्थापना उस समय की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1971 में कपूरथला के महाराजा ब्रजेन्द्र सिंह की अगुवाई में की थी. मगर अब उसे राज्य सरकारों ने पैसों के लालच में चौपट कर डाला है. जिम कार्बेट जैसे अभयारण्य इन्हीं पर्यटकों की बेशुमार आवाजाही से खत्म होता जा रहा है. यदि जिम कार्बेट को बचाना है तो केंद्र सरकार इसे अपने हाथों में लेना होगा. और इसे अफसरों की बीवियों और धनाढ्य पर्यटकों के लिए सैरगाह न बनाया जाए. यहां वही आ सकें जिनकी वाइल्ड लाइफ में दिलचस्पी हो वर्ना उन्हें गेट से ही बाहर कर दिया जाए. इसके लिए जिम कार्बेट के हर प्रवेश द्वार पर सुशिक्षित और प्रशिक्षित लोग रहें जो पर्यटकों को अंदर प्रवेश की अनुमति तभी दें जब वे खुद उनके संयम से संतुष्ट हो जाएं. दुख है कि उत्तराखंड की सरकार जिम कार्बेट का व्यवसायीकरण करे डाल रही है. इस पर अंकुश बहुत जरूरी है.
जंगल और पहाड़ों पर पॉलीथिन
हिमालय की तराई में शिवालिक पहाड़ियों के आसपास का सारा जंगल रामगंगा के दोनों तरफ लंबी-लंबी घास के जंगलों से घिरा है, जिम कॉर्बेट. इन्हीं घास के जंगलों में बाघ रहता है. सूर्य की रोशनी उसके शरीर में लंबी घास के बीच में से आती है. इसीलिए बाघ के शरीर में चारों तरफ लाइनें होती हैं. जबकि तेंदुआ सागौन के पेड़ों के ऊपर रहता है इसलिए पत्तों के बीच से छनकर आई रोशनी उसे मिलती है. और उसके बदन पर चित्तियां होती हैं.
जंगल के कुछ कायदे-कानून होते हैं उन्हें हमें फॉलो करना चाहिए. किसी भी अभयारण्य में हथियार लेकर अथवा कोई मादक पदार्थ लेकर नहीं जा सकते. अभयारण्य का मतलब ही है कि हम वाइल्ड लाइफ के बीच जा रहे हैं. यह उनका घर है इसलिए हमें उनकी सुविधा असुविधा का ख्याल रखना चाहिए. हम वहां जंगल में गेस्ट हाउस के बाहर कुछ खाएं पिएंगे नहीं. कोई पॉलीथिन नहीं इस्तेमाल करेंगे. और कोई चीज फेकेंगे नहीं, न ही हम वहां शोर शराबा करेंगे अथवा मोबाइल इस्तेमाल करेंगे.
बायोडायवर्सिटी से खिलवाड़
जिम कार्बेट अभयारण्य में गाड़ियों की आवाजाही, पर्यटकों का धूम धड़ाका इतना अधिक था कि वहां कोई भी जानवर रह ही नहीं सकता. पर उत्तराखंड की सरकार ने आज तक किसी पर्यटक को नहीं रोका, उलटे उन्हें बुलाने के लिए तरह-तरह के लुभावने वादे भी करती रहती है. लेकिन ये वादे वह अपने प्रदेश की जैव-विविधता से समझौता कर कर रही है. और यह मामला अकेले उत्तराखंड सरकार का ही नहीं है लगभग सारे छोटे राज्य अपने-अपने प्रदेशों की जैव विविधता के साथ ऐसे खिलवाड़ करते रहते हैं. होना तो यह चाहिए कि हम अपने प्रदेशों की जैव विविधता को बचाएं और उन चीजों का प्रदर्शन करें जिन्हें हमने बनाया है. और अगर नहीं बनाया है तो प्रकृति की इस देन को संवर्धित किया है तथा उन्हें बचा कर रखा है.

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