INDICA कार बनने की कहानी, जब TATA ऑस्ट्रेलिया से प्लांट खुलवा ले आए!

1880 के दशक में जब जमशेदजी टाटा ने एक सपना देखा- भारत का खुद का स्टील प्लांट तो दुनिया हंसी. खासतौर पर अंग्रेज, जो ये मानने को तैयार ही नहीं थे कि भारतीय ऐसा कुछ कर सकते हैं. पर ऐसा हुआ. ये दुनिया की सबसे बड़ी इस्पात कंपनियों में से एक बनी. करीब 100 साल बाद ऐसा ही एक और सपना देखा गया. एक कंप्लीट भारतीय कार बनाने का. ठीक सुना आपने, 1990 तक भारत स्पेसक्राफ्ट और मिसाइलें तो बना चुका था मगर देश के पास एक ऐसी कार नहीं थी जिसे वो पूरी तरह से इंडियन कह सके. तो ये बीड़ा उठाया रतन टाटा ने. और इसे पूरा भी किया. आज आपको इसी सपने यानि पहली भारतीय कार ‘इंडिका’ के बनने की कहानी बताते हैं.
रतन टाटा ने 1995 में इस मिशन पर काम शुरू किया. तब तक वे टाटा ग्रुप और टाटा मोटर्स के चेयरमैन भी बन चुके थे. उन्होंने कहा- हम एक ऐसी कार बनाएंगे जो जेन की साइज की, एंबैसडर जितनी अंदर से स्पेस वाली, मारुती 800 की कीमत और डीजल की किफायती दर पर चलने वाली होगी. जैसे एक वक्त जमशेदजी टाटा के सपने को सबने नकारा था, वैसे ही रतन टाटा की बात पर सब हंसे कि भारत अपनी कार बना सकता है. पर रतन टाटा ने सबको गलत साबित किया और टाटा इंडिका बनवाकर ही दम ली, जिसके नाम में भी भारतीयता की पूरी झलक थी.
पुणे की इस कंपनी को सौंपा काम
रतन ने इंडिका बनाने का काम सौंपा था अपनी कंपनी के पुणे स्थित इंजीनियरिंग रिसर्च सेंटर के इंजीनियर्स को. काम आसान नहीं था, वो भी ऐसी कंपनी के लिए जिसने पहले कभी कार नहीं बनाई थी. फिर इसका डिजाइन भी ऐसा रखना था कि रतन टाटा का वो चैलेंज पूरा हो सके कि इसमें एक भारतीय परिवार के लिए पर्याप्त जगह हो. इसका ट्रांसमिशन सिस्टम, इंजन सब इन्हीं इंजीनियर्स ने डिजाइन किया. फिर जब फाइनली ये कार तैयार हुई तो कार के धंधे से जुड़ा हर व्यक्ति और भारतीय इसे देखता रह गया.
ऑस्ट्रेलिया से प्लांट उखाड़ लाए!
खैर, ये सब इतना आसानी से नहीं हुआ था. कार बनाने के लिए चाहिए होता है एक मैन्युफैक्चरिंग प्लांट जो उस वक्त था नहीं. एक नए प्लांट के लिए चाहिए थे 2 बिलियन डॉलर, जितना टाटा के लिए इंवेस्ट करना उस वक्त मुमकिन नहीं था. यहां फिर चला रतन टाटा का दिमाग. उन्होंने दुनिया भर में तलाश शुरू की और उनके हाथ लग गया ऑस्ट्रेलिया में बंद पड़ा निसान का एक प्लांट. टाटा के इंजीनियर वहां पहुंचे और पूरा सामान खोल खाल सही सलामत समंदर के रास्ते पुणे ले आए और यहां पूरा प्लांट लगा डाला. ये काम मात्र 6 महीने में हो गया, वो भी नए प्लांट की लागत के मुकाबले सिर्फ 20 पर्सेंट खर्च पर.
1998 वो साल था, जब टाटा इंडिका लॉन्च हुई. लोगों ने इसे हाथों हाथ लिया. खूब बुकिंग हुईं, खूब बिकीं. मगर कुछ समय बाद शिकायतें भी आना शुरू हो गईं. देश से लेकर विदेशी कंपनियां हाथ धोकर इसके पीछे पड़ गईं. एक बार फिर रतन टाटा दीवार बनके अपनी कंपनी के आगे खड़े हो गए. कंपनी को सभी खामियां दूर करने के लिए मोटिवेट किया. 2001 में इंडिका फिर लॉन्च हुई नए नाम और पंचलाइन के साथ. इंडिका वी2 नाम और पंचलाइन थी ‘ईवन मोर कार पर कार’.
रीलॉन्चिंग के बाद रिकॉर्ड बिक्री
जिस कार और कंपनी से लोग उम्मीद छोड़ बैठे थे, एक बार फिर वो छा गई. ये गाड़ी रीलॉन्चिंग के बाद इतनी बिकी कि उस वक्त ये सबसे ज्यादा बिकने वाली गाड़ी बन गई और 18 महीने के अंदर ही 1 लाख गाड़ियां बिक गईं. बीबीसी व्हील्स प्रोग्राम ने इसे 3-5 लाख कैटिगरी में बेस्ट कार घोषित किया.
एक बार रतन टाटा से ये सवाल पूछा भी गया कि उन्होंने आखिर ये भारतीय कार बनाने का जोखिम भरा फैसला लिया क्यों? तो रतन जवाब में बोले- मुझे दृढ़ विश्वास था कि हमारे इंजीनियर, जो अंतरिक्ष में रॉकेट भेज सकते हैं, हमारी अपनी कार भी बना सकते हैं. और जब हमने चुनौती स्वीकार की तो हम बाहर गए और देश-दुनिया में जहां भी विशेषज्ञता थी, उसे प्राप्त किया. तभी तो इस कार में जो कुछ भी था, वह हमारा था. इसीलिए मेरे लिए इंडिका एक राष्ट्रीय उपलब्धि के तौर पर गजब का असहास था…
रतन टाटा की यही खूबी उनको सबसे अलग बनाती है. फिर जैसा वो कहते भी थे- सबसे बड़ा जोखिम, जोखिम नहीं उठाना है’… इंडिका को बनवाना इसका बेहतरीन उदाहरण था.

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