प्राण प्रतिष्ठा समारोह का न्योता पाने को हर एक बेचैन, जावेद अख्तर ने दी सफाई
22 जनवरी को अयोध्या में बन रहे राम मंदिर के गर्भ गृह में रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का समारोह आयोजित किया जाना है. यह एक ऐतिहासिक क्षण होगा. करीब 500 वर्ष बाद मर्यादा पुरुषोत्तम और हिंदू लोक मानस के भगवान राम उस जगह पर पुनः बिराजेंगे जहां उनका जन्म हुआ था. 1528 ईस्वी में अयोध्या में रामलला के जन्म स्थान मंदिर को तोड़ तोड़ कर बाबर के सेनापति मीर बाकी ने मस्जिद का निर्माण कराया था. यह मंदिर उसने बाबर के कहने पर तोड़ा था, और इस आशय का एक पत्थर भी वहां लगवा दिया था, इस वजह से इसे बाबरी मस्जिद कहा जाता था. इसके बाद से लगातार इस स्थान पर मंदिर बनवाने के लिए राम भक्तों का आग्रह रहा.
पिछले 500 वर्षों में अनगिनत साधु-संत और राम भक्त यहां बलिदान हुए. किंतु राम भक्तों का यह संघर्ष कभी बंद नहीं हुआ. जो लोग इसे विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (RSS) अथवा भारतीय जनता पार्टी का एजेंडा मान रहे हों, वे भ्रम में हैं. यह भारत की जनता का एजेंडा था और अंततः 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने इस स्थान पर राम मंदिर बनाये जाने का फ़ैसला सुनाया. राम मंदिर के पुनर्निर्माण के लिए आग्रही राम भक्त जनता की जीत हुई.
विहिप की भूमिका और कार्यकर्ताओं के बलिदान
विश्व हिंदू परिषद का योगदान यह है कि उसने इस संघर्ष को सांगठनिक रूप दिया. उसने छिट-पुट संघर्ष करने वाले राम भक्तों के लिए मंच तैयार किया और भारतीय जनता पार्टी ने इस पूरे मामले को देशव्यापी बना कर इसे राजनीतिक स्वरूप प्रदान किया. लोकतंत्र में किसी भी संघर्ष को जन आंदोलन का स्वरूप देना ही पड़ता है. इसके लिए निरंतरता बहुत जरूरी है. भाजपा ने यह निरंतरता बनाये रखी. हालांकि बीच-बीच में यह आंदोलन हिंसक भी हुआ, और राम भक्तों पर गोलियां भी चलीं. असंख्य राम भक्त मारे भी गये. परंतु सत्ता द्वारा गोलियां बरसाने के चलते आंदोलन और तीव्र हुआ तथा अंततः राम मंदिर कार सेवकों के ग़ुस्से के चलते 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वस्त हो गई. इस पूरे घटनाक्रम के दौरान सभी राजनीतिक दलों ने चुप साधी. किसी भी सत्ताधारी ने यह नहीं कहा, कि ध्वस्त हुई बाबरी मस्जिद के स्थान पर पुनः मस्जिद बने. यहाँ तक कि कम्युनिस्ट दलों ने भी नहीं.
कई फिल्मी हस्तियों के निमंत्रण पर उठे सवाल
राम मंदिर पर सुप्रीम फैसला आ जाने के बाद से यहां राम मंदिर निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई और अंततः 22 जनवरी को मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का कार्यक्रम तय हुआ. इस दिन के लिए हजारों निमंत्रण पत्र बांटे गये हैं. निमंत्रण बांटने का जिम्मा राम मंदिर तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट ने लिया. मंदिर के इस प्राण प्रतिष्ठा समारोह में राजनीतिक दलों के नेता तथा तमाम फिल्मी कलाकारों को न्योता देने से विवाद बढ़ा है. ऋषि कपूर के बेटे रणबीर कपूर और महेश भट्ट की बेटी आलिया भट्ट को न्योतने से ट्रस्ट की कार्यशैली पर उंगली उठने लगी है. समारोह में वे तमाम लोग नहीं बुलाये गये जो राम मंदिर आंदोलन में जेल गये और बलिदान हुए. हालांकि जब पूरा देश राममय हो उठा हो तो वे सारे लोग मुंह से राम-राम जपने लगे हैं, जो कल तक राम मंदिर आंदोलन को कार सेवकों का उन्माद बता रहे थे.
बहुत से साधु संत भी हैं खफा
बहुत सारे साधु-संत भी इस प्राण प्रतिष्ठा का विरोध कर रहे हैं. इसका कारण एक तो उनको इसमें अपनी उपेक्षा प्रतीत हो रही है, दूसरे वे इस प्राण प्रतिष्ठा की पद्धति से नाखुश हैं. राम मंदिर के लिए राजनीतिक आंदोलन शुरू करने वाले लाल कृष्ण आडवाणी और उसकी ध्वजा थामने वाले मुरली मनोहर जोशी को निमंत्रण तो ट्रस्ट की तरफ से गया है. लेकिन उन्हें सलाह भी दी गई है कि ठंड की वजह से ये नेता न पधारें. ऐसे कई कारण हैं, जिनसे विवाद पैदा हो गया है. हर नेता और हर साधु के अपने-अपने ईगो हैं. लेकिन हर एक को इंतजार है, कि कांग्रेस इस पर क्या प्रतिक्रिया देती है? क्या सोनिया गांधी इस समारोह में आएंगी अथवा नहीं. यह जानी-मानी बात है, कि अयोध्या में राम मंदिर का ताला खुलवाने की पहल तत्काल प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने की थी. और जब बाबरी मस्जिद ध्वस्त हुई तब प्रधानमंत्री नरसिंह राव थे.
