कामरेड सीताराम येचुरी ने बदला वामपंथ का इतिहास
अभी उनकी कोई उम्र नही थी. मात्र 72 वर्ष की उम्र में कामरेड सीताराम येचुरी को क्रूर काल ने छीन लिया. बहुत कम उम्र में उन्होंने माकपा (CPM) पोलित ब्यूरो की सदस्यता पा ली थी. महज 40 वर्ष की उम्र में यह सदस्यता पाना एक बड़ी उपलब्धि थी. 1992 में प्रकाश करात और सीताराम येचुरी पोलित ब्यूरो में लिए गए थे. उस समय तक सीपीएम में बुजुर्ग नेताओं का दबदबा था. उनके फैसले उनकी परंपरागत सोच के आधार पर होते थे.
यद्यपि पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में उस समय सीपीएम को हराना किसी भी दल के लिए आसान नहीं होता था. लेकिन उस वक्त तक हरिकिशन सिंह सुरजीत के अलावा और कोई भी नेता पार्टी को हिंदी प्रदेशों में बढ़ाने के लिए प्रयासरत नहीं था. न ही ये नेता किसी अन्य क्षेत्रीय दल के साथ गठबंधन को उत्सुक रहते थे.
जब जनसंघ से मंच साझा किया
तब सीपीएम के नेता कांग्रेस और भाजपा से समान दूरी रखते थे. 1964 में भाकपा से अलग हुई माकपा निरंतर कांग्रेस से लड़ रही थी. इसलिए कांग्रेस के साथ उसकी स्वाभाविक दूरी थी. 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में दिखी जब माकपा ने उस जनता पार्टी को सपोर्ट किया, जिसमें भाजपा की पूर्ववर्ती जनसंघ भी हिस्सेदार थी. मगर तब सारे राजनीतिक दल इंदिरा गांधी की इमरजेंसी से आजिज थे और उनको लग रहा था कि यदि एक मंच पर न आए तो भारत से संसदीय लोकतंत्र खत्म हो जाएगा. इसलिए सीपीएम ने जनता पार्टी को समर्थन दिया. उस समय भाकपा को छोड़ कर सभी राजनीतिक दल जनता पार्टी के साथ थे. इसके बाद 1989 में फिर कुछ ऐसा ही प्रयोग हुआ, जब वीपी सिंह ने जन मोर्चा बनाकर राजीव गांधी सरकार से लोहा लिया था.
हिंदी प्रदेशों से वाम का सफाया
वीपी सिंह की अगुआई में जनता दल की जो सरकार बनी उसे भाजपा और माकपा ने बाहर से समर्थन दिया था. उस समय येचुरी पार्टी की सेंट्रल कमेटी में थे. उस समय से ही यह विचार भी चल रहा था कि माकपा का विस्तार हिंदी प्रदेशों में भी किया जाए. उस समय बांदा से राम सजीवन जरूर भाकपा से लोकसभा चुनाव जीते थे. लेकिन इसके बाद वे बसपा में चले गए और 1996 तथा 1999 का चुनाव जीता. कमोबेश यही स्थिति अयोध्या से सांसद रहे मित्रसेन यादव की रही. मित्रसेन यादव 1991 में भाकपा की टिकट पर अयोध्या सीट से लोकसभा का चुनाव जीते. परंतु 1995 में वे सपा में आ गए. 1998 में वे सपा की टिकट पर सांसद बने तथा 2004 में बसपा की टिकट पर इसी सीट से लोकसभा का चुनाव जीते. वे 1991 के पहले चार बार उत्तर प्रदेश विधान सभा के भी सदस्य रहे.
एक-एक कर सारे गढ़ ढहे
इस तरह से वाम दलों के सांसदों का क्षेत्रीय दलों में जाना कम्युनिस्टों की विचारधारा के संकुचित होने का संकेत था. उत्तर भारत के कम्युनिस्ट नेता इस पराभव से हतप्रभ थे. क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश में गाजीपुर, मऊ तथा वाराणसी की कई विधानसभा सीटें तथा लोकसभा में अपने दखल को वे समाप्त कर रहे थे. कानपुर एक बड़ा औद्योगिक शहर था. वहां से कोई मज़दूर नेता ही चुनाव जीता करता था. 1957 से 1977 तक वहां से कामरेड एसएम बनर्जी लोकसभा का चुनाव जीतते रहे. यद्यपि वे निर्दलीय लड़ते, लेकिन भाकपा का सहयोग उन्हें 1957, 1962, 1967 और 1971 में मिला. 1971 में भाकपा का कांग्रेस से समझौता था इसलिए यह सीट भाकपा को मिली. यहां से कांग्रेस ने अपना कोई प्रत्याशी नहीं उतारा. इसके बाद 1989 में सुभाषिनी अली जरूर यहां से जीतीं. वे सीपीएम से थीं किंतु वीपी सिंह के जन मोर्चा के बूते उन्हें विजय हासिल हुई.
