सबके अपने-अपने गांधी, महात्मा का विचार ही आदर्श मानवता का विचार
गांधी भारत का मूल स्वभाव हैं. शस्त्र त्यागकर शास्त्र की संगति का विचार ही गांधी का विचार है. गांधी जीतना नहीं जोड़ना सिखाते हैं. राजनीति में जननीति की घोषणा हैं. गांधी की अवज्ञा भी पूर्ण सविनय के साथ है. कोई गांधी में बुद्ध की परछाई देखता है, कोई राम की सीख. किसी को गांधी महावीर से दिखते हैं कोई गांधी नाम को विवेकानंद सा भजता है. दुनियाभर में ये मानने वालों की कोई कमी नहीं कि गांधी का विचार ही आदर्श मानवता का विचार है.
सर्वधर्म, सर्वपंथ, समरसता, सहिष्णुता, त्याग की मूरत हैं गांधी. अतिरेक भक्ति गांधी को महात्मा से दिव्यात्मा या कुछ के लिए परमात्मा भी बना चुकी है. मैं भी गांधी का मुरीद हूं. उस विचार का हूं कि अगर आप गांधी से सहमत नहीं, तो आप बौद्धिक रूप से परिपक्व नहीं. मेरी आपत्ति गांधी भक्तों से है, जो गांधी में देवत्व तलाश चुके हैं. मोहनदास खुद इस विचार के नहीं थे. जिंदगीभर हर हाईनेस और हिज हाईनेस के वर्चस्व को चुनौती देते रहे.
गांधी एक गैरजिम्मेदार बेटे
अगर हम गांधी को देवता मानेंगे, तो उनके आराधक बनेंगे, साधक नहीं. सच कड़वा है मगर यही है कि गांधी एक गैरजिम्मेदार बेटे हैं. लापरवाह पिता हैं. एक शक्की-मिजाज आत्मकेंद्रित पति हैं. एक डरपोक वक्ता हैं और एक औसत दर्जे के अधिवक्ता भी. गांधी ऐसे ही थे. लेकिन गांधी जैसे पैदा हुए थे वैसे मरते नहीं हैं. मामूली से मोहनदास का महात्मा बन जाने का सफर ही गांधी का दर्शन है. गांधी जीवन की इसी गति का नाम हैं.
सन् 1915 के बाद का दौर. इधर गांधी का उदय हो रहा था. उधर अंग्रेजों का सूरज अस्त नहीं हो रहा था. जार्ज पंचम से लेकर चर्चिल तक अहंकार के चरम पर थे. जर्मनी में एडोल्फ हिटलर तो इटली में बेनिटो मुसोलिनी क्रूरता के कीर्तिमान बना रहे थे. आज कौन कैसी स्मृतियों में है, यही सफलता का पैमाना है. विनाश के दर पर खड़ी दुनिया को गांधी मानवता पर लौटने की राह दिखाते हैं. आज दुनियाभर में कोई ब्रितानिया हुकूमत का नामलेवा नहीं है और गांधी की प्रतिमा लंदन के पार्लियामेंट स्क्वायर के सामने शान से खड़ी है. वैसे गांधी की मूरत दुनिया के 85 देशों में लगी हैं. उन देशों में भी जहां गांधी कभी गए भी नहीं. दक्षिण अमेरिका के सूरीनाम जैसे देश भी, जिनका गांधी के सरोकार से कोई सरोकार नहीं रहा.
जब नंगे बदन यूरोप गए थे गांधी
जिस दौर में दुनिया युद्ध की विभीषिका में थी. गांधी मनुजता की राह दिखा रहे थे. 1930 के आसपास वो नंगे बदन, निहत्था आदमी दुनियाभर के तानाशाहों से लोकप्रियता में आगे निकल चुका था. चार्ली चैप्लिन हों, अलबर्ट आइंस्टीन हों या फ्रांसीसी विचारक रोमेन रोलैंड. दुनियाभर के तीस मार खां गांधी से प्रभावित थे. इस प्रभाव की वजह थी गांधी का अभय. 1931 की बात है. गांधी गोलमेज सम्मेलन के लिए लंदन गए. बैठक में धोती पहने गांधी की तस्वीर अगली सुबह अखबारों में छपी. मजाक उड़ाया गया. गांधी कोई धाकड़ वक्ता नहीं थे.
