Paytm को SEBI का नया नोटिस, क्या उठाता है उसके ही कामकाज पर सवाल?

मार्केट रेग्युलेटर सिक्योरिटी एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) ने पेटीएम के फाउंडर विजय शेखर शर्मा को कारण बताओ नोटिस भेजा है. सेबी के इस नोटिस में कहा गया है कि पेटीएम जब अपना आईपीओ लेकर आई थी, तब उसने विजय शेखर शर्मा को ‘नॉन-प्रमोटर’ के तौर पर दिखाया था, जोकि एक गलत क्लासिफिकेशन था. लेकिन असली सवाल ये नहीं है कि पेटीएम ने आईपीओ के वक्त अपने फाउंडर को किस तरह से क्लासिफाई किया, बल्कि सेबी के रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क और ‘प्रमोटर’ की परिभाषा के ऊपर ही सवाल उठाता है.
पेटीएम का आईपीओ आए लगभग 3 साल का वक्त हो चुका है. सेबी अब फिर से ‘प्रमोटर’ और ‘नॉन-प्रमोटर’ के क्लासिफिकेशन को देख रही है. सेबी का यूं पुराने मामले को लेकर कार्रवाई करना क्या प्रमोटर की डेफिनेशन और आईपीओ प्रोसेस के दौरान सेबी की अनदेखी को नहीं दर्शाता है. साथ ही पहले जिन मामलों में अप्रूवल दिए गए उनके संभावित परिणामों पर सवाल खड़े नहीं करता है?
सेबी की कार्रवाई में देरी
सेबी की कार्रवाई की टाइमिंग विशेष रूप से चौंकाने वाली है. पेटीएम का आईपीओ भारत के इतिहास के सबसे बड़े आईपीओ में से एक है. साइज के मामले में ये भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) आईपीओ के बाद दूसरे स्थान पर है. पेटीएम का आईपीओ लॉन्च होने से पहले कई अलग-अलग रेग्युलेटर्स, प्रॉक्सी सलाहकार फर्मों, मर्चेंट बैंक, अंडरराइटर्स और निवेशकों ने इसकी गहन जांच की गई थी.
इतने बड़े आईपीओ को लेकर यह उम्मीद की जाती है कि रेग्युलेटरी रिव्यू प्रोसेस के दौरान प्रमोटर क्लासिफिकेशन जैसे किसी भी मुद्दे की पहचान की गई होगी. इस फैक्ट के वर्षों बाद कार्रवाई शुरू करने का सेबी का ये निर्णय आईपीओ प्रक्रिया के दौरान की गई सही मेहनत और उसके तौर-तरीकों की सत्यता पर सवाल उठाता है.
भारत में आईपीओ को पब्लिक के बीच में ले जाने से पहले रेड हेरिंग प्रॉस्पेक्टस (आरएचपी) जैसी कठोर समीक्षा का सामना करना होता है. इसमें प्रमोटरों और नॉन-प्रमोटरों के क्लासिफिकेशन को वेरिफाई करना शामिल है. रेड हेरिंग प्रॉस्पेक्टस का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना होता है कि कोई कंपनी जो स्टॉक एक्सचेंज में लिस्ट होने जाने जा रही है, उसे ये अनुमति देने से पहले ही सभी रेग्युलेटरी आवश्यकताओं को पूरा कर लिया जाएग.
अगर सेबी अब विजय शेखर शर्मा को नॉन-प्रमोटर के तौर पर क्लासिफाई करने पर सवाल उठा रहा है, तो इससे पता चलता है कि या तो शुरुआत में जो समीक्षा की गई वह गलत थी या फिर अब नई जानकारी सामने आई है. किसी भी मामले में या पेटीएम के मामले में कार्रवाई में देरी रेग्युलेटर प्रोसेस में विश्वास कम करती है. आईपीओ को अनुमति देने की प्रक्रिया में ये सेबी की निगरानी की क्षमता को लेकर चिंताएं बढ़ाती है.
