अयोध्या गोलीकांड के बाद कमिश्नर को अफसरों की बीवियों ने क्यों दौड़ा लिया?

30 अक्टूबर 1992 को अयोध्या डर, आशंका और अनिश्चितता में डूबी थी. चारों तरफ अर्धसैनिक बलों के बूट खनक रहे थे. सीमाएं सील थीं. तत्कालीन सीएम मुलायम सिंह यादव ने ऐलान कर रखा था कि अयोध्या में परिंदा भी पर नहीं मार सकता है. फिर भी कारसेवक वहां कुछ भी करके पहुंचने पर आमादा थे.वो भी किस कदर और उसमें पुलिस के जवान भी कैसे उनकी छिपी मदद कर रहे थे, उसका एक किस्सा आपको सुनाते हैं. किस्सा सुनाने से पहले आपको बता दें कि अयोध्या आंदोलन से जुड़े ये रोचक किस्से हम ला रहे हैं एक खास किताब से जिसका नाम है ‘युद्ध में अयोध्या’. किताब के लेखक हैं टीवी9 नेटवर्क के न्यूज डायरेक्टर हेमंत शर्मा.

वापस किस्से पर लौटते हैं. अयोध्या से पहले सोहावल पड़ता है. यहां राष्ट्रीय राजमार्ग मुलायम सरकार ने बंद कर रखा था. कारसेवक उधर से आ रहे थे तो पुलिस ने उन्हें रोका. कारसेवकों ने मिन्नतें कीं, धर्म-कर्म का हवाला दिया. पर दरोगाजी टस-से-मस नहीं हुए. कहा,

तभी दरोगाजी का रुख अचानक बदला, बोले- “पर मैं सड़कों से उतरकर खेत में से जाने से तो मना नहीं कर रहा हूं.” कारसेवक समझ चुके थे…

खैर, अयोध्या में दाखिल होते कारसेवकों को इसका जरा भी आभास नहीं था कि आगे क्या होने वाला है. सभी बड़े नेता अयोध्या पहुंचने से पहले गिरफ्तार कर लिए गए थे. अटल बिहारी वाजपेयी को लखनऊ हवाई अड्डे पर गिरफ्तार कर लिया गया. लालकृष्ण आडवाणी पहले ही बिहार में गिरफ्तार हो चुके थे. कारसेवा आंदोलन के मुख्य किरदार अशोक सिंघल और श्रीशचंद्र दीक्षित पुलिस के हाथ नहीं चढ़े थे. गोपनीय ढंग से दोनों अयोध्या पहुंच ही गए.

फिर बनी रणनीति

29 अक्तूबर की रात चार धाम मंदिर में कारसेवा की रणनीति बनी. तय हुआ, कारसेवकों के तीन जत्थे बनेंगे. एक का नेतृत्व अशोक सिंघल, दूसरे का श्रीशचंद्र दीक्षित और तीसरे का विनय कटियार करेंगे. 30 अक्टूबर को सब प्लान के मुताबिक शुरू हुआ. देखते-देखते कारसेवकों और पुलिस में संघर्ष, लाठीचार्ज और गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया. अशोक सिंघल भी लाठीचार्ज के शिकार हुए. गिरफ्तार कर लिए गए. मगर संघर्ष यहीं नहीं खत्म हुआ. कुछ साधू तो पुलिस की गाड़ी ही लेकर विवादित ढांचे के पास बैरिकेडिंग तोड़ते हुए गुंबद के करीब पहुंच गए. तोड़फोड़ भी शुरू कर दी. विवादित ढांचे को नुकसान पहुंचा. पुलिस ने कारसेवकों को रोकने के लिए गोली भी चलाई. पर असली खून-खराबा तो 2 नवंबर को होना था. जिस दिन लोग मरने-मारने पर उतारू होने वाले थे.

खीझ और हताशा में था प्रशासन

30 अक्तूबर को कारसेवा की कामयाबी से प्रशासन में खीझ और हताशा तो पहले से ही थी. सुबह-सुबह ही मणिरामदास छावनी, दिगंबर अखाड़े और सरयू की तरफ से कारसेवकों का हुजूम निकला. पुलिस ने तीनों तरफ से आती भीड़ को हनुमानगढ़ी चौराहे पर रोकने की कोशिश की. भीड़ नहीं मानी तो अंधाधुंध गोली चलने लगी. एसएसपी सुभाष जोशी का कहना था, गोली के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं था. नहीं तो कारेसवक हमें कुचल डालते और ढांचे को तोड़ देते. गोलीकांड के बाद अयोध्या की सड़कें, मंदिर और छावनियां कारसेवकों के खून से सन गईं. अर्धसैनिक बलों की अंधाधुंध फायरिंग से अनगिनत लोग मारे गए. ढेर सारे घायल हुए.

आम लोग और अफसरों की पत्नियां उतरीं विरोध में!

