‘विकास’ बना विश्वास की नींव, परखी हुई सरकारों पर जनता जता रही भरोसा! अरुणाचल-सिक्किम के नतीजे हैं गवाह

अरुणाचल और सिक्किम विधानसभा चुनाव में मतदाता ने पुरानी सरकारों पर ही भरोसा जताया है. अरुणाचल में मुख्यमंत्री पेमा खांडू के कामकाज से लोग संतुष्ट रहे और 60 सीटों वाली विधानसभा में 46 सीटें भाजपा को मिल गईं. इस तरह भाजपा सरकार ने वहां हैट्रिक लगा ली. सिक्किम में तो सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा (SKM) ने 32 में से 31 सीटें जीत लीं. यहां प्रेम सिंह तमांग लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बनेंगे. पिछले विधानसभा चुनाव में उन्हें 17 सीटें मिली थीं. भाजपा ने उनको सहयोग किया था. इन दोनों ही सीमाई राज्यों में पिछली सरकारों की ही जीत यह साबित करती है कि भारत में मतदाता अब उन्हीं लोगों को सत्ता के शिखर तक पहुंचाने को व्यग्र है, जो विकास को अपना मुद्दा बनाएं और उन्हें इतना बहुमत मिले कि कोई भी काम सदन में सरकारी दल की कम संख्या के कारण न अटके. भले मतदाता के इस मिज़ाज को घोर राष्ट्रवादी बताया जाए. कुछ लोग इसे अनुदारवाद भी बताते हैं.
यह अकेले सिर्फ भारत में ही नहीं हो रहा बल्कि यह पैटर्न अब ग्लोबल है. सभी जगह राष्ट्रवाद एक प्रबल मुद्दा बन गया है. पड़ोसी बांग्ला देश और पाकिस्तान और ईरान और अफगानिस्तान में वही सरकारें रिपीट हो रही हैं, जो अनुदारवादी बताई जाती हैं. जनता को लगता है, अनुदारवादी सरकारों का फ़ोकस राष्ट्रवाद पर रहता है. इसलिए वो विकास के कामों को तवज्जो ज़्यादा देती हैं. थोड़ा दूर जाएं तो पाते हैं, रूस में भी ब्लादीमीर पुतिन ने पांचवीं बार जीत दर्ज की है.
चीन में तो खैर शी जिन पिंग आजीवन राष्ट्रपति बने रहेंगे क्योंकि उन्होंने देश की संसद के ज़रिए यह व्यवस्था करवा ली है. अमेरिका में भले डेमोक्रेटिक दल के जो बाइडेन राष्ट्रपति हों किंतु सीनेट में उनकी पार्टी बस एक सीट से बहुमत में है. यही हाल कनाडा में प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो का है. संसद में उनकी सरकार अल्ट्रा लेफ़्ट न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी के जगमीत सिंह के 24 सदस्यों के बूते चल रही है.
राष्ट्रवाद पर सब जगह जोर
यूं अब दुनिया भर की राजनीति में ऐसा घालमेल हो गया है कि उदारवादी और अनुदारवादी दलों की विचारधारा को स्पष्ट करना बहुत मुश्किल है. यूरोप के लगभग सभी देशों में राष्ट्रवाद का बोलबाला है. चाहे वह ब्रिटेन हो या यूरोपीय यूनियन (EU) के सदस्य देश. शरणार्थियों और बाहरी लोगों को नागरिकता देने के मामले सबने कड़े कानून बना रखे हैं. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक भले भारतीय मूल के हों लेकिन उनकी पार्टी अनुदारवादी (कंजरवेटिव) है और अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन डेमोक्रेटिक दल से हैं. लेकिन भारतीय लोगों को अपने-अपने देशों में आने, उन्हें वीजा देने को लेकर दोनों बहुत कठोर हैं. ऐसा केवल भारत के मामले में ही नहीं बल्कि सभी एशियाई देशों के निवासियों के प्रति उनका रवैया यही है.
सबसे ऊपर विकास का मुद्दा
दुनिया में जो हो रहा है, भारत उससे अछूता नहीं रह सकता. इसीलिए यहां भी मतदाता का रुझान उन दलों के प्रति है, जिनका लक्ष्य विकास हो. जब विधानसभाओं में मतदाता ने विकास को लक्ष्य बनाकर चलने वाले दलों पर भरोसा किया तो लोकसभा चुनाव में भी उसका इशारा सबको समझ आ रहा है.
