500 साल पुरानी मस्जिदें कैसे हो सकती हैं गैर कानूनी? क्या है 1991 का प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट

भारत में आजकल मंदिर-मस्जिद विवाद काफी सुर्खियों में है. अयोध्या में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा के बाद अब काशी की ज्ञानवापी और मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद का मामला चर्चा है. यहां हिंदू पक्ष 500 साल पहले मंदिर होने का दावा कर रहा है. दोनों ही मामले अदालत में पहले से लंबित हैं.

श्री राम जन्मभूमि ट्रस्ट के कोषाध्यक्ष गोविंद देव गिरि महाराज ने कहा है कि अगर मुस्लिम पक्ष ज्ञानवापी और कृष्ण जन्मभूमि हिंदुओं को सौंप देता है तो बाकी सभी स्थलों को भूला दिया जाएगा.

यहां सवाल उठता है कि क्या 500 साल पुरानी मस्जिद गैर कानूनी हो सकती है? क्या कानून आज मस्जिद की जगह मंदिर बनाने की इजाजत देता है? इस स्पेशल स्टोरी में आसान भाषा में समझिए क्या है कानूनी पेंच.

पहले जानिए 1991 का पूजा स्थल अधिनियम

हिंदू पक्ष का दावा है कि 17वीं सदी में मुगल शासक औरंगजेब ने अपने शासनकाल में देशभर के हजारों मंदिर तुड़वाकर वहां मस्जिद बनवा दी थी. लेकिन ये दावा 1991 पूजा स्थल अधिनियम के सामने फीका पड़ जाता है जिसमें कहा गया कि देश के सभी धार्मिक स्थल वैसे ही रहेंगे जैसे आजादी के वक्त 15 अगस्त 1947 को थे.

प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट कहता है कि 15 अगस्त 1947 को जो भी धार्मिक स्थल जिस अस्तित्व में थे, उन्हें उसी रूप में आगे रहना चाहिए. यानी किसी मस्जिद को मंदिर या मंदिर को मस्जिद नहीं बनाया जा सकता है. अगर कोई व्यक्ति धार्मिक स्थल को बदलने की कोशिश करता है तो उसे एक से तीन साल तक की जेल की सजा हो सकती है.

1991 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की कांग्रेस सरकार ने पूजा स्थल अधिनियम बनाया था. राम मंदिर आंदोलन उस वक्त अपने चरम पर था. इसलिए धार्मिक स्थलों पर विवाद और झगड़ों को रोकने के लिए कानून लाया गया था.

हालांकि अयोध्या का बाबरी मस्जिद-राम मंदिर विवाद उस वक्त अदालत में था इसलिए उसे इस कानून से बाहर रखा गया था. ये कानून ज्ञानवापी और मथुरा की शाही ईदगाह मस्जिद समेत सभी धर्मस्थलों पर लागू होता है.

जब धार्मिक स्थल पर दावा नहीं कर सकते तो अदालत में याचिका कैसे?

अयोध्या मामले का फैसला आने के बाद देशभर के सैकड़ों धार्मिक स्थलों पर मंदिर को लेकर दावेदारी की जा रही है. लेकिन 1991 के पूजा स्थल अधिनियम के चलते सभी स्थानों पर कोर्ट में दावा नहीं किया जा सकता है.

ऐसे में सवाल उठता है कि जब हिंदू किसी दूसरे धार्मिक स्थल पर अपनी दावेदारी को लेकर याचिका दायर नहीं कर सकते हैं तो काशी का ज्ञानवापी और मथुरा का मामला कोर्ट कैसे पहुंचा. इसपर हिंदू पक्ष का कहना है कि ये याचिका किसी धार्मिक स्थल पर कब्जा करने के लिए नहीं है बल्कि उस जगह पर सर्वे करने और हिंदुओं को पूजा करने की अनुमति की मांग के लिए है.

अयोध्या पर फैसला आने के बाद मथुरा कोर्ट में एक याचिका दायर कर 17वीं सदी की ईदगाह मस्जिद को हटाने की मांग की गई थी. हालांकि ये याचिका कोर्ट ने खारिज कर दी थी. दावा किया जाता है कि शाही ईदगाह मस्जिद के नीचे ही वो जगह है जहां भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था.

