प्राइवेट नौकरियों में आरक्षण पर फैसला लेने के बाद क्यों पलट गई कर्नाटक की कांग्रेस सरकार, कहां फंस गई बात?

कर्नाटक सरकार ने 48 घंटे के अंदर प्राइवेट नौकरी में आरक्षण के बिल पर यू-टर्न ले लिया है. कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने प्राइवेट सेक्टर की C और D कैटेगरी की नौकरियों में स्थानीय लोगों को 100 फीसदी आरक्षण देने के फैसले पर फिलहाल रोक लगा दी है. दरअसल राज्य सरकार ने सोमवार को हुई कैबिनेट मीटिंग में स्थानीय लोगों को प्राइवेट नौकरियों में 100 फीसदी आरक्षण वाले बिल को मंजूरी दे दी थी और इसे गुरुवार यानी आज विधानसभा में पेश किया जाना था. लेकिन उद्योगपतियों और बिजनेस लीडर्स के विरोध के चलते सरकार को अपना फैसला रोकना पड़ा.
बुधवार को मुख्यमंत्री कार्यालय से जारी एक बयान में कहा गया है कि इस विधेयक को अस्थायी रूप से रोक दिया गया है. इस पर आने वाले दिनों में फिर से विचार कर फैसला लिया जाएगा. इससे पहले, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने भी X पर पोस्ट कर मामले में सफाई दी. उन्होंने लिखा है कि “निजी क्षेत्र के संस्थानों, उद्योगों और उद्यमों में कन्नड़ लोगों के लिए आरक्षण लागू करने का इरादा रखने वाला विधेयक अभी भी तैयारी के चरण में है. अगली कैबिनेट बैठक में व्यापक चर्चा के बाद फैसला लिया जाएगा.”
प्राइवेट नौकरी में आरक्षण के बिल में क्या था?
इस बिल में निजी कंपनियों में समूह-सी और डी के पदों के लिए स्थानीय निवासियों को 100 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान था. साथ ही किसी भी उद्योग, कारखाने में मैनेजमेंट श्रेणियों में 50 फीसदी और नॉन मैनेजमेंट श्रेणियों में 70 फीसदी स्थानीय उम्मीदवारों की नियुक्ति करने का भी प्रावधान किया गया था.
इस विधेयक के अनुसार अगर उम्मीदवारों के पास कन्नड़ भाषा के साथ माध्यमिक विद्यालय का प्रमाण पत्र नहीं है तो उन्हें नोडल एजेंसी से निर्दिष्ट दक्षता परीक्षा पास करनी होगी. साथ ही विधेयक में यह भी कहा गया है कि अगर स्थानीय योग्य उम्मीदवार मौजूद नहीं है तो सरकारी या सहयोगी एजेंसियों की मदद से तीन साल के भीतर ही संस्थानों को प्रशिक्षण देने का काम करना होगा.
इसके अलावा अगर योग्य स्थानीय उम्मीदवार उपलब्ध नहीं हैं, तो प्रतिष्ठानों को सरकार या उसकी एजेंसियों की मदद लेकर 3 साल के अंदर उन्हें प्रशिक्षित करने के लिए कदम उठाने होंगे. इसके अलावा अगर पास पर्याप्त संख्या में स्थानीय उम्मीदवार उपलब्ध नहीं हैं, तो कंपनियां सरकार से इस अधिनियम के प्रावधानों से छूट के लिए आवेदन कर सकती हैं.
बिल का विरोध बढ़ा तो सरकार ने हाथ खींचे
उद्योग जगत के दिग्गजों ने राज्य सरकार के इस कदम की आलोचना करते हुए इसे फासीवादी और अदूरदर्शी बताया. जाने-माने उद्यमी और इंफोसिस के पूर्व मुख्य वित्त अधिकारी टीवी मोहनदास पई ने इस विधेयक को ‘प्रतिगामी’ करार दिया. उन्होंने सोशल मीडिया प्लैटफॉर्म X पर लिखा कि इस विधेयक को रद्द कर दिया जाना चाहिए. यह भेदभावपूर्ण, प्रतिगामी और संविधान के खिलाफ है. मोहनदास पई ने लिखा है कि यह अविश्वसनीय है कि कांग्रेस सरकार इस तरह का विधेयक लेकर आ सकती है.
