सीताराम येचुरी: कहानी CPM के पोस्टर बॉय की, जिसने इंदिरा से कहा था- इस्तीफा दे दो, ऐसे आए थे राजनीति में
भारत में वामपंथ की सियासत को करीब 45 साल तक प्रभावित करने वाले सीताराम येचुरी नहीं रहे. येचुरी कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी) के प्रमुख थे. तेलंगाना आंदोलन के जरिए 17 साल की उम्र में राजनीति में आने वाले येचुरी को आपातकाल के दौरान पहचान मिली. कहा जाता है कि इमरजेंसी में येचुरी की मोर्चेबंदी से मजबूर होकर इंदिरा गांधी ने जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति पद से इस्तीफा दे दिया था.
1990 के दशक में येचुरी सीपीएम के पोस्टर बॉय थे. मीडिया में पार्टी का पक्ष रखना हो या नेशनल टीवी में डिबेट करना हो, सीपीएम की तरफ से हर जगह येचुरी ही नजर आते थे.
राजनीति में कैसे आए थे सीताराम येचुरी?
1952 में आंध्र के काकानीडा के मूल निवासी सीताराम येचुरी का जन्म चेन्नई में हुआ था. येचुरी की शुरुआती पढ़ाई-लिखाई हैदराबाद में हुई. छात्र जीवन के दौरान ही सीताराम येचुरी तेलंगाना आंदोलन से जुड़ गए. 1969 तक वे इसको लेकर होने वाले प्रदर्शन में भी भाग लेते रहे, लेकिन 1970 में दिल्ली आ जाने के बाद वे सक्रिय तौर पर इस आंदोलन से अलग हो गए. तेलंगाना का आंदोलन आंध्र से तेलंगाना को अलग करने के लिए था.
2013 में यह आंदोलन सफल हुआ और यूपीए की सरकार के वक्त आंध्र का विभाजन हुआ है.
येचुरी ने ग्रेजुएशन की पढ़ाई दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंट स्टीफंस कॉलेज से की. इसके बाद वे आगे की पढ़ाई करने के लिए जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी आ गए. येचुरी यहां छात्रसंघ के अध्यक्ष भी रहे. येचुरी साल 1977-78 तक JNUSU के प्रेसिडेंट पद पर रहे.
इंदिरा को इस्तीफा देने को मजबूर कर दिया
25 जून 1975 में इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू करने की घोषणा कर दी. येचुरी उस वक्त जेएनयू में पढ़ाई कर रहे थे. उन्होंने आपातकाल का विरोध करने के लिए एक संयुक्त स्टूडेंट्स फेडरेशन का गठन किया. इस संगठन के बैनर तले येचुरी ने इंदिरा के घर तक आपातकाल के विरोध में मोर्चा भी निकाला.
इंदिरा ने जब विरोध का कारण पूछा तो येचुरी ज्ञापन पढ़ने लगे. उन्होंने अपने ज्ञापन में लिखा था कि एक तानाशाह को यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति के पद पर नहीं रहना चाहिए. आपातकाल के दौरान इंदिरा जेएनयू में एक कार्यक्रम करना चाहती थी, लेकिन छात्रों के विरोध की वजह से उनका कार्यक्रम नहीं हो पाया.
आखिर में इंदिरा गांधी ने जेएनयू के कुलाधिपति (चांसलर) पद से इस्तीफा दे दिया. इस इस्तीफे के कुछ दिन बात सीताराम येचुरी को उनके घर से गिरफ्तार कर लिया गया था. इमरजेंसी के दौरान येचुरी को उसी जेल में रखा गया, जिसमें अरुण जेटली थे.
केरल-बंगाल के बाहर का पहला अध्यक्ष
1978 में सीताराम येचुरी मार्क्सवादी कम्युनिष्ट पार्टी की छात्र इकाई स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया के संयुक्त सचिव बनाए गए. 1984 में येचुरी को इस संगठन का प्रमुख बनाया गया. येचुरी एसएफआई के पहले प्रमुख थे, जो बंगाल और केरल से नहीं थे.
एसएफआई में रहने के दौरान येचुरी ने बंगाल और केरल के बाहर संगठन का विस्तार किया. येचुरी इसके बाद साल 1992 में सीपीएम के पोलित ब्यूरो में चले आए. पोलित ब्यूरो के सदस्य बनने के बाद उन्होंने केंद्र की राजनीति करनी शुरू कर दी.
UPA के गठन में भूमिका, CPM के विरोध में उतरे
2004 में एनडीए के खिलाफ संयुक्त रूप से विपक्षी मोर्चा बनाने में सीताराम येचुरी ने पर्दे के पीछे बड़ी भूमिका निभाई. उन्होंने तत्कालीन सीपीएम महासचिव सुरजीत सिंह के साथ सभी दलों को जोड़ने का काम किया. 2004 में संयुक्त यूपीए ने केंद्र की एनडीए को हटाने में सफल रही.
2004 में मनमोहन सिंह की सरकार बनने के बाद यूपीए के कॉमन मिनिमम प्रोग्राम तैयार करने में भी येचुरी ने अहम रोल अदा किए. 2008 में जब सीपीएम ने कांग्रेस से समर्थन वापस लेने का फैसला किया तो येचुरी इसके विरोध में उतर गए.
उन्होंने पार्टी के लिए इसे खतरनाक बताया. हालांकि, पोलित ब्यूरो के फैसले की वजह से येचुरी इसका खुलकर विरोध नहीं कर पाए.
महासचिव रहते CPM में जान नहीं फूंक पाए
2005 में राज्यसभा के जरिए ऊपरी सदन में पहुंचने वाले सीताराम येचुरी 2015 में सीपीएम के महासचिव बने. उस वक्त सीपीएम की त्रिपुरा में सरकार थी और केरल-बंगाल में दूसरे नंबर की पार्टी थी. 2016 में केरल की सत्ता में तो सीपीएम आ गई, लेकिन बंगाल और त्रिपुरा में साफ हो गई.
सीपीएम में जान फूंकने के लिए येचुरी ने कई प्रयोग किए. इनमें कांग्रेस के साथ गठबंधन, धर्म और जाति की राजनीति को सिरे से नहीं नकारना शामिल हैं. हालांकि, येचुरी का कोई भी प्रयोग काम नहीं आया और सीपीएम केरल छोड़ कहीं सफल नहीं हो पाई.
हालिया लोकसभा चुनाव में सीपीएम को देश की 4 सीटों पर जीत मिली, जबकि पूरे देश में उसे सिर्फ 1.76 प्रतिशत ही वोट मिल पाए.
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