कौन था वो RSS प्रचारक जिसके ‘आइडिया’ ने अयोध्या आंदोलन को घर-घर पहुंचा दिया?
अयोध्या में राम जन्मभूमि मुक्ति का आंदोलन करीब 450 साल से चलने की बात कही जाती रही है. अंग्रेजों के समय 1934 में हुए दंगे और विवादित ढांचे पर हमला हो या 1949 में विवादित परिसर के अंदर मूर्तियों का रखा जाना हो. ये आंदोलन ज्यादातर अयोध्या तक ही सीमित रहा. 1980 के दशक में इस आंदोलन को देशभर में फैलते देखा गया. सवाल उठता है इसे गांव-गांव कैसे पहुंचाया गया. किसका दिमाग काम कर रहा था इसके पीछे? आखिर ये किसका दिमाग था जिसने रामशिलाओं के जरिए इस आंदोलन को एक झटके में गांव-गांव, घर-घर तक पहुंचा दिया. हमेशा नेपथ्य में रहे इस आदमी का नाम था मोरोपंत पिंगले.
कौन थे मोरोपंत पिंगले?
आपको बताएंगे मगर पहले हम आपको बता दें कि अयोध्या आंदोलन से जुड़े ये रोचक किस्से हम ला रहे हैं एक खास किताब से जिसका नाम है ‘युद्ध में अयोध्या’. किताब के लेखक हैं टीवी9 नेटवर्क के न्यूज डायरेक्टर हेमंत शर्मा. वापस मोरोपंत पिंगले की कहानी पर लौटते हैं. दरअसल पिंगले ही अयोध्या आंदोलन के असली रणनीतिकार थे. उनका ही आइडिया था कि देशभर में रामशिलाएं घुमवाई जाएं. फिर उनको पुजवाकर हजारों लोगों से उसका भावनात्मक रिश्ता बनाया जाए.
इसी प्रयोग के तहत देश भर में कोई तीन लाख रामशिलाएं पूजी गईं. फिर गांव से तहसील, तहसील से जिला, जिले से राज्य मुख्यालय होते हुए कोई 25 हजार शिलायात्राएं अयोध्या के लिए निकली थीं. कोई 6 करोड़ लोगों ने रामशिला का पूजन किया. 40 देशों से पूजित शिलाएं अयोध्या आईं. पहली शिला बदरीनाथ में पूजी गई. पूजने वाले हर व्यक्ति ने सवा रुपए भी चढ़ाए. यानी अयोध्या के शिलान्यास से 6 करोड़ लोग सीधे और भावनात्मक रूप से जुड़े. इससे पहले उत्तर प्रदेश में इतना सघन और घर-घर तक पहुंचने वाला कोई आंदोलन नहीं हुआ. गोरक्षा आंदोलन भी इतना बड़ा नहीं बन पाया था.
पिंगले के प्रयोग का असर ये हुआ कि गांवों में रह रहा भारत राममंदिर के लिए संकल्पबद्ध हो उठा. देश भर के साधु-संत आंदोलित हो उठे. जिस गांव ने भी शिला दान की, वह उसके सम्मान की खातिर जान देने को तैयार हो गई. यही वजह थी कि मोरोपंत पिंगले को राम जन्मभूमि आंदोलन का ‘फील्ड मार्शल’ कहा जाता था.
मोरोपंत का जन्म 30 अक्टूबर 1919 को जबलपुल, मध्य प्रदेश में हुआ था. वे वैसे महाराष्ट्र के चित्तपावन ब्राह्मण थे. नागपुर के मौरिस कॉलेज से ही उन्होंने स्नातक किया था. पिंगले आरएसएस के पहले सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार के हाथों गढ़े गए थे. 1930 में ही वे संघ के संपर्क में आ गए थे. 1941 में पढ़ाई खत्म करने के बाद उन्होंने प्रचारक जीवन की शुरुआत की. सबसे पहले उनको मध्यप्रदेश में खंडवा का सह-विभाग प्रचारक बनाया गया. बढ़ते-बढ़ते वे सह सरकार्यवाह के पद तक पहुंचे.
मोरोपंत पिंगले के नेतृत्व में ही 1984 में राम जानकी रथयात्रा आंदोलन शुरू हुआ था. वे इस यात्रा के संयोजक और नियंत्रक थे. इसमें उत्तर प्रदेश और बिहार में सात रथ निकाले गए. इन रथों में राम को कारावास के भीतर दिखाया गया. यह अयोध्या में राम की स्थिति का जीवंत चित्र था. इन रथों ने हिंदी पट्टी में लोगों के अंदर विद्रोह जगा दिया. उन्हें राम की खातिर कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार कर दिया.
पिंगले पहले भी ये प्रयोग कर चुके थे!
अयोध्या के लिए किया गया प्रयोग पिंगले का पहला अनुभव नहीं था. पिंगले इससे पहले भी एक मिशन की खातिर पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण को मथ देने वाले काम को अंजाम दे चुके थे. इतिहास में दर्ज साल 1982-83 की तारीखें उनकी अभूतपूर्व संगठनात्मक क्षमता की गवाह हैं. इस दौरान पूरे देश में ‘एकात्मता यात्रा’ निकालने की तैयारी थी. देश भर में तीन यात्राएं निकालने की योजना बनी. इन तीन यात्राओं के मार्ग से इसके पीछे का दर्शन समझा जा सकता है. पहली यात्रा थी हरिद्वार से कन्याकुमारी तक. दूसरी काठमांडू के पशुपतिनाथ मंदिर से रामेश्वर धाम तक. और तीसरी यात्रा बंगाल में गंगासागर से सोमनाथ तक तय की गई.
इन यात्राओं के कुछ प्रतीक तय किए गए. गंगामाता और भारतमाता की आराधना के लिए गंगाजल साथ लिया गया. भारत माता का चित्र तो मुख्य प्रतीक था ही. इन मुख्य यात्राओं के रास्ते में सैकड़ों छोटी-छोटी यात्राओं का संगम भी हुआ. तीनों यात्राओं को करीब 50,000 किलोमीटर की दूरी तय करनी थी. इसके बाद उन्हें एक निश्चित समय पर नागपुर शहर में दाखिल होना था. उस दौर में यह बेहद अविश्वसनीय सा था. मगर यह चमत्कार हो ही गया. इसके पीछे भी मोरोपंत पिंगले का ही दिमाग था. इन तीन यात्राओं में देश भर के पौने सात करोड़ नागरिकों ने हिस्सा लिया. इन यात्राओं का अनुभव ही अयोध्या में पिंगले के काम आया.