पंचायत सीज़न-3: एक बगल में चांद है और एक तरफ सब रोटियां

अब जब पंचायत पर लिखने बैठा हूं, गुल्लक देख चुका हूं और मिर्जापुर आ गया है. बकवास वजहों का बहाना लेकर देर से लिखने बैठा. लेकिन पंचायत के बारे में लिखना ज़रूरी है. इसलिए गुल्लक बाद में फोड़ेंगे, मिर्जापुर मन हुआ तो जाएंगे. फिलहाल पंचायत.
सीजन-1 और सीजन-2 में जिस पंचायत से हम रूबरू हुए, जिस गांव की छोटी-बड़ी घटनाओं और पात्रों ने हमको लुभाया, हंसाया, रुलाया, उन सब से गुजरता हुआ पंचायत कई ऐसे लोगों के दिलोदिमाग में भी एक फुलेरा पैदा कर चुका है जिन्होंने गांव नहीं देखा या गांव से वास्ता नहीं रहा.
पंचायत की शुरुआत रोचक थी. चुहल थी. हंसी थी. छोटी-बड़ी नोंकझोंक. प्यारा-प्यारा पन था. बीयर और लौकी की शानदार कॉकटेल. पंचायत के सीजन-1 में सब नायक थे. सब जबर थे. सचिव की धूम थी. प्रधान पति और प्रहलाद की शानदार एक्टिंग थी. बाकियों का रोल और अभिनय भी मजेदार था.
लेकिन दूसरा सीजन अपने आखिरी पड़ाव पर आते-आते गंभीर हो गया. इस बार कोई समय से पहले चला गया था और यहीं से पंचायत में एक एंग्री-ओल्डमैन की एंट्री सीजन-3 में हो गई. अवसाद और वेदना में डूबा हुआ एक एकल पिता अब घर नहीं जाता. भय उसके भीतर से मर चुका है. हंसने के लिए उसे जतन करना पड़ रहा है.
तीसरे सीजन की गहराई
तीसरा सीजन गहरा है. गहरे में कई बिंब हैं. भाव गहरे होते गए हैं. प्रेम से पहले की अटखेलियां अब प्रेम में परिणीत हो चुकी हैं. इस बार भी परीक्षा निकाल नहीं पाए तो कितनी किरकिरी है, इसलिए तैयारी गंभीर है. प्रधान की राजनीतिक सूझ बढ़ी है और वो प्रधानपति के निर्णयों को गलत साबित करके स्वतंत्र फैसले ले पा रही हैं. इस राजनीतिक गहराई के बाहर गांव की राजनीति भी गहरी हो चुकी है. बनरकस अब केवल ताने नहीं मार रहा, रणनीति बनाकर हमले कर रहा है. विनोद उसमें शामिल है.
राजनीति के गहरे बादल फुलेरा को घेर रहे हैं. गांव दो हिस्सों में बंट गया है. पूरब और पश्चिम के बीच की लकीर पर प्रधानी की कुर्सी हिल रही है. विकास की बंदरबांट पर सवाल है और विधायक के बाहुबल ने हिंसात्मक रुख अपना लिया है. एक कबूतर की मौत अब लोगों की जान ले लेना चाहती है.
इसलिए पंचायत अब गंभीर और गहरा हो चला है. गांव में व्यंग्य के बिंब भी अंदर गैर-बराबरी और अभावों की टीस पैदा करते हैं. सरकारी लाचारी और नेताओं का दंभ अब दांत कुरेदते कुरेदते घाव देने लगा है. सत्ता के गलियारों और शतरंजी बिसातों की आंखों में न आने वाला फुलेरा अब विधायक की आंख की किरकिरी और बड़े रसूखवालों की नज़रों में चढ़ गया है.
चांद और रोटियां
और इस सब के बीच सबसे मजबूत बनकर उभरा है प्रहलाद चचा का चरित्र. प्रहलाद लगातार अकेले होते गए हैं. दुख-दर्द-निरभाव से भरे होकर और अनासक्त होते प्रहलाद भले ही अकेले हो गए हैं लेकिन वो सब पर भारी पड़ने लगे हैं.
तीसरे सीजन में प्रहलाद का चरित्र दरअसल पूरे सीजन पर भारी है. पूरी कास्टिंग एक तरफ और प्रहलाद अकेले दूसरी तरफ. प्रहलाद के दुख से न तो वो निकल सके हैं, न फुलेरा और न ही दर्शक. इसलिए प्रहलाद को देखना एक चट्टान जैसे भारी दुख को देखना भी है. इसीलिए प्रहलाद का शरीर ही नहीं, रोल भी सब पर भारी पड़ता जा रहा है.
प्रहलाद के रोल को फैज़ल ने बखूबी निभाया है. लेकिन पंचायत के लिए आने वाले सीजन में ये गहराई, गंभीरता और प्रहलाद का भारी होना एक चुनौती से कम नहीं होगा. पटकथा साधने वाले को अब बाकी चरित्रों पर अलग से मेहनत करनी होगी ताकि एक बैलेंस बनाया जा सके और पंचायत वापस से खिलखिलाए, हंसे, चुहल करे.
दरअसल, पर्दे पर हास्य की निरंतरता तो संभव है लेकिन गांभीर्य को साधे रहना और उसके वजन को संतुलित रख पाना हमेशा एक चुनौती होता है. पंचायत के अगले सीजन को इस चुनौती से निपटना पड़ेगा.

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