सुप्रीम कोर्ट ने कथित पीएफआई सदस्य को दी जमानत, कहा- विशेष कानूनों में भी हैं जमानत के नियम

सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि अगर कानून में शर्तें पूरी होती हैं तो गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के मामले में भी जमानत दी जा सकती है. इसेक साथ ही अधिनियम, 1967 (यूएपीए) के तहत आरोपी को जमानत देते हुए कहा कि पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) एक ‘आतंकवादी संगठन’ नहीं है.
जस्टिस अभय एस ओका और जज ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि ऐसे मामलों में अदालतों को जमानत देने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए, भले ही अभियोजन पक्ष के आरोप बहुत गंभीर क्यों न हों. इसेक साथ ही पीठ ने कहा, जमानत नियम है और जेल अपवाद. इसका सिद्धांत यूएपीए जैसे विशेष कानूनों के तहत अपराधों के संबंध में भी लागू होता है. ये एक स्थापित कानून है.
पीएफआई एक आतंकवादी संगठन नहीं- कोर्ट
पीठ ने टिप्पणी में कहा कि आरोप पत्र में ये भी आरोप नहीं है कि अपीलकर्ता किसी आतंकवादी गिरोह का सदस्य था. जहां तक ​​किसी आतंकवादी संगठन के सदस्य होने की है तो वो दूसरे भाग का संबंध है. धारा 2(एम) के अनुसार, एक आतंकवादी संगठन का अर्थ है पहली अनुसूची में सूचीबद्ध संगठन या उसी नाम के तहत काम करने वाला संगठन जैसा कि संगठन सूचीबद्ध था. आरोपपत्र में धारा 2(एम) के अर्थ के अंतर्गत उस आतंकवादी संगठन के नाम का उल्लेख नहीं है, जिसका अपीलकर्ता सदस्य था. हमने पाया कि पीएफआई एक आतंकवादी संगठन नहीं है, जैसा कि पहली अनुसूची से साफतौर पर स्पष्ट है.
चार्जशीट में पीएफआई पर ज्यादा फोकस था- कोर्ट
जस्टिस अभय ओका और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने पाया कि आरोपपत्र में दिया गया बयान मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज किए गए वास्तविक बयान से अलग है. कोर्ट ने पाया कि गवाह ने कथित पीएफआई बैठक में भागीदार के रूप में अपीलकर्ता का नाम नहीं बताया था और गवाह के बयान में दर्ज आरोप पत्र में आरोपित हमलों के लिए कोई निर्देश शामिल नहीं थे. कोर्ट ने आगे कहा, “हमें यहां ये उल्लेख करना चाहिए कि विशेष अदालत और हाईकोर्ट ने चार्जशीट में दी गई जानकारी पर निष्पक्ष रूप से काम नहीं किया. शायद फोकस पीएफआई की गतिविधियों पर अधिक था, इसलिए अपीलकर्ता के मामले को ठीक से नहीं समझा गया.

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