21 दिसंबर को मैं अपने ऑफिस में रोज की तरह काम कर रही थी…तभी न्यूज चैनल्स पर अचानक बड़ी-बड़ी ब्रेकिंग न्यूज चलने लगी…ये ब्रेकिंग न्यूज थी पुंछ में 4 जवानों की शहादत की. ये जवान पुंछ के सूरनकोट में सर्च ऑपरेशन के लिए जा रहे थे तभी उन पर ये हमला हुआ. टीवी पर ये न्यूज देखते ही मेरी आंखों के सामने उस इलाके की एक-एक तस्वीर किसी फिल्म की तरह चलने लगी. सूरनकोट के जिस डेरा की गली में ये हमला हुआ, वो बेहद खूबसूरत और शांत इलाका है. 3 साल पहले डेरा की गली के खूबसूरत कॉटेज में बैठकर मैंने खाना खाया था और वहां की खूबसूरत पहाड़ियों के सामने कई तस्वीरें खिंचवाई थीं जो आज भी मेरे मोबाइल में हैं.
पुंछ पहाड़ों के बीच बसा एक ऐसा शहर है, जहां के लोग मेरे लिए अनजान होते हुए अपने से हैं. मुझे आज भी अपना वो पहला ट्रिप याद है जब पुंछ के एक-एक इलाके में बिंदास बिना किसी डर के घूम रही थी, वहां मुझे कई ऐसे लोग मिले, मैं न तो उनका नाम जानती थी और न ही उनका धर्म, बस इतना कहा दिल्ली से आई हूं पत्रकार हूं, उन लोगों ने मुझे अपने घर में बैठाकर खाना खिलाया. मेरी मेहमानबाजी करने वाले हिंदू, मुसलमान और सेना के जवान सब थे. उस शहर के लोगों का अपनापन ही है कि मैं तीन बार वहां जा चुकी हूं. आज भी मेरे रिश्तेदारों से ज्यादा वहां के लोगों के फोन आते हैं, वहां रहकर कभी महसूस ही नहीं हुआ कि कभी वहां आतंकवाद का राज था, लेकिन एक बार फिर वहां आतंक दस्तक दे रहा है, लगातार उस इलाके से आतंकी गतिविधियों की खबरें आ रही हैं, कुछ लोग इस इलाके में फिर से अशांति फैलाने की कोशिश कर रहे हैं.
आज अमन चैन से तालीम हासिल कर रहे हैं बच्चे
पिछले साल भी मुझे पुंछ जाने का मौका मिला. खूबसूरत पहाड़ियों के बीच बसा ये इलाका किसी जन्नत से कम नहीं, शायद इसीलिए इसे मिनी कश्मीर कहते हैं. एक साल पहले मैं पुंछ के हिलकाका की खूबसूरत पहाड़ियों पर बसे एक स्कूल में गई. पहाड़ पर बने इस स्कूल तक पहुंचने में मेरी सांस फूलने लगी. बड़ी मुश्किल से गहरी सांसें लेते हुए मैं एक क्लास रूम में दाखिल हुई तो देखा जमीन पर बिछी नीले रंग की दरी पर कुछ बच्चे बैठकर पढ़ाई कर रहे थे, क्लास रूम की दीवारें भी बदरंग थीं, जगह-जगह से सफेद पेंट उखड़ा हुआ था और सीमेंट की दीवारें बाहर झांक रही थीं जैसे ही बच्चों ने मुझे देखा वो खड़े हो गए. मैं क्लास रूम से ये सोचकर निकलने लगी कि उनकी पढ़ाई ना डिस्टर्ब हो लेकिन उनकी टीचर ने मुझे रोक लिया और कहने लगीं- आप रुकिए इन बच्चों ने आपके लिए कुछ प्रोग्राम तैयार किया हैं. मैं वहां बैठ गई, मेरे सामने एक 8 साल का बच्चा था जो गाना गा रहा था- ‘अपना जीना.. अपना मरना अब इसी चौखट पर है..’ इस गाने की चंद लाइनें इस शहर की कहानी बयां करती हैं.