अभी एक जून को जो एग्ज़िट पोल आए उन्हें एकदम खारिज नहीं किया जा सकता. हो सकता है कुछ अतिरंजना हो मगर जब सारे एग्ज़िट पोल भाजपा को बहुत ज़्यादा बढ़त दिखा रहे हों तो यह मानने में कोई गुरेज़ नहीं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास का नारा अपना काम कर गया. कल नतीजे आ जाएंगे, इसलिए हर राजनीतिक दल बेचैन है पर यह भी विचित्र है कि देश के मतदाताओं के मन में ओपेनियन पोल और एग्ज़िट पोल में अधिक दिलचस्पी नहीं दिखी. इसकी खास वजह यह रही कि उसे अपने चयन पर भरोसा पुख़्ता है.
अल्पमत सरकारों का हश्र सबने देखा
भारतीय मतदाताओं ने अल्पमत की सरकारों का हश्र देखा है. उन सरकारों को हर समर्थक दल के इशारे पर नाचना पड़ता था. 1989 में प्रधानमंत्री वीपी सिंह की सरकार किस तरह से समर्थक दलों के आगे बौनी थी, यह सबने देखा था. इसके बाद चंद्रशेखर की सरकार कांग्रेस की मदद से बनी पर जैसे ही कांग्रेस ने उन्हें कठपुतली बनाने की कोशिश की, उन्होंने इस्तीफ़ा दे देना ही बेहतर समझा.
1991 में प्रधानमंत्री बने पीवी नरसिंह राव की सरकार संसद में बहुमत के आंकड़े से काफी दूर थी, उसे मात्र 232 सीटें मिली थीं. पर तब पंजाब में लोकसभा चुनाव नहीं हुए थे न ही जम्मू-कश्मीर में. उत्तर प्रदेश में भी अमेठी सीट पर बाद में चुनाव हुए. क्योंकि 21 मई को लोकसभा चुनाव के बीच में ही श्रीपेरंबदूर में उनकी हत्या कर दी गई थी. अल्पमत में होने के बावजूद नरसिंह राव ने अपने कौशल से बिना किसी की मदद लिए सरकार पूरे पांच वर्ष चलाई.
कांग्रेस ने संयुक्त मोर्चा के भरोसे को तोड़ा
1996 से कांग्रेस की सीटें लगातार गिरने लगीं. इस चुनाव में उसे 140 सीटें मिली थी, जबकि भाजपा को 161 सीटें मिलीं. तत्कालीन राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने सबसे बड़े दल भाजपा को सरकार बनाने के लिए बुलाया और अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री की शपथ दिलाई. मगर, भाजपा बहुमत जुटाने में नाकाम रही इसलिए 13 दिनों बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने इस्तीफा दे दिया.
कांग्रेस की मदद से संयुक्त मोर्चा की एक जून 1996 को सरकार बनी और प्रधानमंत्री बने एचडी देवगौड़ा. मगर, कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने समर्थन वापस ले लिया और वो सदन में विश्वास प्रस्ताव जीत नहीं पाए. इसलिए 21 अप्रैल 1997 को पद से हट जाना पड़ा. इसी दिन कांग्रेस की मदद से संयुक्त मोर्चा के नए प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल हुए. लेकिन 14 मार्च 1998 को कांग्रेस के अंदर नेतृत्त्व बदला. सीताराम केसरी को हटाकर सोनिया गांधी 14 मार्च 1998 को स्वयं पार्टी अध्यक्ष बन गईं.
स्वदेशी बनाम विदेशी
सोनिया गांधी ने अध्यक्ष बनते ही संयुक्त मोर्चा सरकार से डीएमके के कुछ केंद्रीय मंत्रियों को हटाने की मांग की. वजह थी डीएमके का राजीव गांधी के हत्यारों तमिल लिट्टे से संबंधों का लीक होना. ऐसा न होने पर उन्होंने संयुक्त मोर्चा सरकार से समर्थन वापस ले लिया और पद संभालने के कुल 11 महीने ही हो पाए थे कि 19 मार्च 1998 को इंद्र कुमार गुजराल को कुर्सी से उतरना पड़ा.