फार्मा कंपनी बायोकॉन की मैनेजिंग डायरेक्टर किरण मजूमदार शॉ ने कहा है कि एक तकनीकी केंद्र के रूप में हमें कुशल प्रतिभा की आवश्यकता है और जबकि हमारा उद्देश्य स्थानीय लोगों को रोजगार देना करना है तो ऐसी शर्तें होनी चाहिए जो अत्यधिक कुशल भर्ती को इस नीति से छूट दे.
ASSOCHAM कर्नाटक के को-चेयरमैन आर के मिश्रा ने भी सरकार की आलोचना करते हुए कहा है कि, “कर्नाटक सरकार का एक और प्रतिभाशाली कदम. स्थानीय आरक्षण को अनिवार्य करें और हर कंपनी में निगरानी के लिए सरकारी अधिकारी की नियुक्ति करें. यह भारतीय आईटी और GCC को डरा देगा.
हरियाणा सरकार के फैसले से की गई तुलना
कर्नाटक सरकार के इस फैसले की तुलना नवंबर 2021 में हरियाणा सरकार द्वारा पेश किए गए बिल से की गई. तत्कालीन मनोहर लाल खट्टर की सरकार ने हरियाणा के निवासियों के लिए निजी क्षेत्र की नौकरियों में 75 फीसदी आरक्षण को अनिवार्य करने वाला कानून बनाया था. हालांकि औद्योगिक इकाइयों वे इस बिल को कोर्ट में चुनौती दी और पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने 17 नवंबर 2023 को इसे खारिज कर दिया था.
प्राइवेट नौकरी में स्थानीय लोगों को 100 फीसदी आरक्षण देने वाले बिल का विरोध बढ़ा तो कर्नाटक सरकार के मंत्री बचाव में उतर गए. राज्य के उद्योग मंत्री एम बी पाटिल और IT मंत्री प्रियांक खरगे ने कहा कि सरकार कन्नड़ लोगों के साथ-साथ उद्योगों के हितों की रक्षा के लिए व्यापक विमर्श करेगी. उद्योग मंत्री एमबी पाटिल ने X पर लिखा है कि “हम यह सुनिश्चित करेंगे कि कन्नड़ लोगों के साथ-साथ उद्योगों के हितों की भी रक्षा की जाए.” उन्होंने कहा कि कर्नाटक एक प्रगतिशील राज्य है और सरकार औद्योगिकीकरण की इस दौड़ में हारने का जोखिम नहीं उठा सकती.
कानून बना तो सुप्रीम कोर्ट में नहीं टिक पाएगा?
प्राइवेट नौकरी में आरक्षण को सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक पुराने फैसले में असंवैधानिक बताया था. 1984 में सुप्रीम कोर्ट ने निवास स्थान के आधार पर आरक्षण के एक मामले में सुनवाई करते हुए ये टिप्पणी की थी. वर्ष 2002 में भी ऐसा मामला सामने आया था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान में शिक्षक भर्ती को रद्द कर दिया था. इसके अलावा 2019 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने भी उस अधिसूचना को रद्द कर दिया था जिसमें यूपी की मूल निवासी महिलाओं को नौकरी में प्राथमिकता की बात कही गई थी. कर्नाटक सरकार से पहले आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, हरियाणा और झारखंड में भी प्राइवेट नौकरी में स्थानीय लोगों को 75 फीसदी आरक्षण का कानून बनाया था, लेकिन कानूनी दांव-पेच के चलते किसी भी राज्य में यह कानून लागू नहीं हो पाया.

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