हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन भी हुए थे ‘ग़ायब’, अरेस्ट वारंट आने में लगे थे 20 साल
झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन 29-30 जनवरी के बीच गायब थे. प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी उन्हें उनके दिल्ली के निवास स्थान पर और एयरपोर्ट पर ढूंढ रहे थे, लेकिन दिल्ली की सीमा नहीं चेक कर पाए.
हेमंत सोरेन लगभग 1300 किलोमीटर की दूरी तय करके रांची पहुंच गए. जब पत्रकारों ने पूछा कि ग़ायब कहां थे, तो हेमंत सोरेन ने कहा – “आपके दिल में थे.”
शिबू सोरेन भी हुए थे ‘लापता’
लेकिन जिस समय हेमंत सोरेन ये काम कर रहे थे, उसी समय वो अपने पिता शिबू सोरेन का लगभग बीस साल पुराना इतिहास भी दुहरा रहे थे. जब उनके पिता भी ऐसे ही पुलिस की निगाह से ‘ग़ायब’ हो गए थे, और बाहर आकर बहाना बनाया था.
झामुमो की नींव
इस कहानी को समझने के लिए आपको अतीत की एक यात्रा करनी होगी. साल 1972 में चलिए. इस साल शिबू सोरेन की उम्र कुछ 28 साल के आसपास होगी. संथाल जनजाति से आने वाले शिबू सोरेन ने इस साल बंगाल के वामपंथी नेता और ट्रेड यूनियन लीडर एके रॉय और कुर्मी समाज के नेता बिनोद बिहारी महतो के साथ मिलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) की नींव रखी. दिन चुना 15 नवंबर का. यानी आदिवासी नायक बिरसा मुंडा का जन्मदिन.
झामुमो की नींव एक ही एजेंडे के तहत रखी गई थी. एक अलग आदिवासी राज्य की स्थापना करना. और इस फोल्ड में पिछड़े वर्ग के लोगों और दलितों को शामिल करना भी इस पार्टी का एजेंडा था. कभी ये संगठन चुनाव लड़ता, तो कभी जनआंदोलन करता. मांग बस एक- अलग झारखंड राज्य.
संगठन बनने के ढाई-तीन सालों के अंदर ही पार्टी पर एक दाग लगा. दरअसल पार्टी ने अपने प्रभाव के क्षेत्र में बाहरियों को बेदख़ल करने का आंदोलन चलाया था. कैलेंडर में 23 जनवरी 1975 की तारीख़ लगी. जामताड़ा के चीरुडीह गांव में खूनख़राबा होने लगा. 11 लोग मारे गए.
इस केस में शिबू सोरेन समेत 22 लोगों को आरोपी बनाया गया था. सोरेन पर आरोप लगे कि उन्होंने भीड़ को “बाहरी लोगों” की हत्या करने के लिए उकसाया. अभियोजन पक्ष के पास कुल 18 गवाह थे, जबकि बचाव पक्ष के पास 23 गवाह. ख़बरें बताती हैं कि एक गवाह लोकेंद्र सोरेन ने कहा भी था कि शिबू सोरेन ने भीड़ को हत्या करने के लिए उकसाया भी था.
साल 1984 आया. जामताड़ा जिला अदालत ने शिबू सोरेन के ख़िलाफ़ ग़ैर-ज़मानती अरेस्ट वारंट जारी कर दिया. इसके बाद जो हुआ, वो सब कमाल था.
सोरेन इस केस में अगले 20 साल तक जेल ही नहीं गए. क़ानून अपनी चाल में चल रहा था, तभी शायद सोरेन तक वो ग़ैर-ज़मानती वारंट नहीं पहुंच पाया. लेकिन 15 नवंबर 2000 को बिरसा मुंडा के जन्मदिन के ही दिन एक बड़ा काम हो गया. इस दिन बिहार से काटकर झारखंड राज्य बनाया गया.
फिर आया साल 2004. भाजपा ने ‘इंडिया शाइनिंग’ कैम्पेन से केंद्र में फिर सरकार बनाने की कोशिश की थी. “जागा है ये भारत, नया है ये उजियारा” – जैसे एंथम को टीवी पर चलाया गया. लोगों ने एड को पसंद किया, लेकिन भाजपा को नहीं. कांग्रेस के बनाए अलायंस यूपीए को जनादेश मिल गया. लेकिन पीएम को लेकर बहुत माथापच्ची और फ़ज़ीहत भी. आखिरकार डॉक्टर मनमोहन सिंह ने देश के प्रधानमंत्री पद की शपथ ली.
उस यूपीए अलायंस में झारखंड मुक्ति मोर्चा भी शामिल था. शिबू सोरेन भी दुमका सीट जीतकर लोकसभा पहुंच चुके थे. गठबंधन सदस्य होने के नाते उन्हें भी एक मंत्रालय दिया जाना था. सो उन्हें कोयला मंत्रालय दे दिया गया.
