रामचरितमानस: जब सीता को चोट पहुंचाने पर इंद्र के बेटे को दिया प्रभु राम ने दंड
भरतजी-शत्रुघ्नजी और तीनों माताएं अयोध्या लौट चुके हैं. सब लोग श्रीरामचंद्रजी के दर्शन के लिए नियम और उपवास करने लगे. वे भूषण और भोग-सुखों को छोड़-छाड़कर अवधि की आशा पर जी रहे हैं.
भरतजी ने मन्त्रियों और विश्वासी सेवकों को समझाकर उद्यत किया. वे सब सीख पाकर अपने-अपने काम में लग गए. फिर छोटे भाई शत्रुघ्नजी को बुलाकर शिक्षा दी और सब माताओं की सेवा उनको सौंपी. ब्राह्मणों को बुलाकर भरतजी ने हाथ जोड़कर प्रणाम कर अवस्था के अनुसार विनय और निहोरा किया कि आप लोग ऊंचा-नीचा, अच्छा-मन्दा जो कुछ भी कार्य हो, उसके लिए आज्ञा दीजिएगा.
संकोच न कीजिएगा. भरतजी ने फिर परिवार के लोगों को, नागरिकों को तथा अन्य प्रजा को बुलाकर उनका समाधान करके उनको सुखपूर्वक बसाया. फिर छोटे भाई शत्रुघ्नजी सहित वे गुरुजी के घर गए और दंडवत करके हाथ जोड़कर बोले- आज्ञा हो तो मैं नियमपूर्वक रहूं! मुनि वसिष्ठजी पुलकित शरीर हो प्रेम के साथ बोले- हे भरत! तुम जो कुछ समझोगे, कहोगे और करोगे, वही जगत में धर्म का सार होगा.
भरतजी ने यह सुनकर और शिक्षा तथा बड़ा आशीर्वाद पाकर ज्योतिषियों को बुलाया और अच्छा मुहूर्त साधकर प्रभु की चरणपादुकाओं को निर्विघ्नतापूर्वक सिंहासन पर विराजित कराया. फिर श्रीरामजी की माता कौशल्याजी और गुरुजी के चरणों में सिर नवाकर और प्रभु की चरणपादुकाओं की आज्ञा पाकर धर्म की धुरी धारण करने में धीर भरतजी ने नन्दिग्राम में पर्णकुटी बनाकर उसी में निवास किया.