टीबी की दवाएं नहीं कर रही मरीजों पर असर, क्या है मल्टी ड्रग रेजिस्टेंट, क्यों बढ़ रहा इसका खतरा?
भारत में ट्यूबरक्यूलोसिस (टीबी ) के मामलों में पहले की तुलना में कमी आई है. टीबी पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि बीते 8 सालों में इस बीमारी के मरीजों में 13 फीसदी तक की गिरावट आई है, लेकिन अभी भी देश में टीबी मरीजों की संख्या में उतनी कमी नहीं आई है जिससे इस बीमारी को अगले कुछ सालों में खत्म किया जा सके. इस बीच दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल के विशेषज्ञों ने टीबी पर एक रिसर्च की है. जिससे पता चला है की टीबी के इलाज में यूज होने वाली कुछ दवाओं का मरीजों पर असर नहीं हो रहा है.
मेडिकल की भाषा में इस समस्या को मल्टी ड्रग रेज़िस्टेंट टीबी कहते हैं. इसका मतलब होता है की टीबी के बैक्टीरिया पर इस बीमारी की कुछ दवाएं असर नहीं कर रही हैं. ऐसा होने का कारण यह है की दवाओं के खिलाफ टीबी का बैक्टीरिया खुद को जिंदा रखता है और उसपर दवाओं का असर नहीं होता है. इस तरह की टीबी में इलाज चलने के बाद भी मरीज को आराम नहीं मिलता है. ऐसे में डॉक्टरों को दवाओं को चेंज करना पड़ता है.
ड्रग रेज़िस्टेंट टीबी का इलाज लंबा
सफदरजंग अस्पताल में कम्यूनिटी मेडिसिन विभाग में प्रोफेसर डॉ. जुगल किशोर बताते हैं कि आमतौर पर टीबी की दवाओं का कोर्स 6 महीने या फिर 9 महीनों तक का होता है. टीबी के बैक्टीरिया को खत्म करने के लिए डॉक्टर एंटीबायोटिक दवाएं देते हैं. इससे बीमारी खत्म हो जाती है. लेकिन ड्रग रेजिस्टेंट टीबी के मामलों में ऐसा नहीं होता है.
डॉ किशोर बताते हैं कि ड्रग रेजिस्टेंट टीबी का इलाज करने में काफी समय लग जाता है. क्योंकि दवाओं को खाने के बाद भी टीबी के बैक्टीरिया मर नहीं पाते हैं. ऐसे में 2 से तीन साल तक इलाज करना पड़ता है. इसके लिए दवाओं को भी बदला जाता है. जब तक दवाएं असर नहीं करती और टीबी का खात्म नहीं हो जाता तब तक इलाज चलता रहता है.
क्यों नहीं होता टीबी की दवाओं का असर
ड्रग रेजिस्टेट टीबी के कई कारण है. टीबी रोग के लिए उपचार का पूरा कोर्स कई मरीज पूरा नहीं करते हैं. उनको लगता है कि अब आराम लग गया है तो दवा छोड़ दें. इस वजह से टीबी के सभी बैक्टीरिया शरीर से खत्म नहीं हो पाते हैं और उनकी क्षमता बढ़ती रहती है. कुछ मामलों में स्वास्थ्य कर्मचारी भी सही दवा नहीं लिखते हैं. बीमारी के हिसाब से दवा नहीं लिखी जाती है. दवा के फ़ॉर्मूलेशन का इस्तेमाल ठीक नहीं हो पाता है. इस वजह से बीमारी पर दवाएं असर नहीं करती हैं. ऐसे में मरीज को ड्रग रेजिस्टेट टीबी हो जाती है. कुछ मामलों में एक्स्ट्रीम रेसिस्टेंट टीबी भी हो जाती है. इसमें टीबी का बैक्टीरिया इतना मज़बूत हो जाता है कि उसे खत्म करने में कोई भी दवा काम नहीं करती. ऐसे मरीज़ की जान बचाना चुनौती बन जाता है.
टीबी के इलाज के लिए नई दवाएं
हाल ही में केंद्र सरकार ने मल्टी ड्रग रेजिस्टेंट टीबी के इलाज के लिए नई दवाओं को मंजूरी दी है. इसमें टीबी के इलाज में यूज होने वाली दवा बेडाक्विलाइन और लाइनजोलिड के साथ प्रोटोमानिड मेडिसन को भी शामिल किया गया है. दावा किया जा रहा है कि यह दवाएं 6 महीने में ही टीबी को कंट्रोल कर सकती हैं. इन दवाओं से उन मरीजों के ट्रीटमेंट में भी फायदा मिल सकता है जिनपर टीबी की दूसरी दवाएं असर नहीं कर रही है यानी जिन मरीजों को मल्टी ड्रग रजिस्टेंट टीबी हो गई है.
2025 तक टीबी को खत्म करने का लक्ष्य
WHO की रिपोर्ट बताती हैं कि साल 2021 में दुनियाभर में टीबी के करीब 1.25 करोड़ केस आए थे. इनमें से 27 फीसदी मरीज अकेले भारत से थे. हालांकि देश में बीते कुछ सालों से टीबी के मरीज कम हो रहे हैं, लेकिन फिर भी आंकड़ा उतना नहीं घटा है, जिससे साल 2025 तक इस बीमारी को खत्म किया जा सके. टीबी को खत्म करना अभी सरकार के लक्ष्य से काफी दूर नजर आ रहा है. एक चिंता की बात यह भी है कि टीबी का इलाज करने वाले स्वास्थ्य कर्मचारी भी इस बीमारी की चपेट में आ रहे हैं. ऐसे में टीबी की रोकथाम एक बड़ी चुनौती बनती नजर आ रही है.