बिरह को शांत करती है वर्षा; इसीलिए 50 डिग्री तापमान भी लगता है सुहाना!
हमारे देश में चारों तरफ़ लोग बस वर्षा ऋतु की प्रतीक्षा करते हैं. हमारे सारे साहित्य, लोक साहित्य में सिर्फ वर्षा की महिमा है. हमारी खुशियां, हमारी समृद्धि सिर्फ वर्षा पर निर्भर हैं. भारतीय साहित्य में वर्षा हर्ष का, काम का और खुशियों का मौसम है. हम लोग पूरे साल त्योहार है. हमारे मौसम वैज्ञानिक भी मार्च के आखिरी सप्ताह से ही मानसून के अच्छे होने की भविष्यवाणी करने लगते हैं. क्योंकि यहां मानसून से ही शेयर बाजार चढ़ता-उतरता है और सरकार की प्रतिष्ठा भी. इसलिए यहां का निवासी 45 क्या 50 का पारा भी झेल लेता है. गर्मी के साथ ही उसे शीघ्र आने वाली खुशियां भी दिखाई पड़ती हैं. जितनी ज्यादा गर्मी उतनी ही अच्छी बारिश. इसके अलावा बढ़ता पारा हमारे यहां खरबूजा, तरबूज और आम की फसल को और मीठा बनाता है.
पिछले हफ्ते बिजनौर से लौटते वक्त गंगा बैराज के निकट तरबूज के ढेर फैलाए एक किसान अपने तरबूज बेच रहा था और वह भी बस दस रुपये किलो. मैंने पांच किलो का एक बड़ा-सा तरबूज लिया और उसे काटकर दिखाने के लिए कहा तो वह बोला साहब जी कोई भी ले जाओ अगर मीठा न निकले तो सौ जूत मारना. उसका यह आत्मविश्वास देखकर मैंने भी बिना कटवाए ही ले लिया और घर आकर जो उसे काटा तो लगा जैसे शहद बह रहा हो. इतना मीठा तरबूज शायद ही कभी खाया हो. खत्म होती मई में तरबूज की यह मिठास तो आश्चर्यचकित कर देने वाली थी. अभी कल मुझे हापुड़ से खरबूजे लाया, तो वे भी वैसे ही मीठे. ज़ुबान पर रखते ही लगा जैसे उसके भीतर किसी ने रूह आफजा को घोल कर भर दिया हो.
तरबूज व खरबूजा इतना मीठा क्यों है?
मैंने गांवों में जा कर किसानों से जानना चाहा कि इस साल तरबूज व खरबूजा इतना मीठा क्यों है? तो उनका जवाब दिलचस्प था. उन्होंने बताया कि इस बार होली के अगले रोज से ही गर्मी ऐसी पड़ी कि अप्रैल के दूसरे सप्ताह में पारा 40 पार कर गया. उनके अनुसार गर्मी जितना ही ज्यादा बढ़ेगी तरबूज व खरबूजा उतना ही मीठा होगा. अर्थात् पारे का चढ़ना शहरी लोगों को अवसाद भले दे पर प्रकृति ने उसकी काट के लिए ये जो फल दे रखे हैं, वे लाजवाब हैं और गर्मी की काट भी. मगर हमारा कृषि विज्ञान विभाग इतना जड़ है कि किसान को यह नहीं बताता कि बारिश की आस जोहता किसान क्यों नहीं खरबूजा व तरबूज को उगाता है. जायद की यह फसल उसे उस अवसाद से उबारेगी जो नगदी फसलों के चक्कर में उसकी जमापूंजी खाक कर देती है.
किसान मौसम का सही अनुमान स्वयं ही लगा लेते
हम हर साल यह अखबारों में पढ़ते ही रहते हैं कि इस साल अमुक स्थान पर इतने किसानों ने खुदकुशी कर ली. पर यह जानना दिलचस्प होगा कि खुदकुशी करने वाले ये किसान वे होते हैं जो नकदी फसलों के चक्कर में सरकारी मायाजाल और बैंकों से कर्ज लेकर लफड़े में फंस जाते हैं. और अक्सर ऐसे किसान खाते-पीते मंझोले किसान होते हैं. अभी पिछले दिनों किसानों ने अपनी यही व्यथा सुनाने के लिए दिल्ली कूच किया था पर बीच में ही वे रोक लिए गए. यही किसान अगर बाजार की जरूरत के मुताबिक शाक-सब्जी पर निर्भर करते तो शायद यह दिन नहीं देखना पड़ता. हालांकि भारत में किसान मौसम विज्ञान विभाग की भविष्यवाणियों के चक्कर में नहीं पड़ते और वे मौसम का सही अनुमान स्वयं ही लगा लेते हैं. यही उनकी उपलब्धि है.