1996 की भूल
कम्युनिस्ट नेतृत्व में इस बात को लेकर मंथन तो हो रहा था कि वाम दल समान विचारों वाले सेकुलर दलों के साथ समझौता करें. परंतु केरल की सीपीएम कांग्रेस से समझौता न करने पर अड़ी थी. 1996 में एक ऐसा मौक़ा आया जब लोकसभा में किसी दल को बहुमत नहीं था. सबसे बड़े दल भाजपा ने सरकार तो बनाई मगर अटल बिहारी वाजपेयी की वह सरकार मात्र 13 दिनों में ही गिर गई. ऐसे में कांग्रेस ने जनता दल को बाहर से सपोर्ट करने का फैसला किया. सर्वसम्मति से यह भी निर्णय हुआ कि प्रधानमंत्री पद के लिए ज्योति वसु से आग्रह किया जाए. वे पश्चिम बंगाल में पिछले 19 साल से सरकार चला रहे थे. उस समय सीपीएम पोलित ब्यूरो के नेता प्रकाश करात ने अड़ंगा डाला कि यह ठीक नहीं होगा. यह केरल लॉबी की अड़ंगेबाजी थी. तब सीताराम येचुरी भी प्रकाश करात के साथ थे.
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प्रकाश करात ने ज्योति वसु को PM नहीं बनने दिया
उस समय सीपीएम के इन नए युवा तुर्क (प्रकाश करात और सीताराम येचुरी) का कहना था कि जब तक हम सरकार में लीडिंग पोजिशन में न हों तब तक हमारी पार्टी का प्रधानमंत्री क्या कर लेगा? इस संदर्भ में सीपीएम में अहम भूमिका में रहे दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर अजय तिवारी का कहना है, कि इन लोगों को समझाने की कोशिश की गई कि यदि हमारा प्रधानमंत्री बन गया तो हम अपने एजेंडा को लागू करने में सफल रहेंगे. यदि हमने एक भी बजट पेश कर लिया तो हमारी नीतियों का विस्तार हिंदी प्रदेशों तक भी पहुंचेगा. लेकिन यह प्रयास निष्फल गया. तब सीपीएम के महासचिव हरि किशन सिंह सुरजीत ने संयुक्त मोर्चा के सभी घटक दलों को ज्योति वसु के नाम के लिए राजी कर लिया था. लेकिन प्रकाश करात ने सारे किये कराये पर पानी फेर दिया.
विस्तार का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में
कामरेड अजय तिवारी बताते हैं कि 2004 में सीपीएम के भीतर ये प्रयास भी हुए कि हिंदी प्रदेशों में पार्टी के फैलाव के लिए चार्टर बनाया जाए. इसके लिए दिल्ली में एक सभा हुई. उस समय तक प्रकाश करात पार्टी के महासचिव नहीं बने थे. इसके लिए नित्यानंद तिवारी ने खूब तैयारी की थी. पार्टी महासचिव हरि किशन सिंह सुरजीत पूरी तरह सहमत थे. आख़िरी दिन प्रकाश करात भी उस मीटिंग में आए. सीताराम येचुरी भी उस मीटिंग के फ़ैसलों को हिंदी प्रदेशों के लिए उपयुक्त समझते थे. मगर अगले वर्ष प्रकाश करात सीपीएम के महासचिव बन गए और वह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. केरल लॉबी के उलट सीताराम येचुरी गठबंधन की सरकारों में पार्टी की भागीदारी के समर्थक थे. पार्टी की भाषानीति में हिंदी की बहुलता के पक्ष में भी थे.
न्यूक्लियर डील और CPM की डूबती नैया
2004 में जब मनमोहन सिंह की अगुआई में कांग्रेस के नेतृत्त्व वाली यूपीए सरकार बनी तब सीपीएम ने भी इस सरकार को समर्थन दिया. सीपीएम के सोमनाथ चटर्जी इस लोकसभा में अध्यक्ष हुए. मगर अमेरिका के साथ होने वाली न्यूक्लीयर डील के लिए बिल के आते ही CPM बिफर गई. उस समय सीपीएम की हार्डकोर लॉबी के प्रकाश करात पार्टी के महासचिव थे. उन्होंने सरकार से समर्थन वापस लेने का निर्णय किया. हालांकि सीताराम येचुरी इस बिल का पुनर्पाठ चाहते थे. तब सीताराम येचुरी पश्चिम बंगाल से राज्य सभा में थे. उन्होंने न्यूक्लियर बिल पर कुछ सुझाव दिए. किंतु प्रकाश करात ने स्पष्ट कहा कि सीपीएम की विदेश नीति भिन्न है. इसलिए अमेरिका के साथ न्यूक्लीयर समझौते का वह विरोध करती है. इससे पार्टी में तनातनी बढ़ी. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह संसद का भरोसा पाने में सफल रहे. सोमनाथ दादा ने भी प्रकाश करात की इच्छा के बावजूद लोकसभा अध्यक्ष का पद नहीं छोड़ा.
येचुरी ने पार्टी के विचारों को जीवित रखा
2015 में सीताराम येचुरी सीपीएम के महासचिव चुने गए. विदेश नीति में वे अमेरिका के घोर विरोधी थे. उसी वर्ष रिपब्लिक डे परेड में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को मुख्य अतिथि बनाए जाने का उन्होंने विरोध किया था. सीताराम येचुरी जन नेता तो नहीं थे लेकिन पार्टी की रणनीति बनाने और पार्टी के विस्तार में उनका अहम रोल रहा. वे भाजपा की सांप्रदायिक नीतियों के विरोधी रहे. पार्टी की ख़त्म होती शक्ति के बावजूद वे सीपीएम के विचारों को जीवित रखे थे. इंडिया गठबंधन में सीपीएम की ख़ास भूमिका है. राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच उन्होंने ही पॉलिसी मेकर की भूमिका अदा की थी. कामरेड येचुरी का शुक्रवार को दिल्ली के एम्स में मात्र 72 साल की उम्र में निधन हो गया.
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