रतन टाटा ने चाचा के कहने पर ठुकराया था दिग्गज कंपनी का ऑफर, फिर खड़ा किया कारोबारी साम्राज्य
भले ही रतन टाटा आज हमारे बीच ना हो, लेकिन उनकी याद देश के 140 करोड़ लोगों के दिलों में हमेशा जिंदा रहेंगी. रतन टाटा दुनिया के सबसे प्रभावशाली उद्योगपतियों में से एक थे, फिर भी वह कभी अरबपतियों की किसी सूची में नजर नहीं आए. उनके पास 30 से ज्यादा कंपनियां थीं जो छह महाद्वीपों के 100 से अधिक देशों में फैली थीं, इसके बावजूद वह एक सादगीपूर्ण जीवन जीते थे. सरल व्यक्तितत्व के धनी टाटा एक कॉरपोरेट दिग्गज थे, जिन्होंने अपनी शालीनता और ईमानदारी के बूते एक अलग तरह की छवि बनाई थी.
खास बात तो ये है कि रतन टाटा ने जब 1962 में कॉर्नेल यूनिवर्सिटी, न्यूयॉर्क से वास्तुकला में बीएस की डिग्री हासिल की तो उनके पास दुनिया की दिग्गज कंपनियों में एक आईबीएम में जॉब का ऑफर था. लेकिन उन्होंने अपने चाचा जेआरडी के कहने पर उस ऑफर को ठुकरा दिया. उनके चाचा जेआरडी टाटा चाहते थे कि वो परिवार के कारोबार को देखें समझे और उसके बाद उसे संभाले. फिर क्या था. उन्होंने अपने देश आकर अपने चाचा की बात को माना और ग्रुप में शामिल हो गए.
ऐसे शुरू हुआ टाटा ग्रुप में सफर
अगर आपको ऐसा लग रहा है कि रतन टाटा को ग्रुप ज्वाइन करते ही बड़ी पोस्ट मिल गई होगी, तो ऐसा बिल्कुल भी था. उन्होंने शुरुआत में एक कंपनी में काम किया और टाटा ग्रुप के कई बिजनेस में अनुभव प्राप्त किया, जिसके बाद 1971 में उन्हें (समूह की एक फर्म) नेशनल रेडियो एंड इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी का प्रभारी निदेशक नियुक्त किया गया. उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. उन्होंने ग्रुप की कई कंपनियों में रिफॉर्म किए. नए और प्रतिभाशाली युवाओं को लाकर कारोबार को गति देने का प्रयास किया. देखते ही देखते ग्रुप की कई कंपनियों ने सफलता की नई इबारत लिखनी शुरू की. लेकिन अभी इतिहास रचना बाकी थी. देश के लिए वो साल आ रहा था, जब पूरी देश और दुनिया की तमाम कंपनियों के लिए तमाम दरवाजे खुलने वाले थे.
ग्रुप को ग्लोबल लीडर के रूप में बदला
एक दशक बाद वह टाटा इंडस्ट्रीज के चेयरमैन बने और 1991 में अपने चाचा जेआरडी टाटा से टाटा ग्रुप के चेयरमैन का पदभार संभाला. जेआरडी टाटा पांच दशक से भी अधिक समय से इस पद पर थे. यह वह वर्ष था जब भारत ने अपनी इकोनॉमी को ओपन कर दिया और 1868 में कपड़ा और व्यापारिक छोटी फर्म के रूप में शुरुआत करने वाले टाटा समूह ने शीघ्र ही खुद को एक ग्लोबल लीडर में बदल दिया, जिसका परिचालन नमक से लेकर इस्पात, कार से लेकर सॉफ्टवेयर, बिजली संयंत्र और एयरलाइन तक फैला गया था. ये वो दौर है, जब रतन टाटा की अगुवाई में टाटा ग्रुप ने कई इतिहास रचे. ग्रुप के रेवेन्यू और प्रॉफिट को नई बुलंदियों पर पहुंचा दिया.
ग्लोबल कंपनियों को खरीदने की शुरुआत
रतन टाटा दो दशक से अधिक समय तक समूह की मुख्य होल्डिंग कंपनी टाटा संस के चेयरमैन रहे और इस दौरान समूह ने तेजी से विस्तार करते हुए वर्ष 2000 में लंदन स्थित टेटली टी को 43.13 करोड़ अमेरिकी डॉलर में खरीदा, वर्ष 2004 में दक्षिण कोरिया की देवू मोटर्स के ट्रक-निर्माण परिचालन को 10.2 करोड़ अमेरिकी डॉलर में खरीदा, एंग्लो-डच स्टील निर्माता कोरस समूह को 11 अरब अमेरिकी डॉलर में खरीदा और फोर्ड मोटर कंपनी से मशहूर ब्रिटिश कार ब्रांड जगुआर और लैंड रोवर को 2.3 अरब अमेरिकी डॉलर में खरीदा.
भारत के सबसे सफल व्यवसायियों में से एक होने के साथ-साथ, वह अपनी परोपकारी गतिविधियों के लिए भी जाने जाते थे. परोपकार में उनकी व्यक्तिगत भागीदारी बहुत पहले ही शुरू हो गई थी. वर्ष 1970 के दशक में, उन्होंने आगा खान अस्पताल और मेडिकल कॉलेज परियोजना की शुरुआत की, जिसने भारत के प्रमुख स्वास्थ्य सेवा संस्थानों में से एक की नींव रखी.