भारत में हर साल 10 हजार बच्चे थैलेसीमिया के साथ हो रहे पैदा, क्या है ये बीमारी?
भारत में हर साल 10 हजार बच्चे इस बीमारी के साथ पैदा हो रहे हैं. भारत में थैलेसीमिया मरीजों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है.थैलेसीमिया देश में एक गंभीर और चिंताजनक ब्लड डिसऑर्डर बनता जा रहा है. इस बीमारी में शरीर में ब्लड सेल्स के निर्माण सही तरीके से नहीं हो पाता है. थैलेसीमिया को लेकर लोगों में जानकारी का काफी अभाव है. डॉक्टर बताते हैं कि थैलेसीमिया एक जेनेटिक ब्लड डिसऑर्डर है जो क्रोमोसोम 11 पर बीटा ग्लोबिन जीन में पॉइंट म्यूटेशन के कारण होता है, जिससे शरीर में हीमोग्लोबिन सही तरीके से नहीं बन पाता है. हीमोग्लोबिन रेड ब्लड सेल्स में ऑक्सीजन ले जाने का काम करता है.
थैलेसीमिया के कारण एनीमिया होता है. इससे शरीर में खून की कमी हो जाती है. सोनीपत के एंड्रोमेडा कैंसर अस्पताल,के पीडियाट्रिक ऑन्कोलॉजी और हीमेटोलॉजी विभाग की डायरेक्टर डॉ. उष्मा सिंह बताती हैं कि थैलेसीमिया दो तरह का होता है: अल्फा और बीटा, थैलेसीमिया के मामले में नियमित रूप से ब्लड चढ़ाने की आवश्यकता होती है ताकि बच्चे के शरीर में खून की कमी न हो. अगर ब्लड नहीं चढ़ाया जाता तो इससे काफी समस्या हो सकती है. थैलेसीमिया की बीमारी माता-पिता से बच्चों को होती है. इसलिए यह एक जेनेटिक डिसऑर्डर है.
समय पर पहचान जरूरी
डॉ. उष्मा बताती हैं कि थैलेसीमिया से निपटने के लिए इसके लक्षणों की जानकारी होना जरूरी है. अगर स्किन पीली पड़ रही है. आंखें पीली हो रही है तो यह इस बीमारी के शुरुआती लक्षण हो सकते हैं. थैलेसीमिया के इलाज में मल्टी-फैसिटेड दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है. इ,स बीमारी के हल्के लक्षणों वाले मरीजों में नियमित मॉनिटरिंग की जरूरत होती है हालांकि, गंभीर थैलेसीमिया मेजर के मामले में बार-बार खून चढ़ाना पड़ता है. अगर खून नहीं चढ़ाया जाता तो बच्चे की जान को खतरा रहता है.
क्या है इलाज
बोन मेरो ट्रांसप्लांट थैलेसीमिया का इलाज है. बोन मेरो ट्रांसप्लांट से इस बीमारी के मरीजों को बचाया जा सकता है. हालांकि जिस हिसाह से इस बीमारी के मरीजों की संख्या बढ़ रही है उसकी तुलना में बोन मैरो ट्रांसप्लांट काफी कम होते हैं. डोनर का अभाव और लोगों में जागरूकता की कमी के कारण ऐसा होता है.
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