मायावती बर्थडे: कांशीराम से कमान लेने के बाद ‘बहनजी’ ने बसपा का कितना भला किया? चुनावी नतीजों की पड़ताल

ये एक पहेली से कम नहीं जहां भारतीय राजनीति के ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों की सियासत किसी एक चेहरे के इर्द-गिर्द उभरी और फिर उस सियासतदां या उसके परिवार की चहारदीवारी में सिमट कर रह गई. बहुतेरे उदाहरण हैं. बिहार में राजद-जदयू, उत्तर प्रदेश में सपा-आरएलडी से लेकर तमिलनाडु में डीएमके और तेलंगाना में केसीआर तक. उत्तर प्रदेश में मायावती और उनकी बसपा भी इसकी एक सटीक उदाहरण हैं. बहुजनों के नायक कांशीराम ने दलित राजनीति को भारतीय सियासत की केंद्र में लाने वाले के लिए बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की. पर बढ़ती उम्र और स्वास्थ्य के मद्देनजर जब करीब 21 साल पहले उन्होंने मायावती को बहुजनों की आगे की राजनीति करने के लिए अपना राजनीतिक वारिस चुना तो इसकी कुछ हलकों में आलोचना हुईं, वहीं एक बड़े वर्ग ने इसे सराहा.

15 दिसंबर 2001, लखनऊ की एक रैली में कांशीराम की घोषणा और फिर मायावती अगले दो बरस के बाद पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन ली गईं. 2003 से शुरू हुआ सिलसिला, 2006, 2014, 2018 में भी बदस्तूर जारी रहा. पिछले 20 साल से मायावती पार्टी अध्यक्ष बनी हुई हैं. ज़रूर पिछले साल उन्होंने अपना राजनीतिक वारिस भतीजे आकाश आनंद को घोषित कर दिया पर पार्टी की असल बागडोर अब भी उन्हीं के हाथों में हैं. 1995 से लेकर 2012 के बीच मायावती कुल चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचीं. मायावती के चारों कार्यकाल को अगर जोड़ दें तो वह करीब 6 बरस तक सत्ता में रहीं.

चूंकि मायावती और बहुजन समाज पार्टी एक दूसरे के पर्याय हो चुके हैं. इसलिए अगर मायावती की राजनीति सिमट रही है तो इसका सीधा अर्थ है बसपा की राजनीति का सिमटना. वहीं इसको दूसरी तरफ से भी कहना दुरुस्त मालूम पड़ता है. जहां अगर बसपा का कुनबा सिकुड़ रहा है, तो मायावती की राजनीतिक जमापूंजी पर भी प्रश्नचिह्न लाजिम है. आज जब समर्थक अपनी ‘बहनजी’ का जन्मदिन मना रहे हैं तो क्यों न पलट कर देखें कि मायावती की बसपा ने पिछले ढाई दशक में कैसा प्रदर्शन किया. इसके लिए हमने कुल 10, जिसमें पांच लोकसभा के और पांच विधानसभा के चुनावों का में उनकी पार्टी के परफॉर्मेंस का आंकलन किया है. ये सभी चुनाव तब के हैं जब मायावती ने या तो पार्टी की कमान संभाली या फिर वह अब पार्टी का कामकाज देखने लगी थीं.

5 विधानसभा चुनावों में प्रदर्शन

कांशीराम की राजनीतिक उत्तराधिकारी चुने जाने के फौरन बाद हुए 2002 विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी को 23 फीसदी वोट, कुल 98 सीटें मिलीं. 98 सीटों से शुरू हुआ सफर साल 2007 में अपने उरूज पर पहुंचा. इस बरस जब वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं तो उनकी पार्टी बसपा रिकॉर्ड 30 फीसदी जुटा पाने में सफल रही. यह पहली दफा था जब मायावती की बसपा बिना किसी कंधे के सहारे अपना चीफ मिनिस्टर बना रही थी.

साल आया 2012, मायावती का प्रदेश में करिश्मा कम होने लगा. वोट प्रतिशत तो महज 4 अंक कम हुआ पर सीटें 126 कम हो गईं. मायावती की कुर्सी छिन गई. समाजवादी पार्टी के दिन बहुरे और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बन गए. 2014 में केंद्र में जो सत्ता परिवर्तन हुआ, उसका असर जाहिर सी बात है राज्य की राजनीति पर भी पड़ा. 2017 में हुए चुनाव में मायावती का वोट फीसदी और 4 अंक कम हो गया. 2012 के विधानसभा चुनाव में 26 फीसदी वोट लाने वाली ‘बहनजी’ फिसलकर 22 फीसदी पर आ गिरीं.

