Khel Khel Mein Review: बात कहने का हुनर हो तो हर बात सुनी जाती है, क्या अच्छे वाले Akshay Kumar लौट आए हैं?

15 अगस्त को देश आज़ाद हुआ था, लेकिन थिएटर्स इस वक्त बंधक हैं. इस दिन 3 हिंदी पिक्चरें रिलीज हो रही हैं – Stree 2, Vedaa और Khel Khel Mein. हमने अक्षय कुमार वाली फिल्म देख ली है. लगातार सात फिल्में उनकी फ्लॉप रही हैं. ऐसे में उन्हें ‘खेल खेल’ से उम्मीद है.
देखते हैं इस पिक्चर में उन्होंने कैसा खेल खेला है. उनके साथ दूसरे खिलाड़ियों ने किस स्तर की बैटिंग और बॉलिंग की है. कई सालों बाद वापसी कर रहे फरदीन खान के क्या हाल हैं. आगे के तमाम शब्दों में यही सब बताते हैं.
कुछ दोस्त एक जगह इकट्ठे हुए हैं. पूरी रात वो एक खेल खेलने का फैसला करते हैं. और ये खेल है बहुत खतरनाक. कुछ घंटों के लिए सबके फोन पब्लिक प्रॉपर्टी हो जाते हैं. माने सब एक-दूसरे के फोन में आने वाले मैसेज और कॉल पढ़ेंगे/सुनेंगे. और आजकल किसी के फोन में कितने राज़ होते हैं, ये सबको पता है. इस गेम में यही राज़ खुलने शुरू होते हैं और खेल खेल में बवाल हो जाता है.
नो जजिंग पॉलिसी विद फीलिंग्स का मक्खनीकरण
सच कहूं, तो इस फिल्म से उम्मीद नहीं थी कि फिल्म ठीक होगी. लेकिन ‘खेल खेल में’ ने मुझे निराश किया. ये मेरी उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी. फिल्म ठीक से भी बेहतर साबित होती है. इस फिल्म की सबसे अच्छी बात है ये किसी को जज नहीं करती. मूवी जिस कहानी पर बेस्ड है, उसका गेम ही हर किसी को जज करने का है. लेकिन फिल्म अपने पूर्ण स्वरूप में किसी को भी गलत साबित करने के लिए आगे नहीं बढ़ती. बहुत साफ-सुथरे ढंग से अपनी बात रखती है. उलझे रिश्तों को सुलझाते हुए कहीं पर बोझिल नहीं होती. हल्के अंदाज में भारी-भारी बातें कह देती है.
मुदस्सर अजीज ने इस फिल्म को लिखा और डायरेक्ट किया है. उनके पास यहां दो ऑप्शन थे. वो चाहते थे तो ‘खेल खेल में’ एक लोटपोट कर देने वाली कॉमेडी फिल्म बन सकती थी. या फिर इसे वो एक इमोशनल ड्रामा बना देते. उन्होंने इसके बीच का रास्ता चुना. इसमें वो कामयाब भी रहे. पिक्चर की बेस्ट बात है, स्मूद शिफ्ट ऑफ फीलिंग्स. माने भावनाओं का मक्खनीकरण(हेहे जोक्स अपार्ट). कब ये फिल्म हंसाते-हंसाते आपको सीरियस कर देती है, आप समझ नहीं पाते. ये यात्रा बहुत सहज है. इसके लिए डायरेक्टर साहब को बधाई देनी पड़ेगी.
तीन तिगाड़ा काम बिगाड़ा हो गया है दोस्तों
ये सिर्फ एक कॉमेडी फिल्म नहीं!
बात कहने का हुनर हो, तो हर बात सुनी जाती है. चाहे कितनी भी जटिल बात हो, कहने का ढंग उसे सरल बना देता है. ‘खेल खेल में’ उसका परफेक्ट एक्जाम्पल है. ऐसा हम क्यों कह रहे हैं, संदर्भ सहित व्याख्या करते हैं. हर बात को टालते रहना किसी चीज़ का विकल्प नहीं हो सकता. प्रॉब्लम को इग्नोर करने से वो बढ़ती ही है. उस पर बैठकर बात की जानी चाहिए. टालने से उस वक्त तो मामला सुलटा हुआ लगता है, लेकिन लॉन्ग टर्म ये नुकसान करता है. ये हम नहीं पिक्चर हमसे हर रही है भाई.