हमारे यहां षडऋतुओं की है परंपरा
हमारे यहां षडऋतुओं की परंपरा है. यूरोप या पश्चिमी एशिया की तरह हमारे यहां मानसून शुष्क व एकरस नहीं होता. हमारे यहां साल में दो बार मानसून आता है. एक गर्मी के बाद और दूसरा जाड़ों के दौरान. पर आज कृषि व मौसम विज्ञानी छह ऋतुओं की इस परंपरा को पचा नहीं पाते. और वे जिन मशीनों की मदद से भविष्यवाणी करते हैं वे शुष्क त्रतुओं को केंद्र में रखकर बनी हैं. नतीजा यह होता है कि मौसम विज्ञानियों को हर साल बार-बार अपनी झूठी भविष्यवाणियों के लिए शर्मसार होना पड़ता है. लेकिन अगर ऋतुएं छह नहीं होतीं तो हम न तो वसंत जान पाते न शरद और न ही हेमंत. हमारे ज्ञान के वैशिष्ट्य का अंग्रेजों ने सरलीकरण कर दिया था और ऋतुएं घटाकर तीन कर दी गईं तथा दिशाएं चार बताई गईं. लेकिन फिर भी हमारे किसान अपने दिमाग में षडऋतुओं और दश दिशाओं का दर्शन पाले रहे जिसके बूते वे अपने मौसम की चाल को करीब साल भर पहले ही भांप जाते हैं.
वर्षा ऋतुओं में है सर्वश्रेष्ठ
हमारे सारे त्योहार अंग्रेजों के मानसून की तरह नहीं हमारे अपने षडऋतु चक्र से नियंत्रित होते हैं. इसीलिए वे अपने निर्धारित समय पर ही आते और जाते हैं. अल नीनो या अल लीना जैसे अवरोध यहां कभी नहीं रहे लेकिन सूखे को हमारे किसानों ने खूब झेला है. इसीलिए उन्होंने अपने अनुभव और आकलन से बादलों की गति को नक्षत्रों के जरिए समझने की कोशिश की और वे सफल रहे. वर्षा के स्वागत में तमाम मंगलगीत और ऋचाएं लिखी गईं हैं. कालिदास ने अपने ऋतु संहार में वर्षा का वर्णन करते हुए लिखा है- वर्षा ऋतुओं में सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि यह प्रेमी-जनों के चित्त को शांत करती है. पूरे भारतीय समाज में वर्षा के स्वागत की परंपरा है, सिर्फ किसान ही नहीं हर व्यक्ति यहां वर्षा के लिए व्याकुल है.
कवियों ने किया है वर्षा का मनोहर चित्रण
अकेले कालिदास ही नहीं बाद में अवधी के कवि मलिक मोहम्मद जायसी और तुलसीदास ने भी वर्षा का मनोहर चित्रण किया है. सूफी कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने तो वर्षा को ज्योतिष शास्त्र से जोड़ते हैं. उन्होंने लिखा है, चढ़ा आषाढ़ गगन घन गरजा, साजा बिरह दुंद दल बाजा. धूम साम धौरे घन आए, सेत ध्वजा बग-पांत दिखाए. अर्थात् आषाढ़ आया और वर्षा के बादल चढ़ आए. आगे वे लिखते हैं, पुष्प नखत सिर ऊपर आवा, हौं बिन नाह मंदिर को छावा. अदरा लागि, लागि भुईं लेई, मोहि बिन पिउ को आदर देई. वे बता रहे हैं, कि वर्षा ऋतु में एक विरहणी कह रही है, कि प्रेमी जब बाहर हो तो कौन घर के कील-कांटे दुरुस्त करेगा? कौन उसे सम्मान देगा? क्योंकि वर्षा ऋतु प्रेम के काम रूपी उफान को शांत करता है. तुलसीदास जैसे मर्यादा का ख्याल रखने वाले कवि भी वर्षा वर्णन में राम के मुंह से कहलवाते हैं, घन-घमंड गरजत घन गोरा, पिया हीन दरपत जी मोरा
किसान बारिश की चाल को पहचानने में कभी नहीं करते भूल
मानसून शब्द अंग्रेजों ने गढ़ा था. हिंद महासागर और अरब सागर से आने वाली हवाएं मानसूनी कहलाती हैं. आम तौर पर मई के अंतिम सप्ताह से ये हवाएं उठने लगती हैं. इस वर्ष भी 30 मई को मानसून केरल आ गया है. यही हवाएं हिमालय की चोटियों से टकरा कर ये फिर वापस लौट आती हैं और मैदानी इलाकों में ये बरस पड़ती हैं. इन्हीं के समानांतर बंगाल की खाड़ी से भी ऐसी हवाएं उठती हैं और बंगाल व छोटा नागपुर के पठारी इलाकों में बरसती हैं. अल नीनो का मतलब है वे हवाएं जो प्रशांत महासागर से उठती हैं और गर्म हो जाने के कारण वे बरसती नहीं. इन हवाओं का हिंदुस्तान की सरजमीं से कोई ताल्लुक नहीं है. बंगाल की खाड़ी से जो हवाएं उठीं, उन्होंने पिछले दिनों बंगाल को तबाह कर दिया.
चूंकि भारत में किसान सदियों से इसी बारिश पर ही निर्भर हैं इसलिए वे इसकी चाल को पहचानने में कभी भूल नहीं करते. उन्हें पता रहता है कि जब जेठ के महीने में मृगशिरा नक्षत्र तपेगा तभी बारिश झूम कर होगी. गर्मी के मौसमी फल यानी तरबूज और खरबूजे भी उसी वक्त पकेंगे जब बैशाख और जेठ में लू चलेगी. लू की गरमाहट आम में मिठास पैदा करती है लेकिन पकेगा वह तब ही जब मानसून की पहली फुहार उस पर पड़ेगी. जायद की पूरी फसल लू पर निर्भर करती है. लेकिन इसे हमारे वैज्ञानिक मानने को तैयार नहीं हैं.