पहाड़ों पर बसे इस छोटे से स्कूल को देखकर मुझे हैरानी हुई. टूटी हुई इस इमारत की एक मंजिल पर बच्चे अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ रहे हैं तो वहीं दूसरी मंजिल पर मदरसा चलता है. एक इमारत की दो मंजिलों के बीच का फासला इतना बड़ा था, इसका एहसास मुझे तब हुआ जब मैने बच्चों से बात की एक तरफ बच्चे बॉलीवुड के गानों पर थिरक रहे थे, शाहरुख और सलमान की बातें कर रहे थे तो वहीं दूसरी मंजिल पर बच्चे फिल्मों से अनजान थे. उनको किसी गाने का ज्ञान था ना किसी हीरो का नाम जानते थे. ये बच्चे क्रिकेट तो खेलते हैं लेकिन विराट कोहली, धोनी कौन हैं वो नहीं जानते.
इस मदरसे में ज्यादातर यतीम बच्चे थे, जिनका इस दुनिया में कोई नहीं है. ये मदरसा ही उनकी दुनिया है. पुंछ के बाहर ये कहीं गए ही नहीं, इनकी सुबह, दोपहर, शाम और रात यहीं होती है. राजौरी में बसे हिलकाका के स्कूल के बच्चों की कहानी जानी तो पता चला कैसे इस इलाके ने आतंक का दंश झेला है. आज भले ये बच्चे सुविधाओं के आभाव में तालीम हासिल कर रहे हैं, लेकिन एक दौर ऐसा था कि यहां के लोगों के लिए जिंदगी बचाना भी बेहद मुश्किल था.
एक बार फिर जब जवानों के शहादत की खबरें आ रही हैं तो मैंने वहां के लोगों से जानने की कोशिश की आखिर अभी वहां का कैसा माहौल है और लोगों ने 20 सालों में कैसे इस शहर को बदलते हुए देखा है-हिलकाका के उस स्कूल के मैनेजर मोहम्मद कासिम से वहां के मौजूदा हालात और पुराने वक्त के बारे में जानने के लिए टीवी 9 डिजिटल ने बात की. साल 2000 के हालात का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया-
‘हिलकाका आतंक से बहुत प्रभावित था, जिसका असर यहां की आवाम पर पड़ा, यहां न रोजगार था न तालीम. ये इलाका आतंकवाद का गढ़ बन गया था. इस इलाके के लोग डर के साए में जी रहे थे. कारगिल वॉर के बाद पीर पंजाल के पहाड़ों पर पाकिस्तानी आतंकियों ने घने जंगलों का फायदा उठाकर इन इलाकों को अपना ठिकाना बना लिया था, उनका इरादा पूरे कश्मीर में आतंक फैलाने का था.’ वो लोकल लोगों को डराकर उनके घरों में भी आ जाते थे.’
2002 में एक ऐसी घटना घटी कि सबकुछ बदल गया. आतंकियों ने हिलकाका के एक गुर्जर लड़के की हत्या कर दी जिसके बाद इलाके लोग उनके खिलाफ हो गए और आतंकियों के खिलाफ ऐसा माहौल बना कि महिलाएं भी उनका सर्वनाश करने लिए ऑपरेशन सर्प विनाश में शामिल हो गईं.’ ऑपरेशन सर्प विनाश में सेना ने स्थानीय लोगों की मदद से इस इलाके से आतंकवादियों का सफाया कर दिया था जिसके बाद से ये इलाका आतंक से मुक्त है.
गुर्जर लड़के की हत्या से हिल गया हिलकाका
10 जून 2002 में हिलकाका के मडा गांव में आरिफ मोहम्मद नाम के एक शख्स की हत्या ने पूरे कश्मीर को हिलाकर रख दिया. आरिफ की हत्या के बाद यहां के लोगों ने आतंकियों के खिलाफ हथियार उठा लिए. 21 साल पहले हुई इस घटना को याद कर आरिफ के भाई ताहिर फजल की आंखें नम हो जाती हैं. ताहिर कहते हैं- मेरा छोटा भाई आरिफ मोहम्मद सऊदी अरब में काम करता था वो 6 महीने की छुट्टी पर पुंछ के मडा गांव में परिवार के पास गया था. गांव में उसने कुछ संदिग्ध लोगों को देखा. शुरू में हमें वो लोग सही लगे, लेकिन बाद में उन्होंने कुछ ऐसी हरकतें कीं जो हमें पसंद नहीं आई. वो गांव की औरतों के साथ बदसलूकी करते थे, मेरे भाई को वो चीजें सहीं नहीं लगी. मेरा भाई हिलकाका में लश्कर के कमांडर के पास गया और महिलाओं से बदसूलकी की शिकायत की, उसकी शिकायत पर उन लोगों ने अपने उस साथी को पिटाई कर बाहर भेज दिया.’