बहरहाल, यहां तुरंत चीजें सुलझाने और इंतज़ार करने के बीच एक पतली डोर भी है, जिससे ये मूवी डील करती है. जैसे एक जगह फरदीन खान का कैरेक्टर कहता है कि तुम्हें सब तुरंत चाहिए होता है. माफ़ी भी तुरंत चाहिए होती है. माफी मांगों और इंतज़ार करो. वक्त दो किसी को. कहने का मतलब है कि स्पेस हर रिश्ते में चाहिए होता है. अपनी चीज़ें किसी पर भी थोपना बड़ा जुर्म है, क्योंकि इससे आप वो तो पा लेंगे, जो आप चाहते हैं, लेकिन वो नहीं पाएंगे, जो सामने वाला आपको देना चाहता है. आप उस वक्त खुश हो जाएंगे, लेकिन हर वक्त खुश रहने के लिए थोड़ा स्पेस, थोड़ा बंधन और थोड़ी-सी ही समझ चाहिए होती है.
इस फिल्म में कोई ऐसा तकनीकी पक्ष नहीं है, जिस पर बात की जाए. लेकिन इसके कला पक्ष पर बात की जानी चाहिए, सो की भी जा रही है. फिल्म छुपे हुए समलैंगिक लोगों पर भी बहुत सलीके से अपना मत रखती है. ऐसे मुद्दों पर बोलते हुए फिल्में प्रीची हो जाती हैं. लेकिन इस फिल्म के साथ बिल्कुल ऐसा नहीं है. फिल्म इस मुद्दे को कोई बहुत स्पेशल ट्रीटमेंट नहीं देती. किसी एक छोटी बात की तरह रखकर आगे बढ़ जाती है, जो इस दौर में सबसे महत्वपूर्ण है.
ये गेम बहुत खतरनाक है?
ये तो अच्छे वाले अक्षय हैं!
अक्षय कुमार बहुत दिनों बाद अपने रंग में दिखे हैं. उनकी कॉमिक टाइमिंग कमाल है. माने वो कई-कई बातों पर ऐसे रिएक्शंस देते हैं कि हंसी आ ही जाती है. उनके पंचेज बराबर लैंड हुए हैं. उन्हें इस जॉनर की ओर लौटना होगा, तब ही मज़ा आएगा. वो इस जॉनर के किंग हैं. ‘सरफिरा’ के बाद लगातार ये उनकी दूसरी अच्छी परफॉरमेंस है. वो फॉर्म में लौट रहे हैं. उम्मीद है उनकी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर भी फॉर्म में लौटें.
फरदीन खान ने कई साल बाद इस फिल्म से बड़े परदे पर वापसी की है. उनकी वापसी भी सहज है. उनको देखकर मज़ा आता है. कई मौकों पर ‘नो एंट्री’ और ‘ऑल इज वेल’ याद आ जाती है. कुछ जगहों पर वो चूके हैं. उन्हें एक्टिंग में थोड़ा और निखार लाना पड़ेगा. दोबारा से खुद को मांजना पड़ेगा. तापसी पन्नू को उनकी रेंज का कैरेक्टर मिल गया था. उन्होंने इसका फायदा भी उठाया है. पंजाबी लहजा बहुत सही पकड़ा है. उसे पूरी फिल्म में निभाते हुए फुल भौकाल काटा है. एमी विर्क की कॉमिक टाइमिंग भी अच्छी है. उन्होंने अपने किरदार के साथ न्याय किया है. वाणी कपूर ने भी ठीक एक्टिंग करने की कोशिश की है.
बहरहाल बात खिंचती जाएगी. कुलमिलाकर लब्बोलुआब ये है- पिक्चर अच्छी है. ‘खेल खेल में’ कोई महान फिल्म नहीं है. बढ़िया एंटरटेनिंग पिक्चर है. पूरे परिवार के साथ देखने जा सकते हैं. इस फिल्म को खासकर यंग कपल्स या फिर शादी करने का प्लान कर रहे लोगों को ज़रूर देखना चाहिए. बाकी इस कहानी से ये शिक्षा मिलती है कि किसी को छलना नहीं चाहिए, तो बहुत ज़्यादा किसी को परखना भी भी नहीं चाहिए. बशीर भद्र साहब कह गए हैं: परखना मत परखने में कोई अपना नहीं रहता. लेकिन आप परखकर बताइएगा, अगर कोई कमी रह गई हो. चलिए अभी चलते हैं, टाटा-बाय!

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