मरने से पहले खून से लिखा ‘सीताराम’, 2 नवंबर 1990 को हुए गोलीकांड के पीछे कौन था जिम्मेदार?
2 नवंबर 1990 का दिन था, बड़ा क्रूर दिवस. उस रोज एक कार सेवक गोली खाकर मरते वक्त सड़क पर सीताराम लिखता है. जी हां, मौत सामने थी, लेकिन सड़क पर सीताराम लिखता है. छोटे भाई को बचाने आया बड़ा भाई सुरक्षाबलों की गोली का शिकार हो जाता है. उस रोज ऐसी तमाम वारदातें हुई, जिससे अवधपुरी की चीख निकल गई. सिर्फ एक दिन में अयोध्या में 40 कार सेवकों की सरकारी हत्या हुई थी.
साल 1990 के अक्टूबर-नवंबर महीने में अयोध्या आंदोलन अपने चरम पर था. राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद के समर्थक आमने-सामने थे.प्रधानमंत्री वीपी सिंह और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह सत्ता के समीकरण में एक साथ होने के बावजूद एक-दूसरे के खिलाफ चाल चल रहे थे. लालू यादव और मुलायम सिंह यादव के बीच धर्मनिरपेक्षता का चैंपियन बनने की कवायद चल रही थी. प्रधानमंत्री की रेस में वीपी सिंह से मात खा चुके चंद्रशेखर, मुलायम सिंह के कंधे पर बंदूक रखकर अपनी चाल चल रहे थे. बीजेपी के सहयोग से प्रधानमंत्री बने वीपी सिंह के सियासत का स्याह पक्ष उजागर हुआ है ‘युद्ध में अयोध्या’ किताब में.
वीपी सिंह का दोहरा चरित्र
विश्वनाथ प्रताप सिंह कुटिल और दोहरे चरित्र वाले राजनेता थे. अपनी छवि के लिए वह किसी भी सिद्धांत की बलि देने को हमेशा तैयार रहते थे. सार्वजनिक रूप से वह बीजेपी की आलोचना करते थे, लेकिन बंद कमरे में होने वाली बैठकों में वह कई मुद्दों पर बीजेपी का समर्थन करते थे. टीवी9 भारतवर्ष के न्यूज डायरेक्टर और वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने बताया, ”मुंबई में अखबार इंडियन एक्सप्रेस के अतिथि गृह में एक बैठक हुई. बैठक रामनाथ गोयनका ने आयोजित की थी. उस बैठक में तब के संघ प्रमुख रज्जू भैया, भावूराव देवरस, विश्वनाथ प्रताप सिंह और जनसत्ता के संपादक प्रभाष जोशी थे. बैठक इस बात पर सहमति बनाने के लिए हो रही थी कि राजीव गांधी को हटाने के लिए जनता दल और बीजेपी साथ-साथ चुनाव लड़े. वीपी सिंह चाहते थे कि चुनाव साथ-साथ लड़ा जाए पर गठबंधन न हो, सीटों का एडजस्टमेंट हो ताकि मुस्लिम कांस्टिच्यूएंसी में उनका नुकसान ना हो. जब भाजपा नेताओं ने यह सवाल खड़ा किया कि आप सार्वजनिक रूप से मंदिर का विरोध करते हैं, हम आपके साथ चुनाव कैसे लड़े तो उन्होंने कहा अरे भाई वहां मस्जिद है कहां, वहां तो मंदिर है और वहां पूजा पाठ चल रहा है और वह इमारत इतनी कमजोर है कि उसे अगर कोई धक्का दे दे तो भी गिर जाएगी. बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह के इस उद्गार को इंडियन एक्सप्रेस में अरुण शौरी ने छापा. विश्वनाथ प्रताप सिंह की बड़ी थू-थू हुई और वह जीवन भर इस बात की सफाई देते रहे कि उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा.”
विश्वनाथ प्रताप सिंह सत्ता के लिए किसी हद तक जाने को तैयार थे तो तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भी अल्पसंख्यक वोट पाने के लिए अपनी हर हद पार कर सकते थे. उन्होंने तो ऐलान कर रखा था कि अयोध्या में कार सेवा के वक्त परिंदा भी उनकी इजाजत के बिना पर नहीं मार पाएगा.
वीपी सिंह, लालू यादव की चाल
वीपी सिंह और मुलायम सिंह के बीच जारी सियासी पेच के बीच लालकृष्ण आडवाणी ने अपनी रथ यात्रा की घोषणा कर दी. आडवाणी की रथ यात्रा 25 सितंबर को सोमनाथ से शुरू होकर 30 अक्टूबर को अयोध्या पहुंचने वाली थी. 30 अक्टूबर को ही अयोध्या में कार सेवा का कार्यक्रम तय हुआ था. आडवाणी की रथ यात्रा ने पूरे देश का माहौल बदलकर रख दिया था. हिंदुत्व की ऐसी लहर पहले कभी नहीं दिखी थी. रथ यात्रा जहां से गुजरती, वहां राम भक्तों का हुजूम जमा हो जाता था.