समर्थकों को उम्मीद थी कि अब एक दशक बीत गया है. उत्तर प्रदेश ने योगी को भी देख लिया, अखिलेश को भी, अब तो मायावती का लोगों को ख्याग आएगा. पर ऐसा इस बार भी नहीं हुआ. दो साल पहले हुए राज्य के आखिरी विधानसभा चुनाव में मायावती की पार्टी 13 फीसदी पर आ गईं जो कि साल 2017 की तुलना में लगभग 10 फीसदी कम था. बहुजन समाज पार्टी के पिछले 30 बरस के राजनीतिक सफर में पार्टी का यह सबसे खराब वोट प्रतिशत था.

इस तरह पांच विधानसभा चुनावों के वोट प्रतिशत को समझें तो मायावती के पास औसतन हमेशा 23 फीसदी के आसपास वोट रहा. केवल 2022 का विधानसभा चुनाव ऐसा रहा जब उनकी पार्टी का वोट परसेंटेज 20 के नीचे गया. वहीं सीट के मामले में बहुजन समाज पार्टी की स्थिति 2014 के बाद से नाजुक है. आखिरी के दोनों चुनावों में उनकी पार्टी 403 विधानसभा सीटों वाले उत्तर प्रदेश में 10 फीसदी को कौन कहे, 5 फीसदी भी सीट नहीं हासिल कर पा रही है.

पिछले 5 लोकसभा चुनावों में प्रदर्शन

लोकसभा चुनाव की अगर बात करें तो बसपा की कमान मायावती को मिलने से महज दो साल पहले हुए आम चुनाव में उनकी पार्टी को 14 सीटें मिलीं थी. वहीं इंडिया साइनिंग के नारे वाले चुनाव में जब अटल बिहारी वाजपेयी की सत्ता से विदाई हो रही थी, बसपा 19 सीटें जीतकर खुशी मना रही थी. मायावती के पार्टी अध्यक्ष बनने के बाद यह पहला आम चुनाव था.

मायावती के कमान संभालने के बाद 2009 के चुनाव में बसपा ने अपना अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन किया. मायावती की पार्टी को इस चुनाव में कुल 80 सीटों में से 21 सीटों पर, जिनमें 20 उत्तर प्रदेश में और 1 मध्य प्रदेश में, जीत नसीब हुई. इसके ठीक पांच बरस बाद जब 2014 में चुनाव हुए तो यह मोदी के उभार और यूपीए के ढलान का वक्त था. मायावती की पार्टी इस चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत सकीं. उनके सभी धुरंधर हार गए.

मजबूरन 2019 में मायावती ने अखिलेश यादव की अगुवाई वाले समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोक दल के साथ चुनाव से पहले एक राजनीतिक समझौता किया. मायावती बड़ी मशक्कत के बाद भी 10 सीटों से आगे नहीं बढ़ पाईं. हालांकि एक दिलचस्प चीज ये आप देखेंगे कि मायावती का वोट शेयर इन लोकसभा चुनावों में बहुत ज्यादा नहीं खिसका. यह लगभग 20 से 23 फीसदी के बीच बना रहा. 2014 के चुनाव में मायावती को 19 फीसदी वोट मिले तो 19 के चुनाव में बसपा सुप्रीमो अपनी पार्टी के लिए 21 फीसदी वोट हासिल करने में कामयाब रहीं.

देश के स्तर पर बसपा को मिलने वाले वोट प्रतिशत पर अगर नजर डालें तो वह 1999 में 4 फीसदी थी. 2004 में यह 5 फीसदी को पहुंची. उत्तर प्रदेश में सत्ता में रहने के दौरान उनका वोट प्रतिशत ऐतिहासिक तौर पर 6 फीसदी को पहुंचा. लेकिन फिर मोदी के उभार के बाद 4 फीसदी के अंक से ऊपर नहीं चढ़ सका. कुल जमा बात ये है कमजोर हो रही बसपा के पास अब भी राष्ट्रीय राजनीति में कम से कम चार फीसदी और अधिकतम छह फीसदी वोट हैं. वहीं, राज्य की राजनीति में उनके 20 फीसदी वोट को हाथी के निशान से डिगा पाना, आसान नहीं. मायावती की हाथी फिलहाल सुस्त जरूर नजर आ रही हो मगर वह हताश-निराश नहीं है.

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