गोपालदास नीरज की वो कविता जिसे पुतिन-नेतन्याहू सुन लें तो दिमाग से निकाल देंगे युद्ध का ख्याल

गोपालदास नीरज की वो कविता जिसे पुतिन-नेतन्याहू सुन लें तो दिमाग से निकाल देंगे युद्ध का ख्याल

गोपालदास नीरज का नाम हिंदी साहित्य में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है. उन्होंने अपने करियर में कई सारी फिल्मों को गीत दिए इसके अलावा ऐसे भी उनकी कई सारी कविताएं लोगों के बीच पॉपुलर हैं. लेकिन उनकी एक कविता ऐसी है जो आज के दौर में काफी सार्थक साबित हो रही है. आज दुनियाभर में कई देशों के बीच मनमुटाव की स्थिति बनी हुई है. इसके तनाव को देखते हुए लोग थर्ल्ड वर्ल्ड वॉर की संभावनाओं को लेकर भी तरह-तरह की बातें कर रहे हैं. लेकिन आज से कई साल पहले गोपालदास नीरज ने एक कविता लिखी थी जो तीसरे विश्व युद्ध के कभी ना होने की संभावनाओं पर थी.

ये कविता बहुत शानदार है. इसे गोपालदास नीरज ने दो भागों में लिखा है. पहले भाग में वे बता रहे हैं कि अगर तीसरा विश्व युद्ध हुआ तो वो भयानक मंजर कैसा होगा. वहीं दूसरे भाग में उन्होंने युद्ध के कभी ना हो पाने की संभावनाओं पर बात की है. ये काफी बड़ी कविता है और खुद गोपालदास नीरज को भी इस कविता से काफी प्रेम था. वे कुछ मौकों पर इसे सुना भी चुके हैं. आज महान कवि गोपालदास नीरज जी की 99वीं जयंती पर आइये पढ़ते हैं ये कविता.

अगर तीसरा युद्ध हुआ…
मैं सोच रहा हूं अगर तीसरा युद्ध हुआ, इस नई सुबह की नई फसल का क्या होगा,
मैं सोच रहा हूं अगर जमीन पर उगा खून, इस रंग महल की चहल पहल का क्या होगा

ये हंसते हुए गुलाब महकते हुए चमन, जादू बिखराती हुई रूप की ये कलियां,

ये मस्त झूमती हुई बालियां धानों की, ये शोख सजल शरमाती गेहूं की गलियां

गजराते हुए अनारों की ये मंन्द हंसी, ये पैंगें बढ़ा-बढ़ा अमियों का इठलाना,

ये नदियों का लहरों के बाल खोल चलना, ये पानी के सितार पर झरनों का गाना

नैनाओं की नटखटी ढिठाई, तोतों के ये शोर, मोर के भोर भृंग की ये गुनगुन,

बिजली की खड़कधड़क बदली की चटकमटक, ये जोत जुगनुओं की झिंगुर की ये झुनझुन

किलकारी भरते हुये दूध से ये बच्चे, निर्भीक उछलती हुई जवानों की टोली,

रति को शरमाती हुई चाँद सी ये शक्लें, संगीत चुराती हुई पायलों की बोली

आल्हा की ये ललकार थाप ये ढोलक की, सूरा मीरा की सीख कबीरा की बानी,

पनघट पर चपल गगरियों की ये छेड़छाड़, राधा की कान्हा से गुपचुप आनाकानी

क्या इन सब पर खामोशी मौत बिछा देगी, क्या धुंध धुआं बनकर सब जग रह जायेगा,

क्या कूंकेगी कोयलिया कभी न बगिया में, क्या पपीहा फिर न पिया को पास बुलायेगा

जो अभी-अभी सिंदूर लिये घर आई है, जिसके हाथों की मेंहदी अब तक गीली है,

घूंघट के बाहर आ न सकी है अभी लाज, हल्दी से जिसकी चूनर अब तक पीली है

क्या वो अपनी लाडली बहन साड़ी उतार, जा कर चूड़ियां बेचेगी नित बाजारों में,

जिसकी छाती से फूटा है मातृत्त्व अभी, क्या वो मां दफनायेगी दूध मजारों में

क्या गोली की बौछार मिलेगी सावन को, क्या डालेगा विनाश झूला अमराई में,

क्या उपवन की डाली में फूलेंगे अंगार, क्या घृणा बजेगी भौंरों की शहनाई में

चाणक्य, मार्क्स, एंजिल, लेनिन, गांधी, सुभाष, सदियां जिनकी आवाजों को दोहराती हैं,

तुलसी, बर्जिल, होमर, गोर्की शाह मिल्टन, चट्टानें जिनके गीत अभी तक गाती हैं

मैं सोच रहा क्या उनकी कलम न जागेगी, जब झोपड़ियों में आग लगाई जायेगी,

क्या करवटें न बदलेंगीं उनकी कब्रें, जब उनकी बेटी भूखी पथ पर सो जायेगी

जब घायल सीना लिये एशिया तड़पेगा, तब बाल्मीकि का धैर्य न कैसे डोलेगा,

भूखी कुरान की आयत जब दम तोड़ेगी, तब क्या न खून फिरदौसी का कुछ बोलेगा

ऐसे ही घट चरके ऐसी ही रस ढुरके, ऐसे ही तन डोले ऐसे ही मन डोले,

ऐसी ही चितवन हो ऐसी कि चितचोरी, ऐसे ही भौंरा भ्रमे कली घूंघट खोले

ऐसे ही ढोलक बजें मंजीरे झंकारें, ऐसे कि हंसे झुंझुने बाजें पैजनियां,

ऐसे ही झुमके झूमें, चूमें गाल बाल, ऐसे कि हों सोहरें लोरियां रसबतियां

ऐसे ही बदली छाये कजली अकुलाए, ऐसे ही बिरहा बोल सुनाये सांवरिया,

ऐसे ही होली जले दिवाली मुस्काये, ऐसे ही खिले फले हरियाए हर बगिया

ऐसे ही चूल्हे जलें राख के रहें गरम, ऐसे ही भोग लगाते रहें महावीरा,

ऐसे ही उबले दाल बटोही उफनाए, ऐसे ही चक्की पर गाए घर की मीरा

बढ़ चुका बहुत अब आगे रथ निर्माणों का, बम्बों के दलबल से अवरुद्ध नहीं होगा,

है शान्त शहीदों का पड़ाव हर मंजिल पर, अब युद्ध नहीं होगा अब युद्ध नहीं होगा

गोपालदास नीरज का जन्म 4 जनवरी, 1925 को इटावा में हुआ था. उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया जा चुका है.

 

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