रामचरितमानस: जब राम और भरत मिलाप देखकर भयभीत हो गए स्वर्ग में देवता

सबके मन में यह सन्देह हो रहा था कि हे विधाता! श्रीरामचंद्रजी का अयोध्या जाना होगा या नहीं. भरतजी को न तो रात को नींद आती है, न दिन में भूख ही लगती है. वे पवित्र सोच में ऐसे विकल हैं, जैसे नीचे (तल) के कीचड़ में डूबी हुई मछली को जल की कमी से व्याकुलता होती है.

भरतजी सोचते हैं कि माता के मिस से काल ने कुचाल की है. जैसे धान के पकते समय ईति का भय आ उपस्थित हो. अब श्रीरामचंद्रजी का राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे तो एक भी उपाय नहीं सूझ पड़ता. गुरुजी की आज्ञा मानकर तो श्रीरामजी अवश्य ही अयोध्या को लौट चलेंगे. परंतु मुनि वसिष्ठजी तो श्रीरामचंद्रजी की रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे. माता कौशल्याजी के कहने से भी श्रीरघुनाथजी लौट सकते हैं; पर भला, श्रीरामजी को जन्म देने वाली माता क्या कभी हठ करेगी? मुझ सेवक की तो बात ही कितनी है? उसमें भी समय खराब है और विधाता प्रतिकूल है.

यदि मैं हठ करता हूं तो यह घोर कुकर्म होगा, क्योंकि सेवक का धर्म शिवजी के पर्वत कैलास से भी भारी है. एक भी युक्ति भरतजी के मन में न ठहरी. सोचते-ही-सोचते रात बीत गई. भरतजी प्रातःकाल स्नान करके और प्रभु श्रीरामचंद्रजी को सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वसिष्ठजी ने उनको बुलवा भेजा. भरतजी गुरु के चरणकमलों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गए. उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मन्त्री आदि सभी सभासद आकर जुट गए.

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