भूतकाल की मंजूरी पर अब कार्रवाई करने का असर
जिन मामलों में पहले अनुमति दी जा चुकी है उन पर बाद में कार्रवाई करना, जैसा सेबी अभी पेटीएम के मामले में कर रहा है. ये देश के रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क की विश्वसनीयता पर महत्वपूर्ण असर डालता है. एक बार जब सेबी ने आईपीओ को मंजूरी दे दी है और कंपनी ने आरएचपी से जुड़े किसी भी सवाल, क्लैरिफिकेशन या ऑब्जर्वेशन का जवाब दिया है, तो ये उम्मीद की जाती है कि रिव्यू प्रोसेस को पूरा कर लिया गया है और यही अंतिम है.
प्रमोटर के रूप में विजय शेखर शर्मा के क्लासिफिकेशन के मुद्दे को फिर से खोलकर सेबी ने उन कंपनियों के लिए अनिश्चितता पैदा की है जो पहले ही आईपीओ की प्रोसेस को पूरा कर चुकी हैं और उस समय सभी रेग्युलेटरी अनिवार्यताओं का अनुपालन कर चुकी हैं. ये अब उन कंपनियों के लिए एक नया रिस्क है.
भूतकाल में किए किसी काम को लेकर सेबी का अब कार्रवाई करने का ये काम, असल में सेबी के रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क की स्थिरता और विश्वसनीयता के बारे में व्यापक चिंताएं पैदा कर सकता है. कंपनियां यह सवाल करना शुरू कर सकती हैं कि क्या उनकी आईपीओ मंजूरी वास्तव में अंतिम है या भविष्य में उन्हें अन्य किसी जांच या संभावित संशोधन का सामना करना होगा.
इस तरह की अनिश्चितता का आईपीओ बाजार पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है, क्योंकि अगर कंपनियों को डर है कि उनकी आईपीओ की मंजूरी पर वर्षों बाद फिर से विचार किया जा सकता है, तो वे लिस्टेड होने में संकोच कर सकती हैं. सेबी का काम स्पष्ट और लगातार निगरानी करना है. ऐसे में अगर कोई फैसला सेबी के निर्णयों की अंतिमता पर संदेह पैदा करते हैं, वे लंबे समय में इसके अधिकार और विश्वसनीयता को कमजोर कर सकते हैं.
समय के साथ बदलती “प्रमोटर” की परिभाषा
विजय शेखर शर्मा को भेजे एक सेबी के नोटिस का मुख्य मुद्दा “प्रमोटर” की परिभाषा है. सेबी के ‘इश्यू ऑफ कैपिटल एंड डिस्क्लोजर रिक्वायरमेंट्स’ (आईसीडीआर) विनियमों में प्रमोटर को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसके नाम का उल्लेख इस रूप में डीआरएचपी या कंपनी के एनुअल फाइनेंशियल रिटर्न में दर्ज किया गया है. या फिर प्रमोटर ऐसा कोई व्यक्ति हो सकता है जिसका आईपीओ लाने वाले पर डायरेक्ट या इनडायरेक्ट कंट्रोल है.
प्रमोटर की इस परिभाषा में वो व्यक्ति भी शामिल हैं जिनकी सलाह या डायरेक्टिव पर कंपनी का बोर्ड ऑफ डायरेक्टर काम करने का आदी हो. प्रमोटर शब्द की यह व्यापक परिभाषा कंपनी से जुड़े व्यक्तियों की एक विस्तृत श्रृंखला को शामिल करती है. साथ ही ये सवाल भी उठाती है कि प्रमोटरों को कैसे क्लासिफाई किया जाना चाहिए. खासकर मॉडर्न कॉरपोरेट स्ट्रक्चर में जहां कंपनियों का कंट्रोल कई लोगों के हाथ में होता है.
सेबी ने प्रमोटरों को परिभाषित करने के लिए अपने दृष्टिकोण को अपडेट करने की आवश्यकता को पहचाना है. इसे लेकर उसने एक डिस्कशन पेपर में “पर्सन्स इन कंट्रोल (पीएससी)” की अवधारणा जारी की है. प्रमोटरों, फाउंडर्स और कंट्रोलिंग शेयर होल्डर्स के बीच अंतर करना अब बहुत महत्वपूर्ण हो गया है, क्योंकि कॉरपोरेट अब भारत के कैपिटल मार्केट और निजी इक्विटी निवेशकों से पहले से ज्यादा पूंजी जुटा रहे हैं. जैसे-जैसे कंपनियां बढ़ती हैं और उनकी शेयरधारिता व्यापक होती है, प्रमोटर की पारंपरिक अवधारणा प्रासंगिक नहीं रह सकती है.