गांधी कम बोलते थे लेकिन काम का बोलते थे. गांधी ने जवाब बैठक में नहीं दिया. जवाब दिया अंग्रेजी राजमहल में. जॉर्ज पंचम गांधी से मिलना चाहते थे. मिलना क्या, गांधी को समझना चाहते थे. चर्चिल गांधी को सख्त नापसंद करते थे. राजा साहब को बहुत मना किया गया. राजा नहीं माने. गांधी को न्योता दिया गया. बहुत सोच विचार करने के बाद गांधी राजमहल पहुंचे. उसी धोती में जिसे अंग्रेज लॉइनक्लॉथ यानी लंगोट कहा करते थे.
धोती में ही राजा जॉर्ज पंचम से मिलने पहुंचे
एक तरफ जॉर्ज पंचम पूरे राजसी वैभव के साथ महल में थे तो दूसरी तरफ अधनंगे गांधी पत्रकारों से बात कर रहे थे. पत्रकार ने सवाल पूछा- मिस्टर गांधी, क्या आपको नहीं लगता कि किंग से मिलने के लिए आप उपयुक्त कपड़ों में नहीं आए हैं? गांधी मुस्कराए और बोले- आप मेरे कपड़ों की चिंता न करें, आपके राजा ने इतने कपड़े लाद रखे हैं जिससे हम दोनों का काम चल सकता है, “गांधी के कपड़ों का मजाक एक अखबार में छपा था और गांधी का जवाब दुनियाभर के अखबारों में. आज की राजनीति की भाषा से देखें तो इसे गांधी का मास्टर स्ट्रोक कहा जा सकता है.”
गांधी का पहनावा उनके व्यक्तित्व की गवाही देता रहा है. राजकोट का मोहन परिवार के आश्रय में है. काठियावाड़ी पहनावा है. वैसा ही बचपन है. झूठ बोलता है, चोरी करता है, 13 साल की उम्र में शादी हो जाती है, प्रेम वासना में जकड़ा हुआ है. थोड़ा बड़ा होता है तो इंग्लैंड पढ़ने के लिए जाता है. सूट सिलवाता है, घड़ी खरीदता है, अंग्रेजी वेशभूषा अपनाता है, डरपोक है, स्वार्थी है. एक व्यापारी की मुकदमा लड़ने दक्षिण अफ्रीका जाता है तो यहां भी काला कोट सिलवाता है, पैसा कमाना चाहता है, बड़ा बैरिस्टर होना चाहता है लेकिन फिर उस काले कोट में गांधी को रेल के डिब्बे से फेंक दिया जाता है और फिर शुरू होता है इस अधनंगे गांधी के महात्मा बनने का सफर.
दक्षिण अफ्रीका में गांधी जब सत्याग्रह शुरू करते हैं, जब नटाल इंडियन कांग्रेस की स्थापना करते हैं, तो उनकी वेशभूषा बदलने लगती है. दक्षिण अफ्रीका में अपने आखिरी वक्त में गांधी काठियावाड़ी कुर्ते और धोती में दिखाई देते हैं. भारत लौटने के बाद गांधी तमिलनाडु जाते हैं. स्वदेशी आंदोलन के बीच गरीबी से विचलित होते हैं. और फिर छोटी धोती के साथ कंधे पर चादर को अपना लेते हैं. गांधी के परिधान ही उनकी परिपक्वता की पहचान हैं. गांधी ज्ञान लेकर पैदा नहीं हुए. कोई ईश्वरीय शक्ति भी नहीं थी. सबकुछ यहीं सीखा, गलतियों और हालातों से सीखा. जीवन के उत्तरार्ध से पूर्वार्ध को संवारने की शैली ही गांधी की साधना है.
‘मुझे भगवान मत बनाओ’
गांधी महात्मा है या परमात्मा. ये विमर्श गांधी के दौर में भी था. गांधी भी इस विमर्श से परेशान थे. उनसे भी सवाल पूछे जाते थे और गांधी वही जवाब देते थे, जो आज मैं देने की कोशिश कर रहा हूं- आई हैव नो मैसेज फॉर द वर्ल्ड, बट माय लाइफ इज़ माय मैसेज. हम ऐसे समाज से आते हैं जहां नर से पहले नारायण खोजे जाते हैं. एक बुझदिल, कमजोर समाज में सिर से उठाकर चलने वाला हमें खुद से अलग लगता है. जो अलग लगता है वो ईश्वरीय लगता है. गांधी से पहले भी हम ये करिश्मे तक देख चुके थे. इसलिए गांधी बार-बार कहते रहे, लिखते रहे, समझाते रहे कि आपकी तरह मेरे अंदर भी ईश्वर का अंश जरूर है लेकिन मैं ईश्वर नहीं हूं. मुझे वो मत दीजिए जो मेरे पास है ही नहीं’.
