कौन हैं पूर्व फुटबॉल कोच सैयद अब्दुल रहीम? जिनका अजय देवगन ने निभाया किरदार
बॉलीवुड फिल्म ‘मैदान’ (Maidaan) एक महान फुटबॉल कोच सैयद अब्दुल रहीम (Syed Abdul Rahim) की कहानी बयां करने के लिए बनाई गई है. सैयद अब्दुल रहीम को 1960 के दशक में भारतीय फुटबॉल (Indian Football) के उत्थान का श्रेय जाता है.
अमित शर्मा द्वारा निर्देशित इस फिल्म में अजय देवगन (Ajay Devgn) ने अब्दुल रहीम का किरदार निभाया है. अब्दुल रहीम ने 1950 से 1963 तक यानी लगभग एक दशक से अधिक समय तक भारतीय फुटबॉल टीम के कोच के रूप में अपनी सेवाएं दीं. इस दौरान, जिसे ‘भारतीय फुटबॉल का स्वर्ण युग’ माना जाता है, देश ने 1951 और 1962 में एशियाई खेलों में दो स्वर्ण पदक हासिल किए.
भारतीय फुटबॉल और आज इसकी स्थिति के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता है. लेकिन, जो बात निर्विवाद है वह फुटबॉल का समृद्ध इतिहास है जो इस देश में हमेशा मौजूद रहा है. भारतीय फुटबॉल के सबसे बड़े, लेकिन कम सराहे गए नामों में से एक नाम कोई और नहीं बल्कि अब्दुल रहीम का है. खैर, ऐसा लगता है जैसे दिग्गज कोच को अब उनका बहुप्रतीक्षित सम्मान ‘मैदान’ की रिलीज के साथ मिल गया है. अगर आप भी भारतीय फुटबॉल के दिग्गज अब्दुल रहीम के बारे में अधिक जानना चाहते हैं, तो आइए हमारे साथ पुरानी यादों की पगडंडियों पर विचरते हैं…
कौन हैं सैयद अब्दुल रहीम?
सैयद अब्दुल रहीम का जन्म 17 अगस्त, 1909 को हैदराबाद में हुआ था. उन्हें प्यार से रहीम साहब कहा जाता था. उन्होंने बड़े होकर कई कॉलेजों की फुटबॉल टीमों का प्रतिनिधित्व किया. शुरुआत में वह काचीगुडा मिडिल स्कूल, उर्दू शरीफ स्कूल, दारुल-उल-उलूम हाई स्कूल और चदरघाट हाई स्कूल जैसे कई संस्थानों में शिक्षक बने. रहीम का कोचिंग से परिचय 1943 में हुआ जब उन्होंने हैदराबाद फुटबॉल एसोसिएशन की कमान संभाली. वे अपनी मृत्यु तक इस पद पर वे बने रहे. रहीम ने 11 जून 1963 को 53 वर्ष की आयु में अंतिम सांस ली.
अब्दुल रहीम 1950 में हैदराबाद पुलिस के कोच बने. उनके मार्गदर्शन में टीम ने रोवर्स कप में लगातार पांच बार जीत हासिल की और चार बार डूरंड कप जीता. लेकिन, उनका और भारतीय फुटबॉल का चरम 1950 के बाद से भारतीय फुटबॉल टीम को प्रशिक्षित करने में बिताए गए 13 वर्षों में पहुंचा. इस अवधि को ‘भारतीय फुटबॉल का स्वर्ण युग’ माना जाता है.
भारतीय फुटबॉल के ऑर्किटेक्टभारतीय फुटबॉल के ऑर्किटेक्ट माने जाने वाले अब्दुल रहीम 1950-1963 तक भारतीय फुटबॉल के कोच थे. यह उनकी देखरेख और उनकी उस समय की उन्नत रणनीतियों का कमाल था कि भारतीय फुटबॉल टीम 1956 मेलबर्न ओलंपिक फुटबॉल के सेमीफाइनल में पहुंची. भारतीय टीम उस प्रतिष्ठित मील के पत्थर तक पहुंचने वाली पहली एशियाई टीम बनी थी. 1950 फीफा विश्व कप में भाग लेने से इनकार करने के बाद, भारत ने 1951 के एशियाई खेलों में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की उपस्थिति में दिल्ली में खचाखच भरे घरेलू दर्शकों के सामने मजबूत ईरानी टीम को 1-0 से हराकर स्वर्ण पदक जीता. एशियाई फुटबॉल जगत में शीर्ष तक की यह यात्रा रहीम साहब की दूरदर्शिता और दृष्टिकोण के कारण संभव हो सकी, जिन्होंने फुटबॉल की ‘वन-टच’ शैली का सहारा लेने के साथ-साथ कमजोर पैरों की मदद के लिए प्रशिक्षण पर ध्यान देने पर जोर दिया गया था.
चुना 4-2-4 का फार्मेटलेकिन, उनकी प्रतिभा का सबसे बड़ा क्षण तब आया जब क्रांतिकारी कोच ने 4-2-4 प्रणाली को चुना. यह एक ऐसा फार्मेट था जिसे 1958 और 1962 के विश्व कप में ब्राजीलियाई टीम द्वारा बहुत लोकप्रिय बनाया गया. रहीम साहब का भारतीय फुटबॉल में योगदान खेल से संन्यास लेने के बाद भी नहीं रुका. ऐसे खिलाड़ियों को विकसित करने और पोषित करने का उनका इरादा और जुनून, जो भारतीय फुटबॉल को आगे ले जाने में मदद करने के लिए और भी बेहतर कोच बन सकें, उनकी विशेषता थी.
अब्दुल रहीम को 1955 में इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक साक्षात्कार में यह कहते हुए उद्धृत किया गया था, “सबसे पहले, हमें निर्माताओं या प्रशिक्षकों का निर्माण या प्रशिक्षण करना चाहिए.” उन्होंने कहा था, “मौजूदा फुटबॉलरों के प्रशिक्षण के लिए कोई भी अल्पकालिक योजना या फुटबॉलरों को प्रशिक्षण के लिए विदेश भेजने की कोई भी योजना खेल के लिए स्थायी रूप से अच्छा करेगी.”
अखिल भारतीय फुटबॉल फेडरेशन ( एआईएफएफ) के लिए देश भर में प्रतिभाओं की खोज और विकास में मदद करने के लिए कोचों का एक नेटवर्क विकसित करने का उनका सपना एक सपना ही बना हुआ है. उन लोगों के लिए जो भारतीय फुटबॉल के समृद्ध इतिहास से अवगत होना चाहते हैं, मैदान फिल्म उसी की एक छोटी सी झलक दिखलाने करने का वादा करती है.