समय के साथ प्रमोटरों की भूमिकाएं विकसित होती हैं और जैसे-जैसे वे अपनी हिस्सेदारी कम करते हैं, कंपनी के भीतर उनका प्रभाव कम हो सकता है. रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क को इस विकास को प्रतिबिंबित करने की आवश्यकता है. यह मानते हुए कि प्रमोटरों के अधिकार और दायित्व बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स या शेयरधारकों से अलग हैं. प्रमोटरों को क्लासिफाई करने के लिए सेबी का वर्तमान दृष्टिकोण आधुनिक कॉरपोरेट गवर्नेंस की वास्तविकताओं के लिए बहुत कठोर हो सकता है. जहां कंपनी का कंट्रोल अक्सर स्टेक होल्डर्स के व्यापक समूह के बीच शेयर होता है.
मार्केट की स्टेबिलिटी को सुनिश्चित करने में सेबी की भूमिका
सेबी ने भारत के सिक्योरिटी मार्केट की ग्रोथ और स्टेबिलिटी को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इसकी रेग्युलेटरी जांचों ने निवेशकों के विश्वास को बढ़ाने में योगदान दिया है. हालांकि जैसे-जैसे मार्केट डेवलप हो रहे हैं और अधिक कॉम्प्लेक्स हो रहे हैं. सेबी को इन परिवर्तनों के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए अपने रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क को समायोजित करना होगा. प्रमोटर-आधारित मॉडल से “पर्सन इन कंट्रोल” मॉडल में परिवर्तन इस विकास का हिस्सा है, लेकिन कंपनियों और निवेशकों के बीच भ्रम पैदा करने से बचने के लिए इसे स्पष्टता और स्थिरता के साथ लागू किया जाना चाहिए.
वहीं मार्केट की इंटिग्रिटी को बनाए रखने में सेबी की भूमिका महत्वपूर्ण है. भूतकाल में अपनी स्वयं की मंजूरी पर दोबारा विचार करने से कंपनियों और निवेशकों का रेग्युलेटरी प्रक्रिया में विश्वास कम हो सकता है. सेबी को नियमों के अनुपालन और निगरानी के बीच संतुलन बनाना चाहिए. रेट्रोस्पेक्टिव जांच का उपयोग संयम से और केवल उन मामलों में किया जाना चाहिए जहां गलत काम या गलत बयानी के स्पष्ट सबूत हों. अन्यथा वे नियामक ढांचे की विश्वसनीयता को कम करने और बाजार में अनावश्यक अनिश्चितता पैदा करने का जोखिम बढ़ाते हैं.
नोटिस ने ‘प्रमोटर’ से जुड़ी परिभाषा की जटिलता पेश की
विजय शेखर शर्मा को सेबी के कारण बताओ नोटिस ने भारत के उभरते कॉरपोरेट परिदृश्य में एक प्रमोटर को परिभाषित करने की जटिलताओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है. सेबी की ये कार्रवाई इसकी प्रारंभिक समीक्षा प्रक्रिया की प्रभावशीलता और मंजूरी दिए जाने के लंबे समय बाद दोबारा समीक्षा करने के असर को लेकर चिंताएं बढ़ाती है.
जैसे-जैसे सेबी अपने नियामक ढांचे को विकसित करना जारी रखता है, उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि उसके कार्य बाजार में स्पष्टता, स्थिरता और आत्मविश्वास को बढ़ावा दें. भारत के प्रतिभूति बाजार की अखंडता को बनाए रखने के लिए आधुनिक कॉरपोरेट संरचनाओं को अनुकूलित करने की आवश्यकता के साथ नियामक प्रवर्तन को संतुलित करना आवश्यक है.
Disclaimer : ये लेखक के निजी विचार हैं.

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