सरकारी नौकरी का मामला…सुनवाई पूरी हुए हो गए 1 साल, अब भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार
18 जुलाईः NEET पर चल रही सुनवाई; मनी बिल को लेकर छिड़ी चर्चा के बीच यह याद करना जरुरी है कि पिछले साल आज ही के दिन (18 जुलाई, 2023) चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली 5 सदस्यीय संविधान पीठ ने एक बेहद अहम मामले में सुनवाई पूरी कर ली थी. लेकिन आज 1 साल बाद भी उस सुरक्षित फैसले को सुनाया नहीं जा सका है.
सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के सामने सवाल था कि – किसी सरकारी पद पर नियुक्ति की प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद उसके नियम और शर्तों में बदलाव किया जा सकता है या नहीं? 15 साल पुराना ये मामला राजस्थान हाईकोर्ट होते हुए साल 2011 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. लेकिन करीब एक दशक तक ठंडे बस्ते में पड़ा रहा. पिछले साल सुनवाई हुई भी मगर फैसला नहीं आया.
क्या था यह पूरा केस जिस पर फैसला सरकारी नौकरी के लिए जद्दोजहद कर रहे लाखों उम्मीदवारों की जिंदगी प्रभावित कर सकता है. आज इसी की बात.
पार्ट 1ः हाईकोर्ट का मामला, सुप्रीम कोर्ट पहुंचा
साल 2009ः सिंतबर महीने की 17 तारीख. राजस्थान हाईकोर्ट में अनुवादक के पद पर बहाली निकली. कुल 13 पदों पर भर्ती होनी थी. प्रक्रिया बड़ी सीधी थी. पहले अभ्यर्थियों को एक लिखित परीक्षा से गुजरना था. और उसके बाद उन्हें एक इंटरव्यू (साक्षात्कार) में पास होना था.
मगर हुआ ये कि जैसे ही कुछ उम्मीदवारों ने इन दोनों चरणों को पास कर लिया. राजस्थान हाईकोर्ट के तब के मुख्य न्यायधीश जगदीश भल्ला ने एक नियम जड़ दी. तय हुआ कि अनुवादक के पद पर नियुक्ति के लिए जो भर्ती प्रक्रिया चल रही है, उसमें नौकरी तब ही मिलेगी जब उम्मीदवार को लिखित परीक्षा में भी कम से कम 75 फीसदी अंक आए हों.
इसका नतीजा ये हुआ कि शॉर्टलिस्ट किए गए 21 उम्मीदवारों में से केवल 3 ही चयनित हो सकें. जो लोग असफल हो गए, उनमें से तीन ने भल्ला साहब के आदेश को राजस्थान हाईकोर्ट ही में चुनौती दी. हाईकोर्ट में मामला टिक नहीं पाया. लिहाजा, असफल उम्मीदवारों ने 2011 के अप्रैल महीने में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया.
पार्ट 2ः सुप्रीम कोर्ट में दोनों पक्ष की शुरुआती दलीलें
सर्वोच्च न्यायालय के साबिक़ जज, यानी तब न्यायधीश रहे आर. एम. लोढ़ा, जे. चेलमेश्वर और मदन बी. लोकुर की पीठ ने मामले को ‘तेज प्रकाश पाठक बनाम राजस्थान हाईकोर्ट’ नाम से सुनना शुरू किया.
असफल करार दिए गए कैंडिडेट्स ने मुख्यतः तीन बातों के इर्द-गिर्द अपना पक्ष रखा.
पहला – भर्ती प्रक्रिया शुरू होने के बाद लिखित परीक्षा में 75 फीसदी कटऑफ का नियम बनाना ठीक वैसे ही है, जैसे खेल की शुरुआत के बाद खेल के नियम ही बदल दिए जाएं.
दूसरा – उम्मीदवारों का तर्क था कि राजस्थान हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस का फैसला 2008 के सुप्रीम कोर्ट ही के एक फैसले का उल्लंघन है. ये फैसला ‘के. मंजूश्री बनाम आंध्र प्रदेश राज्य’ के नाम से जाना जाता है.
तीसरा – कैंडिडेट्स की दलील थी कि राजस्थान हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश के आदेश को पहले से चल रही भर्ती प्रक्रिया पर लागू करना समानता के अधिकार का उल्लंघन है और यह भेदभाव करने वाला है.
राजस्थान हाईकोर्ट ने इन बातों के जवाब में कुछ समानंतर दलीलें रखीं. जिनमें दो प्रमुख थे.
पहला – राजस्थान उच्च न्यायालय का तर्क था कि अगर वे साल 2008 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले (मंजूश्री मामले) के हिसाब से आगे बढ़ेंगे तो उन्हें उन 13 लोगों को नियुक्त करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा, जिन्होंने और छात्रों की तुलना में भले बेहतर अंक हासिल किए मगर उनका कुल मार्क्स कम था.
दूसरा – असफल छात्रों की ओर से रखे गए ‘के. मंजूश्री बनाम आंध्र प्रदेश राज्य’ के फैसले के जवाब में राजस्थान हाईकोर्ट ने 1973 के सुप्रीम कोर्ट ही के एक फैसले का हवाला दिया. ये फैसला – ‘हरियाणा राज्य बनाम सुभाष चंद्र मारवाह’ के नाम से जाना जाता है.
करीब पांच दशक पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले में कहा था कि राज्य सरकारें किसी पद पर भर्ती के दौरान सही उम्मीदवार की तलाश के लिए उच्च कटऑफ रख सकती हैं. हाईकोर्ट की दलील यह भी थी कि ‘के. मंजूश्री’ मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने ‘सुभाष चंद्र मारवाह’ फैसले को संज्ञान में नहीं लिया. इसलिए, अदालत को मंजूश्री फैसले के आधार पर फैसला नहीं सुनाना चाहिए.
पार्ट 3ः तीन दिन की सुनवाई, और फैसला सुरक्षित
सुप्रीम कोर्ट ही के दो फैसले में विराधाभासी दलील सुनकर साबिक़ जज आर. एम. लोढ़ा, जे. चेलमेश्वर और मदन बी. लोकुर की पीठ ने मामले को 5 जजों की पीठ के समक्ष भेज दिया. ये मार्च 2013 की बात है. मगर ताज्जुब की बात ये रही कि अगले करीब 9 साल तक इस मामले की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट में संविधान पीठ का गठन नहीं हो सका.
2022 के अगस्त में गठन हुआ भी तो केस की विस्तृत सुनवाई से पहले पीठ के दो जज रिटायर हो गए. आखिरकार, पिछले साल, 26 जून को एक नई 5 सदस्यीय पीठ (जिसमें मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा, न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा शामिल थे) सुनवाई के लिए तैयार हुए.
12 जुलाई को केस की सुनवाई शुरू हुई. तीन दिन की सुनवाई के बाद 18 जुलाई को फैसला सुरक्षित रख लिया गया. आज 1 साल बीत गया मगर फैसला कहीं नहीं है. महज उसका इंतजार है.
इसी तरह असम में एनआरसी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे, एससी-एसटी आरक्षण को सब-कैटेगराइज करने से जुड़े अहम सवालों पर संविधान पीठ 5-6 महीने पहले ही फैसला सुरक्षित कर चुकी है. लेकिन वह कब सुनाया जाएगा, अब तक स्पष्ट नहीं है.