देश में मात्र 5% ग़रीब हैं’, नीति आयोग के CEO के बयान का सच क्या है?
भारत में ‘ग़रीब’ कितने हैं? नीति आयोग के CEO बीवीआर सुब्रमण्यम का कहना है, 5 फ़ीसदी. 2022-23 के हाउसहोल्ड कनज़म्पशन एक्सपेंडिचर सर्वे के हवाले से उन्होंने बताया कि आर्थिक पायदान पर देश के निचले 5% लोगों का हर महीने का ख़र्च बीते 10 सालों में दोगुना हो गया है.
एक औसत गांव वाले का मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय 1,441 रुपये और शहरी व्यक्ति का 2,087 रुपये है.
महीने भर पहले नीति आयोग ने ही एक रिपोर्ट जारी की थी, कि पिछले नौ सालों में 24.82 करोड़ लोग ‘बहुआयामी ग़रीबी’ से बाहर आए हैं. अब ये रिपोर्ट आई है. सर्वे के बाद कुछ सवाल उपजते हैं:
ग़रीब कौन? कैसे तय होगा?
अगर उपभोक्ता व्यय बढ़ा है, तो देश की अर्थव्यवस्था में डिमांड साइड कमज़ोर कैसे है? क्या कारण हैं?
हालिया रिपोर्ट औसत भारतीय के ख़र्च के पैटर्न पर क्या कहती है?
ग़रीब कौन?
शनिवार, 24 फ़रवरी को घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (HCES) 2022-23 जारी किया गया है. आम परिवार किन चीज़ों पर पैसे ख़र्च करते हैं, उससे संबंधित एक सर्वे. हर पांच साल में होता है. पिछला सर्वे 2017-18 में होना था. नोटबंदी और GST लागू होने के ठीक बाद सर्वे तो किया गया, मगर सर्वे के निष्कर्ष कभी जारी ही नहीं किए गए. नैशनल स्टैटिस्टिकल ऑफ़िस (NSO) की तरफ़ से ‘गुणवत्ता’ का हवाला दे दिया गया.
अब 11 साल बाद ये सर्वे आया है. इसमें अगस्त 2022 से लेकर जुलाई, 2023 के बीच परिवारों का सर्वे किया गया. वो कितना पैसा कहां डाल रहे हैं, इससे जुड़ी जानकारी इकट्ठा की गई. सर्वे जारी करते हुए नीति आयोग CEO सुब्रमण्यम ने मीडिया से कहा,
“ग़रीब कौन है? इसे मापने के लिए तेंदुलकर समिति की एक पुरानी रिपोर्ट है. अगर हम इसे इस सर्वे के उस समिति के पैमानों से देखें, तो पता चलता है कि भारत में 5% से भी कम ग़रीब बचे हैं.”
दिसंबर, 2005 में प्लैनिंग कमीशन ने तेंदुलकर समिति का गठन किया था. प्लैनिंग कमिशन अब नीति आयोग हो गया है, मगर ग़रीबी मापने की प्रणाली वही इस्तेमाल की जा रही है. तेंदुलकर समिति ने पांच साल बाद 2009 में अपनी रिपोर्ट सौंपी, कि ग़रीबी रेखा तय करने का प्रोसेस बदला जाना चाहिए. कैलोरी पर आधारित ग़रीबी रेखा सटीक नहीं है, प्रोसेस में और आयाम जोड़े जाने चाहिए.
नई पद्धति को इस्तेमाल करते हुए तेंदुलकर समिति ने 2004-2005 तक ग्रामीण इलाक़ों में ग़रीबी रेखा 446.68 रुपये/माह और शहरों में 578.80 रुपये/माह तय की. माने गांव में कोई आदमी महीने का 446.68 रुपये से कम कमाता हो, तो वो ग़रीब है. शहर में आदमी महीने का 578.80 रुपये से कम पाता हो, तो ग़रीब है. इस पैमाने के तहत 2004-05 में देश में ग़रीबी लगभग 41.8% थी और शहरों में लगभग 37.2% अनुमानित थी. इन अनुमानों को प्लैनिंग कमीशन ने स्वीकार कर लिया.
लेकिन नीति आयोग के हालिया निष्कर्षों से पता चला है कि भारत के निचले 5% लोगों का मासिक ख़र्च 1,441 रुपये और शहर में 2,087 रुपये है. हालांकि, बीवीआर सुब्रमण्यम ने रेखांकित किया है कि इसका मतलब ये नहीं कि अब भारत में सब ख़ुशहाल हैं. इसका मतलब है कि पूर्ण रूप से ग़रीबी में रहने वालों की संख्या अब 5% से भी कम है.