गांधी को देवात्मा बनाने का एक मजेदार किस्सा भी है. गांधी तमाम सत्याग्रहियों के साथ कहीं जा रहे थे. गर्मी बहुत थी तो थककर एक पेड़ के किनारे बैठ गए. पास में ही एक कुआं था. लोगों ने देखा तो कुआं सूखा था. कुछ लोग पास के गांव से पानी लेकर आए और विश्राम के बाद काफिला आगे बढ़ गया. किस्मत से अगले ही दिन कोई स्त्रोत फूटा और कुएं में पानी आ गया. पूरे गांव में अफवाह फैल गई कि पानी गांधी जी के चमत्कार से आया है. दर्जनों लोग ढोल – नगाड़े , थाली-लोटा बजाते हुए गांधी से मिलने पहुंचे. गांधी समझाते रहे कि ये चमत्कार नहीं है लेकिन लोग मानने को तैयार नहीं थे. ये हाल सिर्फ हिन्दुस्तान का नहीं था. दुनियाभर में गांधी के बारे में ये भ्रांतियां फैल चुकी थीं. लोगों को लगता था कि गांधी उनके बीमार बच्चे को छू लेंगे तो बीमारी ठीक हो जाएगी. गांधी अपने जीते जी वो बन चुके थे जो बनना नहीं चाहते थे.
दुनिया के सबसे लोकप्रिय भारतीय
गांधी के आदर्श चरित्र का उद्भव दक्षिण अफ्रीका से शुरू हुआ. भारत में 1930 के दशक तक तो गांधी पूरी दुनिया के केंद्र में थे. रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी के रिलीज होने से करीब 50 साल पहले गांधी, दुनिया की नजर में महात्मा गांधी बन चुके थे. 1937 में तो उन्हें नोबल पुरस्कार देने की बहस भी हुई थी. ये चर्चा 1938, 1939, 1947 और 1948 में भी हुई. 1937 में तो नॉर्वे के एक सांसद ओले कल्बजॉनसन ने मांग की थी कि गांधी को नोबल दिया जाना चाहिए. जिसके बाद पुरस्कार के 13 संभावित नामों में एक नाम महात्मा गांधी का भी था. गांधी विचार से जन्मे हैं. विचार के रचयिता हैं और विचार के प्रचारक भी. गांधी के विचार ही मार्टिन लूथर किंग की प्रेरणा बने. मार्टिन कहते थे भगवान ने हमें लक्ष्य दिया है और गांधी ने नीतियां. गांधी की नीतियां ही नेल्सन मंडेला की नीयत बनती हैं.
मंडेला भी मानते थे कि संघर्ष की राह में गांधी के विचार ही नैतिक हैं और न्यायपूर्ण भी. 1997 में स्टीव जॉब्स गांधी की प्रतिमा के सामने ही एप्पल में अपनी दूसरी पारी की घोषणा करते हैं. बराक ओबामा भी गांधी के मुरीद हैं. काल्पनिक दुनिया में गांधी से मिलने की इच्छा जताते हैं.
कुल मिलाकर गांधी को पूज्यनीय मत बनाइए, अनुकरणीय ही रहने दें. दुनिया का कोई संघर्ष गांधी से दूर रहकर मुकम्मल नहीं हो सका. अधिकारों की लड़ाई गांधी का हाथ पकड़कर ही हो सकती है. अंग्रेजों का सूरज नहीं डूबता था, गांधी के विचार में अधंकार की गुंजाइश नहीं दिखती. गांधी का दर्शन ईश्वरीय नहीं मानवीय है. गांधी के राम का नाम ईश्वर भी है अल्लाह भी. गांधी जीवन का व्याकरण हैं, व्यवहार हैं, विचार हैं और विरासत भी. गांधी में तिलक भी निहित हैं, गोखले भी, गांधी में थोड़े से भगत भी है आजाद भी, गांधी में जिन्ना भी है जवाहर भी, गांधी सावरकर जैसे भी हैं सुभाष जैसे भी. बस गांधी में गोडसे की संभावना नहीं है.