मल्लिकार्जुन खरगे: आंख के सामने जलीं मां और बहन, 27 साल की उम्र में थामा कांग्रेस का हाथ, कैसे बने पार्टी के संकटमोचक?

27 साल की उम्र में एक लड़का एक राजनीतिक पार्टी का दामन थामता है. लगातार चुनाव जीतता जाता है. फिर भी वो सियासी पहचान नहीं मिलती जैसा कि ज्यादातर नेताओं का सपना होता है. 80 साल में वही लड़का उसी पार्टी का अध्यक्ष बन जाता है और डूबती हुई पार्टी को उबारने का काम करता है. वो पार्टी कांग्रेस है और उस शख्स का नाम है- मल्लिकार्जुन खरगे.
सोनिया गांधी के बाद कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर चुनाव हुए थे. एक तरफ शशि थरूर दूसरी तरफ खरगे थे. खरगे को गांधी परिवार का करीबी माना जाता है. लेकिन पिछले कुछ सालों में उनकी पहचान इससे कहीं ज्यादा की बनी है. खरगे की आज अपनी पहचान है. पार्टी में गुटबंदी को खत्म करने की बात हो, कर्नाटक में डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया के बीच सुलह कराने की बात हो या फिर राजस्थान में सचिन पायलट को शांत कराने की बात, हर जगह खरगे ने अपनी काबिलियत दिखाई है.
ऐसी है खरगे की कहानी
संसद में जिस तरह से वो बीजेपी पर हमला करते हैं वो देखने वाला होता है. साउथ से आने वाले खरगे की कामयाबी में कई चीजें हैं लेकिन सबसे बड़ी बात उनकी सादगी है, उनका बेदाग होना है और सियासत करने की उनकी शैली भी. लोकसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस को 99 सीटें मिली हैं, ये इसलिए अहम है क्योंकि इतनी की उम्मीद किसी को नहीं थी. अगर ये उम्मीद टूटी है तो इसमें खरगे का भी उतना ही योगदान है जितना राहुल और प्रियंका गांधी का बताया जा रहा है. लेकिन मल्लिकार्जुन खरगे की कहानी इतनी भर नहीं है. उनकी शख्सियत को वही जान पाएगा जो उनके बचपन, उनके संघर्ष और उनकी सियासत में संवाद की शैली को जान पाएगा.
1946 का साल था. स्थान हैदराबाद का वर्वट्टी. ये अब कर्नाटक में है. हैदराबाद के निज़ाम के कुछ सैनिक वर्वट्टी के एक गांव जाते हैं. घर में आग लगा देते हैं. एक तीन साल का बच्चा ये सब देख रहा होता है.उसके सामने उसकी मां और बहन आग में जल रहे थे.पिता बाहर गए थे काम करने को. ये दर्द आज भी खरगे के अंदर है. कई बार वो इस बात का जिक्र भी कर चुके हैं. दलित परिवार से आने वाले खरगे की जिंदगी देखकर लगती है कि उन्होंने अकेले ही अपने लिए रास्ते बनाए हैं.
ऐसे बने मजबूत नेता
मां की मौत ने खरगे को जितना तोड़ा था उतना ही खरगे मजबूत भी हुए. खरगे के पिता एक मिल में काम करते थे. गुलबर्ग में ही खरगे की शुरुआती पढ़ाई हुई और उसके बाद वहीं के सरकारी कॉलेज में पढने लगे. छात्र राजनीति में हाथ आजमाया,छात्र संघ के महासचिव भी बने. खरगे मजदूरों की बात करते थे,उ नके लिए लड़ते थे. कॉलेज से निकलते-निकलते उनकी पहचान एक मजदूर नेता के तौर पर होने लगी.