हमारे पास ग़रीबी के लिए चार-पांच अलग-अलग अनुमान हैं, क्योंकि 2017-18 का सर्वे हुआ नहीं था. जो स्वीकृत ग़रीबी रेखा हमारे पास 2011-12 में थी, उसके हिसाब से पैमाना ₹32 प्रति दिन था. अगर हम उसके अनुसार चलें और मंहगाई जोड़कर इसे दोगुना कर लें – लगभग ₹60 प्रति दिन कर दें – तब आप देखेंगे कि ग़रीबी 10% से कम है.
अब इसमें सवाल ये उठता है कि क्या दिन का 60 रुपये से ज़्यादा कमाने वाला आदमी ग़रीब नहीं है? फ़र्ज़ करिए कोई 63 रुपये कमा रहा है, तो वो अमीर है? 63 रुपये माने महीने का 1890 रुपये. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर रहे डॉ अरुण कुमार ने दी लल्लनटॉप को बताया कि ग़रीबी रेखा के लिए इस तरह की मेथोडोलॉजी सही नहीं है. ग़रीबी वक़्त और जगह के आधार पर तय की जाती है. वो हरदम के लिए फ़िक्स नहीं हो सकती है.
“मिसाल के लिए, अगर आप लद्दाख में हैं और आपके पास घर नहीं है, अच्छा खाना नहीं है, कपड़ा-लत्ता नहीं है, तो आप एक जाड़ा सर्वाइव नहीं कर सकते. लेकिन अगर आप तमिलनाडु में हैं, तो आप एक छप्पर के नीचे भी वेश्ती पहन कर दिन गुज़ार सकते हैं. समय समय पर ग़रीबी को परिभाषित करना पड़ेगा. 1993 की ग़रीबी रेखा 1995 में नहीं रह सकती. 2004 के ग़रीबी के पैमाने आज की तारीख़ में प्रासंगिक नहीं होगी.”
बकौल डॉ कुमार, हमें ये देखना होगा कि सामाजिक न्यूनतम ज़रूरत क्या है. सोशली मिनिमम क्या है? इसका ध्यान रखना होगा. जैसे आज की तारीख़ में एक प्लम्बर को भी फ़ोन चाहिए, आने-जाने की सुविधा चाहिए, उसके बच्चे के लिए अच्छी शिक्षा चाहिए. इसीलिए, डॉ अरुण कुमार कहते हैं कि ग़रीबी रेखा को अति-ग़रीबी माना जाना चाहिए. क्योंकि इस पैमाने से अगर आप 5-10 रुपये ज़्यादा भी कमाते हैं, तो आप अमीर नहीं कहे जा सकते.
औसत भारतीय कहां ख़र्च रहा है?
रिपोर्ट की एक और ज़रूरी बात ये भी है कि शहरों की तुलना में गांव आगे बढ़ रहे हैं. शहरी आय 2.5 गुना बढ़ी है, वहीं, ग्रामीण आय 2.6 गुना. मगर ख़र्च का पैटर्न बदला है.
मासिक खपत में भोजन का हिस्सा घट गया है. गांवों में 2011-12 के 53% घटकर 46.4% रह गया है और शहरों में 42.6 फ़ीसदी से घटकर 39.2 फ़ीसदी. दूसरी तरफ़, ग़ैर-खाद्य खपत 47% से बढ़कर 53.6% हो गई है. कहने का मतलब ये कि गांव-शहर का जो आदमी अपने महीने के ख़र्च से खाने-पीने पर जो पैसा ख़र्चता था, वो लगातार कम हुआ है. कपड़े, मनोरंजन, गैजेट्स, गाड़ी और अन्य चीज़ों पर ख़र्च बढ़ गए हैं.
लोग आवाजाही पर अच्छा-ख़ासा पैसे ख़र्च कर रहे हैं. दो दशकों में 4.2% से बढ़कर 7.6% हो गया है.
पिछले सर्वे के बाद से शहरी और ग्रामीण परिवारों की आय तो बढ़ी है, ख़र्च भी तेज़ी से बढ़ा है, लेकिन ये भी संकेत मिले हैं कि अमीर और ग़रीब के बीच खाई चौड़ा रही है. किसी परिवार के आर्थिक स्तर का सबसे ज़रूरी संकेतक मासिक प्रति व्यक्ति उपभोक्ता व्यय (MPCE) है. किसी आदमी का एक महीने का औसत ख़र्च. सर्वे के मुताबिक़, निचले 5% लोग दिन भर में 48 रुपये ख़र्चा कर रहे हैं और शहरों में 69.5 रुपये. वहीं, शीर्ष 5% दिन का औसतन 352.7 रुपये और शहरों में 694.8 रुपये ख़र्च रहे हैं.
