स्टूडेंट लीडर से कैसे वामपंथ की धरोहर बने सीताराम येचुरी… ऐसा था राजनीतिक सफर

वामपंथ देश की राजनीति में अपनी जड़ें फैला रहा था. दौर था 1970 का. इसी बीच ख्याल आया कि क्यों न वामंपथ का भी एक छात्र संगठन होना चाहिए. ये वो दौर था जब प्रकाश हाल यूके से राजनीति विज्ञान में मास्टर्स करके लौटे थे. पहल खास थी, इसीलिए इसे अंजाम तक पहुंचाने के लिए प्रकाश करात को चुना गया. वामपंथ के छात्र संगठन SFI यानी स्टूडेंट फेडरेशन ऑफ इंडिया की स्थापना हुई. इसका सेंटर बना जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू. छात्र संघ चुनाव में अध्यक्ष बने प्रकाश करात, जब संगठन ने उन्हें देशभर में छात्र राजनीति में वामपंथ का दबदबा बढ़ाने की जिम्मेदारी तो इस मशाल को थामा आंध्रप्रदेश से आए एक नौजवान सीताराम येचुरी ने.
वही सीताराम येचुरी जो आगे चलकर वामपंथ को धरोहर बने. 72 साल की उम्र में येचुरी अब अंतिम सांस ले चुके हैं. एम्स में मल्टी ऑर्गन फेल्योर होने की वजह से अब वह हमारे बीच नहीं हैं. सीताराम येचुरी वामपंथ का वो चेहरा थे, जिन्होंने न सिर्फ हरिकिशन सुरजीत की विरासत को आगे बढ़ाया बल्कि डूबते वामपंथ को भी संभाला. छात्र राजनीति से शुरू हुआ उनका ये सफर एक ऐसा अध्याय है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकेगा.
जेएनयू को ‘लाल टापू’ में बदलने वाले
वामपंथ के छात्र संगठन SFI का जेएनयू में शुरुआत से ही दबदबा रहा, जिस वक्त देश में इमरजेंसी लागू हुई. उस वक्त विश्वविद्यालयों में छात्र नेता सक्रिय भूमिका निभा रहे थे. जेपी के आंदोलन के समय जेएनयू में छात्रसंघ की कमान सीताराम येचुरी के पास ही थी. वह तीन बार यहां चुनाव जीते. 1974 में येचुरी SFI में शामिल हुए आपातकाल के दौरान कुछ महीने बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. जेल से रिहा होने के बाद वह जेएनयू छात्रसंघ के अध्यक्ष चुने गए. 1978 में वह SFI के अखिल भारतीय संयुक्त सचिव बने और उसके अगले ही साल फिर अध्यक्ष बने. अपने कार्यकाल के दौरान येचुरी ने जेएनयू में वामपंथ की जड़ें मजबूत कीं.
… जब मिलने आईं इंदिरा गांधी
येचुरी ने छात्र नेता रहते हुए तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी के आवास तक मार्च निकाला. उनके इस्तीफे की मांग की और एक ज्ञापन भी दिया. एक साक्षात्कार के दौरान येचुरी ने खुद इस बात का खुलासा किया था कि जब वह पीएम के आवास तक ज्ञापन चिपकाने के इरादे से पहुंचे, तो उन्हें आवास के अंदर बुलाया गया. जब वह अंदर गए तो देखा कि तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी खुद बातचीत के लिए आई हैं. यहां उन्होंने ज्ञापन में लिखी गईं मांगों को खुद पढ़कर सुनाया था. उनमें एक मांग ये भी थी कि इंदिरा गांधी जेएनयू की कुलाधिपति पद से इस्तीफा दें.