फिर ज्ञानवापी के तहखाने में पूजा की कैसे मिली छूट?

इसी साल 31 जनवरी को वाराणसी की एक अदालत ने ज्ञानवापी परिसर में व्यासजी के तहखाने में हिंदुओं को पूजा करने की इजाजत दी है. एआईएमआईएम चीफ असदुद्दीन ओवैसी ने कोर्ट के इस फैसले को ‘प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991’ का खुला उल्लंघन बताया है.

मस्जिद पक्ष ने व्यासजी के तहखाने में पूजा करने के फैसले के खिलाफ इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी है. उन्होंने इसे एक पक्षीय फैसला बताते हुए तर्क दिया है कि दिसंबर 1993 से जब से यूपी सरकार ने व्यासजी के तहखाने में पूजा बंद कराई है, उसके बाद से वादी ने अर्जी दाखिल क्यों नहीं की. 31 साल बाद 2023 में वाद क्यों दायर किया गया. इतने साल तक वादी क्यों चुप रहा.

30 साल बाद पूजा स्थल कानून पर क्यों उठे सवाल?

ऐसा नहीं है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट का कभी विरोध नहीं किया गया. जुलाई 1991 में जब कानून लाया जा रहा था तब संसद में बीजेपी ने इसका पुरजोर विरोध किया था. उस वक्त लोकसभा में उमा भारती और राज्यसभा में अरुण जेटली ने मामले को संयुक्त संसदीय समिति के पास भेजने की मांग की थी. हालांकि कानून फिर भी लागू करा दिया गया.

इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाओं के जरिए प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट के खिलाफ इस आधार पर चुनौती दी गई है कि ये कानून न्याय मांगने के बुनियादी सिद्धांत का उल्लंघन करता है. लेकिन सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि यह कानून किसी धार्मिक स्थल का वास्तविक चरित्र जानने पर रोक नहीं लगा सकता है. इसी आधार पर एएसआई ने ज्ञानवापी परिसर का सर्वे किया गया और अब इसी आधार पर मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद का सर्वे भी कराए जाने की मांग हो रही है.

1991 पूजा स्थल अधिनियम खत्म करने की मांग

अब 1991 के प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट को खत्म करने की मांग उठ रही है. कुछ लोगों का मानना है कि प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट भेदभावपूर्ण है और अतीत के गलतियों को सही नहीं करता है. वहीं, कुछ का मानना है कि ये कानून देश में शांति बनाए रखने के लिए जरूरी है.

इस पर सुप्रीम कोर्ट में मामला तो अभी लंबित है ही. वहीं राज्यसभा में अब बीजेपी सांसद ने इस अधिनियम को खत्म करने की मांग उठा दी है. बीजेपी सांसद हरनाथ सिंह यादव का कहना है कि पूजास्थल अधिनियम पूरी तरह से असंवैधानिक है क्योंकि ये कानून हिंदू, जैन, सिख और बौद्धों को संविधान में प्राप्त अधिकारों को कम करता है और उनका हनन करता है.

राज्यसभा सांसद आगे कहा, ‘इस कानून में अयोध्या के राम मंदिर को अलग रखा गया. यह कानून भगवान राम और श्रीकृष्ण के बीच भेदभाव पैदा करता है जबकि दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार हैं. दूसरा कोई भी सरकार किसी नागरिक के लिए न्यायालय के दरवाजे बंद नहीं कर सकती.’

देश में कितने मंदिर-मस्जिदों पर विवाद

सुप्रीम कोर्ट में प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट के खिलाफ याचिका दायर करने वाले अश्विनी उपाध्याय का कहना है कि देश में ऐसे 900 मंदिर हैं जिन्हें 1192 से 1947 के बीच तोड़ा गया और फिर उनकी जमीन पर कब्जा करके वहां मस्जिद या चर्च बना दिया गया. उनका कहना है कि इनमें करीब 100 मंदिर ऐसे हैं जिनका 18 महापुराणों में जिक्र भी हुआ है.

अश्विनी उपाध्याय का तर्क है कि 1991 में बने प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट का आधार 1947 रखा गया, अगर आधार रखना ही था तो 1192 होना चाहिए था.

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