देश में पैसा है, जेब में नहीं!
इस बात पर काफ़ी बहस हुई है, हो रही है कि कोविड महामारी के बाद देश की अर्थव्यवस्था किस हद तक पटरी पर आई है. इसमें एक बहस हुई ‘K रिकवरी’ की. तर्क दिया गया कि महामारी के बाद ग़रीब और ग़रीब हुए हैं, अमीर और अमीर. हालांकि, भारतीय स्टेट बैंक ने इन नैरेटिव के उलट एक रिपोर्ट जारी की – ‘डिबंकिंग के शेप्ड रिकवरी’. उसमें तर्क दिया गया कि सभी आय वर्गों में बेहतरी देखी जा रही है और सब वर्गों में ग़ैर-बराबरी घटी है.
एक बात जिस पर आलोचक और सरकार सहमत है, वो ये है कि अर्थव्यवस्था में मांग पक्ष कमज़ोर हुआ है. सांख्यिकी और योजना मंत्रालय ने 2023-24 के लिए जो GDP का पहला अनुमान जारी किया था, उसमें डिमांड साइड कमज़ोर दिखता है. Private final consumption expenditure मात्र 4.4% बढ़ने की उम्मीद है. अगर 2020-21 में कोविड-ग्रस्त ढिलाई को छोड़ दें, तो ये 2002-03 के बाद से सबसे कम आंकड़ा है.
ऐसा क्यों हो रहा है? अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ़ डेवलपमेंट से जुड़े पूजा गुहा, अमलेंदु ज्योतिषी और नीरज हटेकर ने द स्क्रोल में एक आर्टिकल लिखा है. उनका ऑब्ज़र्वेशन है कि निचले वर्ग की आय में भले ही सुधार हुआ है, लेकिन उतना नहीं कि वो ख़र्च करें. सरकार की वेलफ़ेयर स्कीम्स के तहत ग़रीबों की बुनियादी ज़रूरतों का तो काफ़ी हद तक ध्यान रखा गया है, मगर बिना किसी सामाजिक सुरक्षा या रोज़गार के डिस्पोज़ेबल आय में कमी आई है. मांग कमज़ोर हुई है. और केवल निचले क्यों, अपर-मिडल क्लास के पास भी ख़र्च करने जितनी आय नहीं है. ख़ासकर महामारी के बाद शहरी परिवारों की आय पर सीधा असर पड़ा है. उनकी ख़रीदने की क्षमता का नुक़सान हुआ है.
डॉ अरुण भी कुमार बताते हैं कि 4.4% भी बढ़त ही है. मगर GDP बढ़त की तुलना में ये कम है. और बढ़ सकता था. अगर वो कम है, तो इसका मतलब है कि निम्न वर्ग और मध्यम वर्ग के जेब में पैसा नहीं है.
“अमीर आदमी तो अपनी आय का बहुत कम ही पैसा ख़र्च करता है. करोड़-दो करोड़ रुपये कमाने वाले तो महीने के लाख-दो लाख रुपये ही ख़र्च करते हैं, माने अपनी आय का बहुत कम हिस्सा. वहीं, मध्यम वर्ग या निम्न वर्ग अपनी आमदनी का 70-80 या कभी-कभी 90 से ज़्यादा ख़र्चता है. मतलब ये हुआ कि मध्यम और निम्न वर्ग की जेब में पैसा नहीं है. इसकी एक बड़ी वजह ये है कि आय की ग़ैर-बराबरी बढ़ रही है. प्रति व्यक्ति आय के लिहाज़ से हम 140वें स्थान पर हैं, लेकिन अरबपतियों की सूची में तीसरे स्थान पर. तो इतने ग़रीब देश में इतने अरबपति कैसे आ गए? स्वभाविक है, इतनी ग़ैर-बराबरी में खपत ज़्यादा नहीं होगी.”
नरेंद्र मोदी सरकार इस बात पर अपनी पीठ थपथपाती है कि उन्होंने 25 करोड़ लोगों को बहुआयामी ग़रीबी से निकाला. इस बात पर भी कि वो 80 करोड़ लोगों ‘मुफ़्त’ राशन देती है. दोनों थपथपी, एक साथ. लेकिन आय की ग़ैर-बराबरी सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती है.