तारीख याद रखिएगा…आज हिंदुस्तान में पैदा होंगे भविष्य के रोहित, विराट और हार्दिक
आज हिंदुस्तान ने भारतीय क्रिकेट टीम के कई रंग देखे. एयरपोर्ट पर उतरे तो आम फैंस के साथ नाचे. होटल पहुंचे तो होटल वालों के साथ-साथ बैंड-बाजे वालों के साथ नाचे. केक काटा. फिर देश के प्रधानमंत्री से मिले. प्रधानमंत्री से मिलने का कार्यक्रम उसी जर्सी में हुआ जिसे पहन कर टीम वर्ल्ड चैंपियन बनी थी. इसके बाद टीम मुंबई पहुंची. मुंबई में ओपन जीप में खिलाड़ियों का काफिला निकला. इसके बाद खिलाड़ी वहां पहुंचे जहां पिछली बार वर्ल्ड चैंपियन का ताज सजा था- यानी मुंबई का वानखेड़े स्टेडियम. इन तमाम कार्यक्रमों में हजारों फैंस शरीक हुए. लाखों-करोड़ों लोगों ने अलग अलग शहर में बैठकर टेलीविजन सेट्स पर सम्मान की झलकियां देखीं. इसमें हर उम्र के लोग थे. हर वर्ग के लोग थे. इसमें क्रिकेट फैंस थे, क्रिकेट खेलने वाले खिलाड़ी थे. इन्हीं खिलाड़ियों में 8-10 या 12 साल के बच्चे भी थे. जो क्रिकेट के दीवाने हैं. क्रिकेट खेलने के लिए डांट खाने को तैयार हैं. कुछ तो पिटने को भी तैयार हैं. उन बच्चों ने भी आज अपने क्रिकेट स्टार्स का जलवा देखा होगा.
ये सोशल मीडिया का दौर है. इसमें जरूरी नहीं कि आप सबकुछ टीवी पर ही देखें. मोबाइल हाथ में है और मोबाइल में इंटरनेट है. बस इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए. देश के अलग-अलग शहरों में क्रिकेट खेलने वाले छोटे-छोटे लाखों बच्चों ने आज समझा होगा कि वर्ल्ड चैंपियंस को कितना प्यार मिलता है, कितना सम्मान मिलता है, कितनी इज्जत मिलती है. इन्हीं लाखों बच्चों में से हजारों बच्चों की आंखों में आज के दिन ही एक सपना पलना शुरू होगा- बड़े होकर वर्ल्ड चैंपियन बनना. बड़े होकर रोहित शर्मा बनना, विराट कोहली बनना, जसप्रीत बुमराह बनना…इसीलिए 4 जुलाई 2024 की तारीख याद कर लीजिए. चौंकिएगा नहीं, अगर आज से 10-12 साल बाद अगर कोई वर्ल्ड चैंपियन खिलाड़ी ये कहे कि उसने 2024 में भारतीय टीम की जीत का जश्न देखकर ही देश के लिए खेलने का प्रण किया था.
खेलों को लेकर बदली है हमारी-आपकी सोच
वो वक्त अब बीत चुका है जब कहा जाता था कि खेलोगे कूदोगे तो होगे खराब, पढ़ोगे लिखोगे तो बनोगे नवाब. अब खेल को लेकर समाज की सोच बदली है. आज लोग चाहते हैं कि उनके घर के बच्चे कोई एक खेल खेलें. घर से बाहर निकलें. पार्क में जाएं, मैदान में जाएं. तमाम सारे पैरेंट्स तो बच्चों के खेल-कूद को लेकर खासा सचेत हैं. वो बच्चों को एकेडमी लेकर जाते हैं. क्रिकेट के अलावा बाकि खेलों में भी लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है. कोच को बच्चे में संभावना दिखती है तो पैरेंट्स और गंभीर हो जाते हैं. आपको ऐसे पैरेंट्स भी मिलेंगे जिनमें मां या पिता में से किसी एक ने अपनी नौकरी छोड़ दी. ऐसा इसलिए कि बच्चे के खेल को और गंभीरता से लिया जाए.
ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं. पीवी सिंधु के पैरेंट्स ने हैदराबाद में पुलेला गोपीचंद की एकेडमी के पास रहने का फैसला किया. गॉल्फर अदिति अशोक के पैरेंट्स ने भी नौकरी को प्राथमिकता ना देकर बेटी के खेल को प्राथमिकता दी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि आज पड़ोस में रहने वाले किसी खिलाड़ी का देश की नुमाइंदगी करना असंभव सा नहीं लगता, आज आपके पड़ोसी के बच्चे का आईपीएल में चुना जाना कोई असंभव बात नहीं लगती. अब क्रिकेट सिर्फ मुंबई, बैंगलोर या दिल्ली के खिलाड़ी नहीं खेल रहे हैं. आज भारतीय टीम में दिल्ली के विराट हैं तो मुंबई के रोहित शर्मा भी… कानपुर के कुलदीप यादव और गुजरात के अक्षर पटेल भी हैं. क्रिकेट का खेल अब कुछ शहरों में सिमटा नहीं है. इसीलिए रायबरेली के आरपी सिंह भी भारत के लिए खेलते हैं और इखर के मुनाफ पटेल भी.
कामयाबी खेल के समीकरण को भी बदलती है
ऐसा नहीं कि खेलों को सोच या नजरिया सिर्फ क्रिकेट में बदला है. क्रिकेट के अलावा बॉक्सिंग, शूटिंग, बैडमिंटन, टेनिस जैसे खेलों में भी स्थिति तेजी से बदली है. इसके पीछे की वजह को समझना जरूरी है. जैसे-जैसे खेलों को उनके चैंपियन खिलाड़ी मिलेंगे वैसे-वैसे उस खेल की लोकप्रियता बढ़ेगी. इसीलिए एथेंस में जब राज्यवर्धन राठौर शूटिंग में सिल्वर जीतते हैं या बीजिंग में अभिनव बिंद्रा गोल्ड मेडल जीतते हैं तो तमाम स्कूलों में शूटिंग की एकेडमी शुरू हो जाती है. जब विजेंद्र बॉक्सिंग में या सुशील-योगेश्वर पहलवानी में ओलंपिक मेडल लाते हैं तो कुश्ती और बॉक्सिंग जैसे खेलों को भी विस्तार मिलता है. सानिया मिर्जा और सायना नेहवाल की कामयाबी का ग्राफ ऐसा चढ़ता है कि लोग अपने घर में बच्चियों का नाम सानिया और सायना रखना शुरू कर देते हैं.
इस सच को भी स्वीकारना होगा कि अब सरकारी ‘अप्रोच’ भी बदली है. अब खिलाड़ियों को हर वो सुख-सुविधा देने का प्रयास होता है कि वो जीत हासिल करें. सरकार सिर्फ खेलो इंडिया खेलो का प्रचार प्रसार नहीं करती, बल्कि ऐसी योजनाएं भी बनाती हैं कि खिलाड़ियों को सहूलियत मिले. इस देश ने ऐसी खबरें भी पढ़ी हैं कि खिलाड़ी को अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए मेडल बेंचना पड़ा. अब ऐसी नौबत नहीं आती. अब अगर खिलाड़ी ने किसी भी खेल में देश की नुमाइंदगी की है और कॉमनवेल्थ गेम्स, एशियन गेम्स जैसे लेवल पर कामयाबी दिलाई है तो वो आर्थिक तौर पर सम्मानजनक जिंदगी जीने के योग्य रहता है. इसीलिए हर शहर के छोटे-बड़े मोहल्ले में कोई भी खेल खेलने वाले बच्चों के सपने टूटते नहीं बल्कि उन सपनों को ताकत मिलती है.