कहानी जिन्ना की बहन फातिमा की जिन्हें पाकिस्तान में मिला ‘मादर-ए मिल्लत’ का दर्जा

पाकिस्तान के जनक और भारत के बंटवारे के जिम्मेदार मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फातिमा जिन्ना को पाकिस्तान में वो तवज्जो नहीं मिली जिसकी वो हकदार थीं. फातिमा भारत के इतिहास की पहली महिला थीं जिन्होंने डेंटिस्ट की पढ़ाई की और अपना क्लीनिक खोला. उनका जन्म 30 जुलाई 1893 में कराची में हुआ था. फातिमा, जिन्ना से 17 साल छोटी थीं और सबसे लाडली मानी जाती थीं. उन्होंने राजनीतिक सलाहकार के तौर पर हमेशा अपने भाई का साथ दिया. 1947 में विभाजन के बाद फातिमा भी अपने भाई जिन्ना के साथ पाकिस्तान चली गईं.
जिन्ना की मौत के बाद नहीं मिली तरजीह
जिन्ना ने जब मुसलमानों के लिए अलग राष्ट्र की मांग उठाई तो बहन फातिमा ने उनका पूरा साथ दिया. 40 के दशक में फातिमा जिन्ना का राजनीतिक कद बढ़ने लगा, बताया जाता है कि जब वह चुनावी रैलियों को संबोधित करने जाती थीं तो उन्हें देखने के लिए लाखों की संख्या में भीड़ पहुंचती थी. लेकिन बंटवारे के बाद सरहद के उस पार उनका जीवन निराशा और अलगाव में बीता. मोहम्मद अली जिन्ना के निधन के बाद उन्हें आगे बढ़ने से रोकने के लिए पाकिस्तान के सियासतदानों ने खूब साजिशें रचीं.
9 जुलाई 1967 को 71 साल की उम्र में फातिमा ने दुनिया को अलविदा कह दिया. पाकिस्तानी हुक्मरानों ने दिल का दौरा पड़ने से उनके निधन की घोषणा की थी लेकिन आज भी कुछ लोगों का मानना है कि उनकी हत्या की गई थी.
भाई की मदद के लिए बंद किया क्लीनिक
फातिमा जिन्ना ने बांद्रा से अपनी पढ़ाई की और कलकत्ता के कॉलेज से डेंटल साइंस में डिग्री ली. 1929 में जिन्ना की पत्नी की मौत के बाद वो बॉम्बे आ गईं और अपना डेंटल क्लीनिक खोला. हालांकि जल्द ही उन्होंने अपना यह क्लीनिक बंद कर दिया और राजनीति में अपने भाई की मदद करने लगीं. उन्होंने अपने भाई और पाकिस्तान के कायद-ए-आज़म जिन्ना पर एक किताब (माई ब्रदर) भी लिखी थी, हालांकि यह किताब उन्होंने 1955 में लिखी लेकिन इसका प्रकाशन 32 साल बाद 1987 में हुआ.
फातिमा ने अपनी किताब में मुस्लिम लीग के कुछ नेताओं खासकर जिन्ना के करीबियों पर विश्वासघात करने का आरोप लगाया है. जिन्ना के हवाले से उन्होंने लिखा था कि कई पूर्व सहयोगी मोहम्मद अली जिन्ना से मिलने आ रहे थे, ताकि यह पता लगा सकें कि उनमें कितना जीवन बचा है, यानी वे शायद उनके चुपचाप मरने का इंतजार कर रहे थे.
तानाशाही के खिलाफ उठाई आवाज़
भाई की मौत के बाद फातिमा जिन्ना राजनीतिक अस्तित्व को बचाए रखने की लड़ाई लड़ती रहीं. उस वक्त के हुक्मरानों ने फातिमा जिन्ना पर न केवल स्पीच शेयर करने का दबाव डाला बल्कि सार्वजनिक मंच पर बोलने से रोकने की कोशिश भी करते रहे. निराश होकर उन्होंने एक तरह से अघोषित राजनीतिक संन्यास ले लिया. लेकिन वर्ष 1965 में वह फील्ड मार्शल अयूब खान की तानाशाही को चुनौती देने के लिए उठ खड़ीं हो गईं. अयूब खान ने 1958 में पाकिस्तान का पहला मार्शल लॉ लगाया, शुरुआती वर्षों में उन्हें काफी लोकप्रियता मिली लेकिन 1965 तक उनकी लोकप्रियता कम होने लगी.
अयूब खान को चुनौती देने के लिए पाकिस्तान में संयुक्त विपक्षी दलों का गठबंधन बना. इस गठबंधन ने 1965 के राष्ट्रपति चुनाव में फातिमा जिन्ना को अपना उम्मीदवार बनाया. हालांकि फातिमा जिन्ना बेहद कम अंतर से यह चुनाव हार गईं लेकिन इसके बाद उन्होंने एक बार फिर संन्यास लेने का फैसला किया.
पाकिस्तान में मिला ‘मादर-ए-मिल्लत’ का खिताब
फातिमा जिन्ना को जोशीली राजनीतिक कार्यकर्ता, परंपराओं को तोड़ने वाली और महिलाओं हक की आवाज़ उठाने के लिए जाना जाता है. उन्हें पाकिस्तान में ‘मादर-ए-मिल्लत’ (कौम की मां) का खिताब दिया गया है. उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनकी मौत के बाद जनाज़े में हज़ारों लोग शामिल हुए. इस दौरान कई लोगों ने आखिरी बार उनका चेहरा देखने की गुजारिश की तो पुलिस ने उन्हें पीछे धकेल दिया. इसके बाद जमकर बवाल हुआ. पुलिस की लाठीचार्ज का जवाब लोगों ने पथराव कर दिया, जिसके बाद भगदड़ मच गई. इस घटना के बाद लोगों के मन में उनकी मौत को लेकर शक गहराता चला गया लेकिन आज तक हकीकत सामने नहीं आ पाई.

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