लेकिन शिबू सोरेन के तारे सही नहीं चल रहे थे. उन्हें मंत्री बने दो महीने ही हुए थे कि उनके पास एक काग़ज़ आया. ये था साल 1984 में इशू हुआ ग़ैर-ज़मानती वारंट. 20 सालों तक चुप रहने के बाद 17 जुलाई के दिन चीरुडीह नरसंहार का ग़ैर-ज़मानती वारंट केंद्रीय मंत्री के घर चला आया था और कह रहा था कि आपको 2 अगस्त 2004 के पहले अदालत पहुंचना है. ये वारंट ये भी कह रहा था कि जामताड़ा कोर्ट ने आपको भगोड़ा घोषित किया था. शिबू सोरेन की राजनीतिक लाइफ़ ख़राब होने का पूरा चांस था. तब कहा गया था कि ये भाजपा की तत्कालीन अर्जुन मुंडा वाली झारखंड सरकार का पैंतरा है.
शिबू सोरेन गायब
21 जुलाई 2004. रांची पुलिस ने मुस्तैदी दिखाई और दिल्ली आ गई. शिबू सोरेन के नॉर्थ एवेन्यू वाले आवास पर पहुंची तो सोरेन नदारद मिले. उनके सुरक्षा अधिकारी और घरेलू कर्मचारी को वारंट दे दिया गया. घर के गेट पर भी वारंट की कॉपी चिपका दी गई.
ख़बर जंगल में आग की तरह फैली. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने शिबू सोरेन के यहां ख़त भिजवा दिया. इस्तीफ़े की मांग की गई क्योंकि सरकार पर प्रेशर था. सोरेन ने 24 जुलाई को इस्तीफ़ा दे दिया.
लेकिन सोरेन ख़ुद कहीं नहीं दिख रहे थे. वो ग़ायब थे. न पुलिस को मिल रहे थे, न मीडिया वालों को. अपने नंबर और घर कहीं नहीं थे. न दिल्ली न रांची. खोजाई शुरू हुई. आखिरकार 30 जुलाई को ख़ुद सोरेन मीडिया के सामने आए. लोगों ने पूछा, “छिप गए थे क्या?”
सोरेन ने इनकार किया और कहा,
“मैं आप लोगों के ही बीच था. मैं झारखंड हाई कोर्ट के ऑर्डर का इंतज़ार कर रहा था.”
हाई कोर्ट का कैसा ऑर्डर? ज़मानत का ऑर्डर. यानी जिस समय तक शिबू सोरेन छिपे हुए थे, वो हाई कोर्ट से अपनी अग्रिम ज़मानत के ऑर्डर का इंतज़ार कर रहे थे. वो ऑर्डर उन्हें नहीं मिला था.
2 अगस्त के दिन जब वो जामताड़ा कोर्ट पहुंचे तो उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. एक महीने से ज़्यादा समय तक जेल में रहने के बाद वो 8 सितंबर को ज़मानत पर रिहा हुए. जिस फ़ज़ीहत के चक्कर में कांग्रेस ने उन्हें मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाया था, उसी फ़ज़ीहत को दरकिनार करके कांग्रेस ने उन्हें नवंबर के महीने में फिर से मंत्रिमंडल में ले लिया. क्यों? क्योंकि कांग्रेस को अगले साल यानी 2005 में झामुमो के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ना था. वही चुनाव, जिसके बाद शिबू सोरेन 11 दिन के मुख्यमंत्री बने थे.
ग़ायब होने का क़िस्सा तो यहां ख़त्म हो गया. लेकिन एक बोनस कहानी और है. वो ये कि जब 11 दिन मुख्यमंत्री बनकर सोरेन यूनियन कैबिनेट में आए, तो वो एक और केस में ट्रायल का सामना कर रहे थे. वो था अपने पूर्व सहयोगी शशिनाथ झा के मर्डर का. 22 मई 1994 के दिन शशिनाथ झा को दिल्ली के धौला कुआं से अगवा करके रांची ले जाया गया और मार डाला गया था. इल्ज़ाम लगे कि ऐसा शिबू सोरेन के कहने पर हुआ था, क्योंकि झा को शिबू सोरेन के ‘ग़ैर-क़ानूनी’ लेनदेन का पता लग गया था, और वो सोरेन से चुप रहने के पैसे मांग रहा था.
28 नवंबर 2006. दिल्ली की तीस हज़ारी कोर्ट ने सोरेन को दोषी पाया और उन्हें आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई. इस बार शिबू सोरेन की मंत्रालय की कुर्सी फिर से चली गई. मंत्री रहते कोर्ट से सजा पाने वाले बिरले नेता हुए शिबू सोरेन. साल 2007 में दिल्ली हाई कोर्ट ने उन्हें इस केस में बरी कर दिया. और साल 2008 के मार्च में जामताड़ा कोर्ट ने शिबू सोरेन को चीरुडीह नरसंहार केस में भी सबूतों के अभाव में बरी कर दिया. अगस्त 2008 में वो दूसरी बार झारखंड के सीएम की कुर्सी पर बैठे.
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