साल 1969 में 27 साल की उम्र में खरगे ने कांग्रेस का दामन थामा. देवराज उर्स, खरगे के शुरुआती गुरु थे. खरगे पहली बार 1972 में गुरमितकल सीट से विधायक बने. 1972 के बाद खरगे लगातार 9 बार इसी सीट से विधायक बनते रहे. फिर मंत्री बने. कई मंत्रालय में काम किया. लेकिन हमेशा बेदाग रहे.खरगे के बारे में उनके विरोधी भी कहते हैं कि सियासत में इतने सालों तक रहकर भला कोई कैसे बेदाग रह सकता है. लेकिन खरगे इस मामले में देश के अन्य नेताओं से अलग साबित हुए. 80 साल की उम्र में उनकी ऊर्जा देखने लायक है. वो जितना अंग्रेजी या कन्नड़ में बोलते हैं उतना ही हिन्दी में भी. इसके कारण देश के अन्य राज्यों में लोग उन्हें जानने लगे.
मल्लिकार्जुन खरगे की बात जब होती है तो अक्सर ये कहा जाता है कि वो जनाधार वाले नेता नहीं हैं. लेकिन खरगे ने उन नेताओं को गलत साबित किया है. लोकतंत्र में ये मायने नहीं रखता है कि आप की कितनी चर्चा हो रही है टीवी में और अखबारों में. आपकी प्रासंगिकता इस बात से साबित होती है कि आपने चुनाव कितनी बार जीती है. और इस मामले में जब लिस्ट बनाई जाएगी तो खरगे का नाम उसमें होगा ही.
कौन-कौन से पद संभाला
खरगे की राष्ट्रीय राजनीति में आने की भी एक अलग कहानी है. 1994 में कांग्रेस हार जाती है, जनता दल सेक्युलर की सरकार बनती है. खरगे को कांग्रेस ने विपक्ष का नेता बनाया.कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने थे एचडी देवगौड़ा. 1999 में कांग्रेस की सरकार बनी. सीएम की रेस में खरगे थे. लेकिन सीएम बने एसएम कृष्णा. गृह विभाग, खरगे को मिला. खरगे के शासनकाल में ही कुख्यात वीरप्पन ने कन्नड़ सिनेमा के जाने माने एक्टर और गायक राजकुमार का अपहरण किया था. तब खरगे ने ही इस मामले को संभाला था जिसके लिए उनकी तारीफ भी हुई थी.
2004 में फिर कांग्रेस की सरकार बनी लेकिन मुख्यमंत्री बने खरगे के जूनियर धरम सिंह. साल 2008 में कर्नाटक में कांग्रेस की हार हुई. हालांकि, खरगे अपना चुनाव जीत गए थे. 2009 में कांग्रेस ने खड़गे को उनके घर गुलबर्गा से टिकट दिया. खरगे केंद्र की राजनीति में आए. मनमोहन सरकार में मंत्री बने. 2014 में कांग्रेस को सिर्फ 44 सीट मिलीं थी. मोदी लहर में भी खरगे जीतकर लोकसभा पहुंचे थे. कांग्रेस ने उन्हें संसद के निचले सदन में पार्टी का नेता चुना. 2019 में खड़गे लोकसभा चुनाव हार गए. ये उनके सियासी करियर की पहली हार थी.
खरगे अपने पूरे सियासी करियर में कई बार सीएम बन सकते थे लेकिन उन्होंने एक बार भी नहीं बोला और न ही आलाकमान के खिलाफ गए.शायद आज जहां खरगे हैं इसकी सबसे बड़ी वजह भी यही है. वो गांधी परिवार के खास होते चले गए. बहुत कम लोग जानते हैं कि खरगे की दो बेटियां और तीन बेटे हैं. एक बेटी का नाम प्रियदर्शिनी है, जो इंदिरा गांधी के बचपन का नाम था और दो बेटों में एक का नाम प्रियांक और दूसरे का राहुल है.
एक वक्त था जब कहा जाने लगा था कि कांग्रेस खत्म हो जाएगी. बीजेपी का तो नारा ही था कांग्रेस मुक्त भारत का. लेकिन कांग्रेस के अंदर भी उथल-पुथल मची हुई थी. जी -23 जैसे असंतुष्ट गुट कांग्रेस की परेशानी बन गए थे. लगातार कांग्रेस के नेता दूसरे दलों में शामिल हो रहे थे लेकिन इन सबसे से बेखबर खरगे चुपचाप अपना काम करते रहे. खरगे की यही काबिलियत उन्हें बाकी नेताओं से अलग करती है.

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