रामचरितमानस: भरतजी का श्रीराम को वापस लाने के लिए वन को जाना

श्रीराम के वियोग में राजा दशरथ का निधन हो गया. भरतजी ने सारी प्रक्रिया की. मुनिश्रेष्ठ वसिष्ठजी ने जहां जैसी आज्ञा दी, वहां भरतजी ने सब वैसा ही हजारों प्रकार से किया. शुद्ध हो जाने पर विधिपूर्वक सब दान दिए.

गौएं तथा घोड़े, हाथी आदि अनेक प्रकार की सवारियां, सिंहासन, गहने, कपड़े, अन्न, पृथ्वी, धन और मकान भरतजी ने दिए. भूदेव ब्राह्मण दान पाकर परिपूर्णकाम हो गए (अर्थात् उनकी सारी मनोकामनाएं अच्छी तरह से पूरी हो गईं). पिताजी के लिए भरतजी ने जैसी करनी की वह लाखों मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती.

तब शुभ दिन शोधकर श्रेष्ठ मुनि वसिष्ठजी आए और उन्होंने मन्त्रियों तथा सब महाजनों को बुलवाया. सब लोग राजसभा में जाकर बैठ गए. तब मुनि ने भरतजी तथा शत्रुघ्नजी दोनों भाइयों को बुलवा भेजा. भरतजी को वसिष्ठजी ने अपने पास बैठा लिया और नीति तथा धर्म से भरे हुए वचन कहे. पहले तो कैकेयी ने जैसी कुटिल करनी की थी, श्रेष्ठ मुनि ने वह सारी कथा कही. फिर राजा के धर्मव्रत और सत्य की सराहना की, जिन्होंने शरीर त्यागकर प्रेम को निबाहा. श्रीरामचंद्रजी के गुण, शील और स्वभाव का वर्णन करते-करते तो मुनिराज के नेत्रों में जल भर आया और वे शरीर से पुलकित हो गए. फिर लक्ष्मणजी और सीताजी के प्रेम की बड़ाई करते हुए ज्ञानी मुनि शोक और स्नेह में मग्न हो गए. मुनिनाथ ने विलखकर (दुखी होकर) कहा- हे भरत! सुनो, होनी बड़ी बलवान है. हानि-लाभ, जीवन-मरण और यश-अपयश, ये सब विधाता के हाथ हैं.

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