1998 के मध्यावधि चुनाव में भाजपा को 182 सीटें मिलीं जबकि कांग्रेस को 141 सीटों पर संतोष करना पड़ा. भाजपा ने शिव सेना, अकाली दल, समता दल, एआईएडीएमके और बीजू जनता दल के सहयोग से सरकार बनाई. पुनः अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने लेकिन एआईएडीएमके के असहयोग के चलते सरकार 13 महीने के भीतर ही गिर गई.
अविश्वास प्रस्ताव में वाजपेयी सरकार एक वोट से अल्पमत में आ गई. 1999 में फिर से लोकसभा चुनाव हुए और इस बार लोकसभा में कांग्रेस को सिर्फ 114 सीटें मिलीं. भाजपा को 182 सीटें हासिल हुईं. अटल बिहारी वाजपेयी ने तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली. इस चुनाव में स्वदेशी वाजपेयी और विदेशी सोनिया का नारा खूब चला.
मनमोहन का कौशल
भाजपा की यह सरकार पूरे पांच साल चली. 2004 में फिर लोकसभा चुनाव हुए और इस बार भाजपा कांग्रेस से मात्र 7 सीटों से पिछड़ गई. सोनिया गांधी के प्रयासों से संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) बना था. वामदलों और गठबंधन ने मिल कर सरकार बनाई. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने. यह सरकार पांच साल चली, वाम दलों ने 2008 में गठबंधन से नाता तोड़ लिया क्योंकि प्रधानमंत्री ने अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर डील की थी.
संसद में प्रधानमंत्री ने वामदलों के इस प्रस्ताव पर बहुमत पा लिया. पहली बार मनमोहन सिंह ने अपने राजनीतिक कौशल को दिखाया, जो उन्होंने अपने गुरू रहे नरसिंह राव से सीखा था. भाजपा भी इस डील के समर्थन में थी. पांच साल बाद जब आम चुनाव हुए तो गठबंधन का चेहरा मनमोहन सिंह थे. इस बार कांग्रेस ने 206 सीटें जीतीं और फिर सरकार बनाई.
भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार
मगर डॉ. मनमोहन सिंह अपने भ्रष्ट मंत्रियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पाए. लगातार उन पर इसे लेकर हमले होते रहे लेकिन उन्होंने मौन साध लिया. भ्रष्टाचार से आजिज़ लोगों ने आंदोलन किया. महाराष्ट्र के गांधीवादी नेता अन्ना हज़ारे ने जंतर मंतर पर धरना प्रदर्शन किया. उधर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी भाजपा के पोस्टर बॉय बने.
उनके गुजरात मॉडल की पूरी देश में तारीफ हो रही थी. नतीजा पहली बार 2014 में भाजपा ने पूर्ण बहुमत प्राप्त किया और 282 सीटें प्राप्त कीं. उसके गठबंधन दलों (NDA) को मिला दिया जाए तो यह आँकड़ा 336 तक पहुंच गया. भाजपा से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने. कांग्रेस सिर्फ़ 44 तक सिमट गई. 2019 में भाजपा ने 303 सीटें जीत लीं और NDA को 353 सीटें मिलीं. इस बार भी कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत फीका रहा. उसे 52 सीटों पर संतोष करना पड़ा.
कमजोर सरकार के खिलाफ मतदाता
सरकारों का कमजोर होना और सरकार के मुखिया की लाचारी भारतीय मतदाता कभी पसंद नहीं करती. अरुणाचल और सिक्किम विधानसभा चुनाव इसके नमूने बन गए हैं. मतदाता अब मिली-जुली सरकारों को भी पसंद नहीं करता. उसे लगता है, एक दल को बहुमत दो. ताकि सरकार का मुखिया कभी लाचार न दिखे. वह जो फैसला ले उस पर दृढ़ता से कायम रहे और उसका मंत्रिमंडल बेदाग़ हो. नॉर्थ ईस्ट के इन राज्यों के मतदाता के ज़रिए देश के मतदाता का मन पढ़ा जा सकता है.

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