किताब के मुताबिक, इस फायरिंग के खिलाफ फैजाबाद के आम नागरिक सड़क पर उतर आए. देर रात कोई डेढ़ हजार लोगों ने कमिश्नर मधुकर गुप्ता की कोठी को घेर लिया. इनमें आगे-आगे बच्चे और महिलाएं थीं. यह भीड़ कमिश्नर के घर में घुस गई. भीड़ पूछ रही थी, कारसेवकों पर गोली क्यों चलाई? उनका कसूर क्या था? बड़ी मिन्नतों के बाद कमिश्नर भीड़ को लौटने के लिए मना पाए. फैजाबाद में तीन नवंबर को तो भारी संख्या में महिलाओं ने कमिश्नर का आवास घेर लिया. ये सारी महिलाएं फैजाबाद के सैन्य और सरकारी अफसरों की पत्नियां थीं. इन महिलाओं ने कमिश्नर को घेरकर पूछा, “निहत्थे कारसेवकों पर गोली क्यों चलवाई?”

एक एडीएम की बीवी ने कहा-

“आप मजिस्ट्रेटों पर दबाव डालकर गोली चलाने के आदेश पर दस्तख्त क्यों करवाते हैं? आपने अगर अब ऐसा किया तो कोई मजिस्ट्रेट दस्तखत नहीं करेगा. जिन कारसेवकों को बातचीत से मनाया जा सकता है, जिन्हें गिरफ्तार सकता है, उन पर गोली चलाने का आदेश ही किसी पर दबाव नहीं डालेंगे.”

सवालों की बौछार से कमिश्नर के पसीने छूट रहे थे. एक अफसर की बीवी ने कहा-“आप मुलायम सिंह के हर मनमाने अलोकतांत्रिक निर्णय का समर्थन क्यों करते हैं ?

कमिश्नर मधुकर गुप्ता बोले- “तो मैं क्या करूं ?”

एक अफसर की पत्नी बोली- “आप उन्हें असलियत बताएं. संतों पर गोली चलाने से मना करें. उनके अवैधानिक निर्देश मानने से इनकार करें.”

कमिश्नर- “यह सरकार का फैसला है, इसमें हमारा कोई दखल नहीं है. हम आपकी भावनाओं को सरकार तक पहुंचा सकते हैं.”

तो एक मजिस्ट्रेट की बीवी बोली, “आप मुख्यमंत्री के हर गलत फैसले का समर्थन कर उन्हें तानाशाह बना रहे हैं.

कमिश्नर मधुकर गुप्ता- “वे बसों को तोड़ रहे थे. पथराव कर रहे थे.”

एक महिला ने जवाब दिया- “बसें तो बाद में बन सकती थीं. पर जिनकी गोदें सूनी हो गई हैं, जिनके सिंदूर उजड़ गए हैं, क्या आप उन्हें वापस ला सकते हैं?”

कमिश्नर के बोल नहीं फूटे. अफसरों की बीवियों ने चिल्ला-चिल्लाकर पूछा-

“लाठियां क्यों नहीं चलाई गईं? मुख्यमंत्री के सिर्फ इस ऐलान से कि कोई परिंदा भी पर नहीं मार सकता, आप लोगों ने चापलूसी में निहत्थे लोगों को गोलियों से भूनना शुरू कर दिया!

सरकारी अफसरों के घर नहीं जले चूल्हे

किताब के मुताबिक, उस रोज फैजाबाद के सरकारी अफसरों के घर चूल्हे नहीं जले, क्योंकि उनकी पत्नियां आयुक्त के यहां बैठी थीं, यह लिखित आश्वासन लेने के लिए कि अब गोली नहीं चलेगी. कमिश्नर के बंगले पर यह हंगामा हो ही रहा था कि छावनी से सेना के अधिकारियों की बीवियों ने जुलूस निकाल लिया. जुलूस पूरे शहर में घूमा. शहर के कॉलेजों के प्रिंसिपल, अध्यापक और वकील इसमें शामिल हो गए और आयुक्त निवास आते-आते इनकी तादाद हजारों में हो गई. जुलूस में महिलाएं और बच्चे हाथ में तख्तियां लिए थे, जिन पर लिखा था, ‘निहत्थे कारसेवकों की हत्या बंद करो.’, ‘जनरल डायर मत बनो.’

बढ़ती उत्तेजना से फैजाबाद-लखनऊ राजमार्ग को रोक दिया गया. क्योंकि कमिश्नर का घर इसी सड़क पर था. कमिश्नर उस रोज फैजाबाद के पिछले दरवाजे से अपना घर छोड़ भाग खड़े हुए.किताब के मुताबिक, कारसेवकों पर चली गोली के गुस्से ने मुलायम सिंह से उन की राजनीतिक जमीन खींच ली. रामभक्तों ने उत्तर प्रदेश की सरकार उलट दी. ध्वंस अभी जमीन पर तो नहीं हुआ, पर जेहन में जरूर हो गया. क्रिया की प्रतिक्रिया इतनी त्वरित और जबरदस्त होगी, किसी ने सोचा भी न था. गोलीकांड के सात दिन बाद ही प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह की सरकार भी चली गई.

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