Explainer: टैक्स का पेंच, कर्नाटक को 100 पर मिलता है 13 रुपए तो उत्तर प्रदेश को 333 क्यों?

कर्नाटक के एक सांसद डी. के. सुरेश ने हाल में केंद्र और राज्य के बीच ‘करों के बंटवारे’ को लेकर एक विवादित बयान दिया. उनके बयान का लब्बोलुआब ये था कि अगर केंद्र सरकार कर्नाटक को फंड देने में इसी तरह का भेदभाव करती रही, तो उनके पास ‘दक्षिण भारत’ को अलग देश बनाने की मांग के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा. ऐसे में सवाल उठता है कि करों के बंटवारे में ये उत्तर-दक्षिण भारत की खाई क्या है? क्यों राज्य केंद्र सरकार से फंड मांगते हैं? क्या फंड की मांग का ये झगड़ा नया है? चलिए समझते हैं…

पहले आपको बता दें कि कर्नाटक के सांसद के बयान से शुरू हुआ ये विवाद अब दिल्ली के जंतर-मंतर तक आ पहुंचा है. कर्नाटक की राज्य सरकार ने केंद्र सरकार पर ‘भेदभाव’ करने का आरोप लगाते हुए बुधवार को दिल्ली में विरोध प्रदर्शन किया है. इसी तरह का विरोध प्रदर्शन केरल सरकार भी गुरुवार को करने जा रही है.

आखिर क्या है विवाद की वजह?

इस विवाद का मुख्य कारण कर्नाटक सरकार का ये कहना है कि केंद्र से मिलने वाले फंड में उसकी हिस्सेदारी पहले से कम कर दी गई है. इससे राज्य को नुकसान हो रहा है. जबकि कर्नाटक देश का दूसरा सबसे ज्यादा कर संग्रह करने वाला राज्य है. इसलिए उसे कम से वाजिब हक मिलना चाहिए.

इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक इंटरव्यू में कर्नाटक के ग्रामीण विकास, पंचायती राज और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री प्रियांक खड़गे का कहना है कि 14वें वित्त आयोग ने जब करों का बंटवारा किया था, तब कर्नाटक की हिस्सेदारी 4.71 प्रतिशत थी. लेकिन 15वें वित्त आयोग में इसे घटाकर 3.64 प्रतिशत कर दिया गया. इससे कर्नाटक को 1.87 लाख करोड़ रुपए का नुकसान हुआ.

उनका कहना है कि केंद्र सरकार ने कर्नाटक सरकार की कई योजनाओं के लिए भी फंड नहीं दिया है. कर्नाटक को देश के लिए 100 रुपए टैक्स जमा करने पर सिर्फ 13 रुपए वापसी में मिलता है, जबकि उत्तर प्रदेश को 333 रुपए रिटर्न मिलते हैं. हम चाहते हैं कि 16वें वित्त आयोग में इसके लिए कोई फॉर्मूला बने. हम देते बहुत हैं, लेकिन मिलता है सिर्फ 44,485 करोड़ रुपए. जबकि उत्तर प्रदेश को 2.18 लाख करोड़ और मध्य प्रदेश को 95,000 करोड़ रुपए मिलते हैं.

संविधान में क्या है व्यवस्था?

भारत के संविधान में अनुच्छेद-268 से लेकर 293 तक में केंद्र और राज्य के बीच वित्तीय संबंधों को बखूबी बताया गया है. अब मोटा-मोटा आप समझ लीजिए कि केंद्र सरकार कई ऐसे कर वसूलती है, जो राज्य सरकारें नहीं वसूल सकतीं. इनमें इनकम टैक्स, उत्पाद शुल्क और आयात-निर्यात कर इत्यादि शामिल हैं.

पहले राज्य सरकारें अपने स्तर पर कई अप्रत्यक्ष कर वसूलती थीं, लेकिन जीएसटी आने के बाद अप्रत्यक्ष कर के संग्रह में भी केंद्र की हिस्सेदारी बढ़ी है. हालांकि इसकी समाधान राज्यों को राजस्व में हानि के मुआवजे के तौर पर निकाला गया है. वहीं पेट्रोल-डीजल इत्यादि पर वैट अभी भी राज्य सरकारों के हाथ में है. इस तरह राज्य सरकार की आय केंद्र के मुकाबले कम होती है, और वह अपना हिस्सा मांगने के लिए केंद्र पर ही निर्भर करते हैं.

आखिर कैसे होता है करों का बंटवारा?

देश के संविधान में अनुच्छेद-280 में वित्त आयोग बनाने का प्रावधान है. इसके दो ही मुख्य काम हैं, जिनमें से एक है केंद्रीय करों में से राज्यों के हिस्से की सिफारिशें करना. देश में जब 10वां वित्त आयोग बना तो केंद्र और राज्यों के बीच करों के बंटवारे का एक नियम बना लिया गया. अभी देश में 15वें वित्त आयोग की सिफारिशें काम कर रही हैं, जो 2026 तक मान्य रहेंगी.

14वें वित्त आयोग ने केंद्र सरकार के कुल कर संग्रह में से 42 प्रतिशत राज्यों के बीच बांटने की सिफारिश की थी, जिसे 15वें वित्त आयोग में 41 प्रतिशत कर दिया गया. एक प्रतिशत हिस्सा जम्मू-कश्मीर और और लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश बनने के चलते अलग रखा गया.

केंद्र और राज्यों के बीच करों का बंटवारा एक वेटेज सिस्टम के आधार पर होता है. इसमें राज्यों को कई मानकों को खरा उतरना होता है जैसे कि डेमोग्राफिक परफॉर्मेंस, इनकम, आबादी, जंगल और इकोलॉजी एवं कर जुटाने के साथ-साथ घाटा कम करने के लिए किए गए प्रयास शामिल हैं.

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