40 साल की आयु में चुने गए पोलित ब्यूरो
छात्र राजनीति की मशाल को थामे आगे बढ़े सीताराम येचुरी का पार्टी में उत्थान तेजी से हुआ. वह 1985 में माकपा के केंद्रीय समिति में चुने गए और महज 40 साल की उम्र में ही 1992 में पोलित ब्यूरो के लिए चुने गए. वह लगातार पार्टी के लिए काम करते रहे. 19 अप्रैल 2015 को विशाखापत्तनम में हुए पार्टी के 21 वें अधिवेशन में उन्हें महासचिव बनाया गया था. उनसे पहले प्रकाश करात यह जिम्मेदारी संभाल रहे थे. ऐसा कहा जाता है कि पोलित ब्यूरो के सामने करात ने ही येचुरी के नाम का प्रस्ताव दिया था.
वामंपथ को डूबने से बचाया
2015 में जब येचुरी को महासचिव बनाया गया उस वक्त वामपंथी राजनीति बहुत बुरे दौर से गुजर रही थी. 2004 में जब लेफ्ट ने यूपीए के साथ गठबंधन किया तो उस समय पार्टी के 43 सांसद थे. बाद में न्यूक्लियर डील को लेकर सीपीआइएम ने सरकार से गठबंधन वापस ले लिया. इससे पार्टी को नुकसान हुआ और 2014 में पार्टी के सांसद सिमट कर महज नौ रह गए थे. येचुरी ने महासचिव बनने के बाद फिर से पार्टी को संभाला. 2019 में वह एनडीए के खिलाफ चुनाव लड़ने के लिए कांग्रेस से गठबंधन भी करना चाहते थे, लेकिन पार्टी के पोलित ब्यूरो में प्रकाश करात ने इस प्रस्ताव का विरोध कर दिया था. 2022 में येचुरी फिर एक बार महासचिव चुने गए और इस बार वह इंडिया गठबंधन में शामिल होकर चुनाव लड़े.
राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे के साथ सीताराम येचुरी.
हरिकिशन सुरजीत की विरासत को संभाला
सीताराम येचुरी को पार्टी के हरिकिशन सुरजीत की विरासत संभालने वाला माना जाता था. दरअसल हरिकिशन सुरजीत ही सीपीआई एम के पहले ऐसे महासचिव थे, जिन्होंने लेफ्ट को केंद्र सरकार को बाहर से समर्थन देने के लिए तैयार कर गठबंधन युग की शुरुआत की थी. 1989 में वीपी सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा और 1996 में युनाइटेड फ्रंट की सरकार को लेफ्ट ने बाहर से समर्थन किया था. जब 2004 में फिर ऐसा मौका आया तो उस वक्त सुरजीत की विरासत को आगे बढ़ाते हुए येचुरी ने ही पी चिदंबरम के साथ यूपीए के गठन में अहम भूमिका निभाई थी. हालांकि 2008 में लेफ्ट ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया था. यह मतभेद न्यूक्लियर डील को लेकर हुए थे.
12 साल रहे राज्यसभा सदस्य, यूपीए से हटने के फैसले को बताया था गलत
सीताराम येचुरी एक सशक्त राजनेता होने के साथ-साथ कुशल वक्ता भी थे. संसद में वह अपने भाषणों के लिए जाने जाते थे. उन्हें हिंदी, अंग्रेजी, तमिल ही नहीं बल्कि तेलुगू, बांग्ला और मलयालम भाषा की भी समझ थी. वह संसद में भाषणों के दौरान हिंदू पौराणिक कथाओं का भी उल्लेख करते थे. खास तौर से भाजपा के खिलाफ भाषणों में वह हिंदू पौराणिक ग्रंथों का उल्लेख कर अपनी बात रखते थे. वह 2005 में पहली बार राज्यसभा पहुंचे थे और 2017 तक लगातार वहां रहे. जब 2015 में वह सीपीआईएम के महासचिव चुने गए थे तब उन्होंने 2008 में यूपीए से समर्थन वापस लेने के फैसले को गलत बताया था. उन्होंने पीटीआई से बातचीत में कहा था कि न्यूक्लियर डील की बजाय हमें महंगाई जैसे मुद्दे पर समर्थन वापस लेना चाहिए था.

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