इसी समय वीपी सिंह ने एक बड़ा सियासी दांव चलते हुए लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार करवा दिया. वीपी सिंह ने एक तीर से दो शिकार किए. आडवाणी को गिरफ्तार करवाया और मुलायम सिंह को पटखनी दे दी. पहले आडवाणी के रथ को देवरिया में रोका जाना था, मुलायम सिंह रथ रोकने वाले नेता बनते, लेकिन वीपी सिंह को यह मंजूर नहीं था. अरुण नेहरू ने बताया कि प्रधानमंत्री ने लालू यादव को संदेश भेजा कि वह आडवाणी को बिहार में ही रोक लें ताकि धर्मनिरपेक्षता का सारा नेतृत्व मुलायम सिंह यादव के पास ना रहे.
टीवी9 भारतवर्ष के न्यूज डायरेक्टर और वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने बताया, ”दरअसल ये राजनीतिक वर्चस्व की लड़ाई थी, मुलायम सिंह यादव और विश्वनाथ प्रताप सिंह में सेकुलरिज्म का चैंपियन कौन हो, इस होड़ ने इस मामले को और उलझा दिया. मुझे अरुण नेहरू ने बताया कि जब सेकुलरिज्म की पूरी कांस्टीट्यूएंसी मुलायम सिंह की तरफ खिसकती दिखी और मुसलमानों के स्वाभाविक नेता मुलायम सिंह होते नजर आए. तो विश्वनाथ प्रताप सिंह ने संदेश भेजकर लालू प्रसाद यादव से लालकृष्ण आडवाणी को बिहार में ही गिरफ्तार करवा दिया ताकि उत्तर प्रदेश में आडवाणी की गिरफ्तारी से मुलायम सिंह ज्यादा बड़े नेता ना बनें.”
जब एक साधु ने दिया सबको चकमा
वीपी सिंह के इस दांव से मुलायम सिंह मात खा गए, लेकिन कार सेवा को लेकर उनका रुख पहले की तरह बना रहा. कार सेवा वाले दिन 30 अक्टूबर की सुबह अयोध्या संगीन साए में थी, लेकिन तमाम पाबंदियों के बावजूद कार सेवक अयोध्या पहुंच रहे थे. पुलिस इन कार सेवकों को गिरफ्तार करके बस में बिठा रही थी. इस दौरान एक साधु ने जो कुछ किया उसकी चर्चा आज भी लोग करते हैं. गिरफ्तार लोगों के लिए लाई गई बस नंबर यूएमआर 9720 में कुछ साधुओं को बिठाया गया, बस चलने को हुई तभी एक साधु जो ड्राइविंग जानता था, उसने धक्का देकर बस ड्राइवर को गिरा दिया, उस साधु ने बस का अपहरण कर लिया. लोहे के तीन फाटक तोड़ते हुए वह साधु बस को राम जन्मभूमि परिसर से 50 गज की दूरी तक ले गया था.
मलयाम सरकार ने बोला था झूठ?
सुरक्षा बलों के भारी बंदोबस्त के बावजूद दोपहर 12:00 बजे तक करीब 40 हजार कार सेवक विवादित परिसर में पहुंच गए थे. दोपहर 2:00 बजे के करीब अचानक दो कार सेवक गुंबद पर चढ़ गए. गुंबद पर दोनों ने राम ध्वज फहराने की कोशिश की, नीचे से सीआरपीएफ ने गोली चलाई और दोनों कार सेवक ऊपर से जमीन पर गिरे और मारे गए. सुरक्षाबलों की गोलीबारी में उस समय वहां कुल 11 कार सेवक मारे गए. कार सेवकों ने बाहरी दीवार की ईट उखाड़ दी थी और एक तरफ की दीवार गिरा दी थी, लेकिन मुलायम सरकार इस कड़वे सच को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं थी. उसी शाम उन्होंने एक बयान जारी करके कहा, ”विवादित इमारत में कोई कार सेवा नहीं हुई, मस्जिद को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है, जिन लोगों ने विवादस्पद जगह पर जबरन घुसने की कोशिश की उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. लोग अफवाहों से गुमराह ना हो.”
