बिल पर जेपीसी, स्कैम पर क्यों नहीं; क्या इस अपशकुन से घबराती हैं सरकारें?
किसी बिल पर आसानी से जेपीसी जांच की मांग मान लेने वाली सरकार आखिर घोटालों की जांच जॉइंट पार्लियामेंट्री कमेटी से क्यों नहीं कराना चाहती है. यह मामला इसलिए उठ रहा है क्योंकि हाल ही में केंद्र सरकार ने वक्फ विधेयक 2024 को तो जेपीसी में भेज दिया, लेकिन 2022 से ही हिंडनबर्ग और अडानी पर हो रही जेपीसी की मांग को नहीं मान रही.
मोदी सरकार के आने के बाद इस तरह के कई और मामले भी देखे गए हैं. मसलन, नागरिकता संशोधन जैसे बिल को सरकार ने तुरंत जेपीसी में भेज दिया, लेकिन जेपीसी से राफेल की जांच कराने से साफ इनकार कर दिया. इसी तरह डाटा प्रोटेक्शन जैसे कई बिल सरकार ने जेपीसी में भेज दिए, लेकिन स्कैम की मांग को भेजने से इनकार कर दिया.
इसकी बड़ी वजह एक अपशकुन को बताया जाता है. कहा जाता है कि जब-जब देश में किसी घोटाले को लेकर जेपीसी की जांच बैठी, तब-तब सरकार को तो क्लीन चिट तो मिल गई, लेकिन वो सरकार ही नहीं रही.
कब-कब गठित हुई जेपीसी?
1. 1987 में बोफोर्स का मामला सामने आया था. बोफोर्स स्वीडन की एक कंपनी थी, जो भारतीय सेना को हथियार सप्लाई करती थी. स्वीडन की एक रेडियो ने आरोप लगाया कि बोफोर्स की डील के बदले कांग्रेस के बड़े नेताओं को रुपए मिले. यह रुपए इतलावी बिचौलिएओ क्वात्रोकि के जरिए मिले. बोफोर्स घोटाला के सेंटर में राजीव गांधी ही थे. संसद से सड़क तक इस मुद्दे पर हंगामा मचा, जिसके बाद राजीव गांधी की सरकरा ने जेपीसी गठन की घोषणा की.
बी शंकरानंद की अध्यक्षता में गठित इस कमेटी ने बोफोर्स घोटाले में राजीव गांधी को क्लीन चिट दे दी. हालांकि, विपक्ष ने इस कमेटी पर सही तरीके से काम नहीं करने का आरोप लगाया. इस घोटाला के सामने आने के 2 साल बाद 1998 में आम चुनाव हुए. इस चुनाव में बहुमत से दूर हो गई. वीपी सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी.
2. 1992 में हर्षद मेहता का शेयर घोटाला सामने आया. इस घोटाला में कई बड़े नेताओं के नाम सामने आए. मामले में किरकिरी देख पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने जेपीसी गठित कर दी. जेपीसी की अध्यक्षता कांग्रेस सांसद राम निवास मिर्धा को दी गई. मिर्धा ने अपनी रिपोर्ट में नरसिम्हा राव की सरकार को क्लीन चिट दे दिया.
हालांकि, हर्षद मेहता और जैन हवाला कांड राव सरकार का पीछा नहीं छोड़ा. 1996 में कांग्रेस बहुमत से काफी दूर हो गई. राव को कुर्सी छोड़नी पड़ी. सियासी गलियाारों में कहा गया कि जेपीसी की जांच सरकार के लिए अपशकुन साबित हुआ.
3. हर्षद मेहता स्कैम की तरह की साल 2001 में केतन पारेख घोटाला सामने आया. इस बार केंद्र में बीजेपी की अटल बिहारी वाजपेई की सरकार थी. अटल पर भी जेपीसी बनाने का दबाव पड़ा और काफी बवाल के बाद उन्होंने जेपीसी बनाने की घोषणा कर दी.
बीजेपी सांसद प्रकाश मणि त्रिपाठी इस कमेटी के अध्यक्ष बनाए गए. त्रिपाठी की कमेटी ने पूरी जांच-पड़ताल के बाद अटल सरकार को क्लीन चिट दे दिया. इस घटना के 2 साल बाद अटल सरकार ने एक और मामले में जेपीसी की जांच बैठाई.
यह जांच पेय-पदार्थ के नियामक बनाने में सरकार की भूमिका को लेकर था. जांच का जिम्मा शरद पवार की अध्यक्षता वाली कमेटी को दिया गया. पवार कमेटी ने केंद्र को तो क्लीन चिट दे दिया, लेकिन पेय-पदार्थ बनाने वाली कंपनियों के लिए गाइडलाइंस बनाने की सिफारिश कर दी.
दोनों जेपीसी गठित होने के एक साल बाद यानी 2004 में आम चुनाव कराए गए. जेपीसी वाला अपशकुन का मामला यहां भी साबित हुआ. अटल की सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद वापसी नहीं कर पाई.
4 2000-10 में फिर से जेपीसी का जिन्न बाहर निकला. इस बार जांच की मांग थी 2जी स्पैक्ट्रम घोटालों को लेकर. आरोप था कि संचार मंत्रालय ने 2जी स्पैक्ट्रम आवंटन में गड़बड़ी की. इसके बदले सरकार को रिश्वत मिली. विपक्ष ने इसे बड़ा मुद्दा बनाया और मनमोहन सरकार की घेराबंदी कर दी.
वजह केस में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृह मंत्री पी चिदंबरम का नाम आना था. किरकिरी देख मनमोहन सिंह की सरकार ने जेपीसी गठन का ऐलान कर दिया. कांग्रेस के पीसी चाको कमेटी के अध्यक्ष बनाए गए. चाको की अध्यक्षता वाली जेपीसी कमेटी ने मनमोहन सिंह और पी चिदंबरम को क्लीन चिट दे दिया.
हालांकि, क्लीन चिट मिलने के बाद जेपीसी की यह कमेटी मनमोहन सरकार के लिए पनौती ही साबित हुआ. 2014 में मनमोहन सिंह की सरकार भी चली गई.