अयोध्या आंदोलन की टाइम लाइन
राम मंदिर आंदोलन को करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने अपनी पुस्तक राम फिर लौटे में अयोध्या आंदोलन की जो टाइम लाइन दी है, उसके अनुसार 7-8 अप्रैल 1984 को दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में संतों ने एक धर्म संसद बनाई. इस धर्म संसद में प्रमुख वक्ता डॉ. कर्ण सिंह थे, जो कांग्रेस के प्रमुख नेता थे और उस समय केंद्र में इंदिरा गांधी की सरकार थी. एक फ़रवरी 1986 को बाबरी मस्जिद में क़ैद रामलला मंदिर का ताला खुला, यह बहुत बड़ी घटना थी. उस समय केंद्र में राजीव गांधी की और उत्तर प्रदेश में वीर बहादुर सिंह की सरकार थी. सब ने इस पर मौन साधा. क्योंकि यह हर एक को पता था, कि यह पहल प्रधानमंत्री राजीव गांधी के इशारे पर हुई थी. तब फ़ैज़ाबाद के ज़िला जज केएम पांडेय ने ताला खोलने का आदेश दिया था. मालूम हो कि यह ताला वहाँ 1949 से लगा था.
राम मंदिर आंदोलन कैसे बना राजनीतिक?
यही नहीं अयोध्या में राम मंदिर जन्म स्थान पर शिलान्यास 9 नवंबर 1989 को उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी और प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सहमति से किया गया था. इसके बाद से राम मंदिर आंदोलन पूर्णतया राजनीतिक हो गया और हर राजनीतिक पार्टी इसमें अपने-अपने फ़ायदे ढूँढने लगी. 25 सितंबर 1990 को भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या के लिए रथयात्रा शुरू की. इसे 23 अक्तूबर को बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव के आदेश पर समस्तीपुर में रोक लिया गया और लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ़्तार कर लिया. भाजपा ने केंद्र की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया. सरकार अल्पमत में आ गई. आडवाणी की गिरफ़्तारी से ग़ुस्साए राम भक्त कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद पर तोड़-फोड़ की.
आंदोलन में जब 40 कारसेवक मारे गये
उस समय उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी. 30 अक्तूबर से 2 नवंबर 2990 के बीच कारसेवकों की तोड़-फोड़ रोकने के लिए पुलिस बल का प्रयोग हुआ. इसमें 40 कार सेवक मारे गए. इससे आंदोलन ने और तीव्र रूप ले लिया तथा पूरे देश में तीखी प्रतिक्रिया हुई. इसका भाजपा को लाभ मिला, कि 1991 के चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा की पूर्ण बहुमत की सरकार बन गई. कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने. उन्हीं के कार्यकाल में 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद को उग्र भीड़ ने ध्वस्त कर दिया. केंद्र की नरसिंह राव सरकार भी बस देखती रही. इससे ज़ाहिर है, कि ग़ैर भाजपा राजनीतिक दलों ने बाबरी मस्जिद बनाम राम जन्म स्थान मंदिर में मूक दर्शक की भूमिका निभाई. भाजपा चूँकि हिंदू समुदाय के वोट बैंक को सीधे साधती है इसलिए उसकी सक्रिय भूमिका रही. बाक़ी दल अपनी दिखाऊ धर्म निरपेक्षता के चलते मूक दर्शक रहे. एक तरह से कांग्रेस के अधिकांश नेता भी यह मानते थे कि बाबरी मस्जिद
मूल रूप से राम जन्म स्थान ही है.
जावेद अख्तर ने भी बदला बयान
यहां तक कि वे राजनीतिक दल भी जो राम को एक काल्पनिक पात्र मानते हैं और सनातन हिंदू समाज को नष्ट करने की बातें करते रहे हैं. वे समझ रहे हैं कि इस समय देश का लोक मानस राम मंदिर के साथ है. ऐसे में रामजी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा समारोह में न जाने से सारा क्रेडिट भाजपा को मिलेगा. खेल जगत के दिग्गज हों या फ़िल्मी हस्तियां लोक मानस से दूर हो गईं तो उनका सारा साम्राज्य तितर-बितर हो जाएगा. इसलिए हर एक को न्योते का इंतजार है. भले वे अतीत में हिंदू आस्थाओं पर चोट पहुंचा चुके हों. यहां तक कि जावेद अख़्तर ने भी कहा है, कि हिंदू समाज बहुत उदार है और राम तो पूरे भारतीय समाज में मान्य हैं.
जावेद अख़्तर ने अजंता एलोरा समारोह में कहा है कि प्राण प्रतिष्ठा समारोह दुनिया का सबसे बड़ा समारोह है, इसलिए इस पर हंगामा करने का कोई अर्थ नहीं है. भगवान राम और सीता को उन्होंने न सिर्फ हिंदू देवी-देवता कहा बल्कि उन्हें संपूर्ण भारतीय समाज की सांस्कृतिक विरासत बताया. जावेद अख़्तर के बयान से खुद को सेकुलर बताने वालों के मुंह धुआं हो गए हैं. इसलिए हर कोई राम मंदिर के समारोह में जाने को बेचैन हैं.