2 नवंबर, इतिहास का काला दिन
मुलायम सिंह का यह बयान जमीनी वास्तविकता के एकदम विपरीत था, उस रोज अयोध्या में मुलायम सरकार पूरी तरह विफल रही थी. यहां तक की 30 अक्टूबर 1990 को विश्व हिंदू परिषद के अशोक सिंघल पुलिस की लाठी से घायल होकर अस्पताल में जब भर्ती हुए तो वह अगले ही दिन अस्पताल से फरार हो गए और उस फरारी के दौरान ही उन्होंने घोषणा कर दी कि 2 नवंबर को फिर से कार सेवा होगी, लेकिन उनको क्या पता था कि कार सेवकों का काल अयोध्या के बादलों में मंडराने लगा है.
30 अक्टूबर के बाद 2 नवंबर को फिर अयोध्या में सुरक्षा बल और कार सेवक आमने-सामने थे. कारसेवकों का जत्था जब विवादित परिसर की तरह बढ़ा तो सुरक्षा बलों ने हनुमानगढ़ी चौराहे पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी. उस रोज मुलायम सरकार के इशारे पर सुरक्षा बलों ने जो कुछ किया था, वह अयोध्या के इतिहास का सबसे कलंकित अध्याय है. दिगंबर अखाड़े वाली गली में सुरक्षा बलों की गोली से स्वर्गवासी हुआ कार सेवक जब जमीन पर गिरा तो उसने अपने खून से सड़क पर सीताराम लिखा, आखिर तक मालूम नहीं हो सका कि सीताराम उसका नाम था या उसने अपनी आखिरी वक्त में प्रभु का स्मरण किया था.
जब कोठारी बंधुओं की हुई हत्या
उसी समय दूसरे सुरक्षा बलों ने कोठारी बंधुओं की गोली मारकर हत्या कर दी. पहली गोली शरद कोठारी को मारी गई थी. अपने छोटे भाई की मदद के लिए बड़ा भाई रामकुमार कोठारी भागकर उसके पास पहुंचा तो सुरक्षा बलों ने उसे भी गोली मार दी. कोठारी बंधुओं का परिवार पीढ़ियों से कोलकाता में रहता था. हीरालाल कोठारी के यही दोनों बेटे थे. दोनों भाइयों ने 30 अक्टूबर की कार सेवा के दौरान विवादित इमारत के गुंबद पर भगवा ध्वज फहराया था, उनकी इस हरकत से सुरक्षा बल नाराज थे और आम राय यही है कि गुंबद पर भगवा ध्वज फहराने की वजह से ही सुरक्षा बलों ने बाद में उन्हें अपना निशाना बनाया.
टीवी9 भारतवर्ष के न्यूज डायरेक्टर और वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने उस दिन की घटना को याद करते हुए बताया, ”दृश्य भयावह था और माहौल रोंगटे खड़े कर देने वाला. बचपन से मैंने नरसंहार की अनेक कहानियां सुनी थी पर जीवन में पहली बार नरसंहार देखा. अपने सामने दम तोड़ते लोगों को भी पहली बार देख रहा था. हनुमानगढ़ से दिगंबर अखाड़े की जो सड़क थी, उस पर कार सेवकों और सुरक्षा बलों का सीधा संघर्ष था. मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि सीधे निहत्थे कार सेवकों पर गोलियां क्यों चलाई जा रही थी. पानी की बौछार हो सकती थी, प्लास्टिक की गोलियां चलाई जा सकती थी, पर कार सेवकों पर सीधी फायरिंग हुई जो विवादित इमारत से लगभग 2 किलोमीटर दूर था.”
जब मुलायम सिंह ने जताया था अफसोस
अयोध्या में 2 नवंबर को जो कुछ हुआ, उसमें महिलाओं की बेहद सीमित भागीदारी थी. लेकिन उसके अगले दिन अयोध्या ने नारी शक्ति देखी थी. 3 नवंबर को हजारों की संख्या में महिलाएं फैजाबाद के कमिश्नर का घेराव करने पहुंच गई. इस विरोध प्रदर्शन का एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि उस वक्त फैजाबाद के कमिश्नर मधुकर गुप्ता थे, जो विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल के सगे मामा के लड़के थे. 30 अक्टूबर और 2 नवंबर को कार सेवकों की जिस अंदाज में सरकारी हत्या हुई, उसकी पूरे देश में प्रतिक्रिया हुई.
7 दिन बाद ही वीपी सिंह की सरकार गिर गई, उसके बाद कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर ने सरकार बनाई. तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की सरकार अयोध्या विवाद का कोई सर्वमान्य हल निकाल पाती, उससे पहले ही कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया और अयोध्या का मुद्दा पहले की तरह ही अनसुलझा रह गया. हालांकि मुलायम सिंह यादव ने 30 साल बाद एक बयान जारी करके कार सेवकों पर गोली चलाने के लिए अफसोस जाहिर किया, लेकिन तब से सरयू में बहुत पानी बह गया था.