10 जून 2002 को आतंकियों ने किया आरिफ का कत्ल
ताहिर आगे बताते हैं- ‘उस घटना के कुछ दिन बाद उन लोगों ने मेरे भाई को इस्लाम पर बहस करने के लिए एक जगह पर बुलाया. उन लोगों के साथ बातचीत में मेरे भाई ने सूरनकोट के एक मंदिर में दो कश्मीरी पंडितों की हुई हत्या पर आपत्ति जताई, उसने उन लोगों से कहा था इस्लाम में कहां लिखा है किसी हिंदू की हत्या करो, आप लोग ये गलत काम क्यों करते हो, इस्लाम में ये सब जायज नहीं है. उन लोगों के बीच बहस इतनी बढ़ गई वो लोग गुस्से में मेरे भाई को मारने लगे, उसकी लाठी डंडों से पिटाई की, उसको इतना मारा कि उसकी जान चली गई. मेरा भाई प्यास से तड़प रहा था, लेकिन जालिमों ने उसे पानी तक नहीं दिया. उसको इतना मारा कि उसके शरीर की कई हड्डियां टूट गईं.’
आरिफ की जब हत्या हुई तब ताहिर सऊदी अरब में थे, अपने छोटे भाई की हत्या की खबर सुनकर वो अपने गांव लौट आए. ताहिर जून 2002 की उस घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं-
‘मेरे भाई की मौत की खबर मिली तो मैंने भी हथियार उठाने का फैसला किया, मैं सऊदी से अपने गांव लौट आया और गांव के कुछ साथियों के साथ मिलकर आतंकवादियों के खिलाफ लड़ने का फैसला किया. हम लोगों ने आर्मी के साथ मिलकर लोकल आतंकियों से बात की. उनको समझाया कि पाकिस्तानी आतंकवादी उनका फायदा उठा रहे हैं वो हमारी बात मान गए. वो लोग उनके साथ कम करते हुए हमें उनकी खबरें देने लगे.’ ताहिर ने अपने साथियों के साथ मिलकर कासिम नाम के एक आतंकवादी को मार गिराया, वो बताते हैं- मैंने अपने भाई के कातिल को खुद जाकर मारा.
ऑपरेशन सर्प विनाश से हुआ आतंक का अंत
इस घटना के बाद सेना ने स्थानीय लोगों के साथ मिलकर ऑपरेशन सर्प विनाश चलाया और इस इलाके को आंतकियों से मुक्त कराया. 2003 के बाद इस इलाके के लोग अमन के साथ रह रहे हैं. सूरनकोट में रहने वाले सोशल एक्टिविस्ट आरिफ काजमी यहीं पैदा हुए और जिंदगी के कई साल यहीं गुजार दिए, उन्होंने 2000 का दौर भी देखा और आज का भी दौर देख रहे हैं. वो बताते हैं कि दुनिया के कई देश घूमने के बाद भी हिंदू और मुस्लिम के बीच जो भाईचारा इस इलाके में देखा वो कहीं नहीं देखा.
‘सूरनकोट के लोग शांति चाहते हैं, आज जो घटनाएं हो रही हैं, उससे हमारे भाईचारे पर कोई असर नहीं पड़ेगा. कुछ लोग एक दो घटनाओं का फायदा उठाकर हमें भड़काने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन इससे कुछ नहीं होने वाला है. हमने 2000 का दौर देखा है, इसी इलाके में हम लोग आधे घंटे भी घर से बाहर नहीं निकल पाते थे, यहां आतंकवाद का राज था, लेकिन यहां की आवाम ने सेना के साथ मिलकर आतंक को कुचल दिया और हम लोग आज अमन चैन से यहां रह रहे हैं. आज की तारीख में हम इतने महफूज हैं कि रात को 2 बजे भी बिना डर के सड़क पर घूम सकते हैं.
सूरनकोट के सोशल एक्टिविस्ट आरिफ काजमी
कभी लोगों के घरों पर पत्थर फेंकते थे आतंकवादी
राजौरी जिले के दराबा की रहने वाली सुनीता की उम्र 75 साल है. उन्होंने जिंदगी के 75 साल इसी शहर में गुजार दिए उन्होंने वो दौर भी देखा जब घर से बाहर निकलने की कल्पना भी नहीं कर सकती थीं. आतंकवादियों ने बहुत कोशिश की उनको इस शहर से भगाने की, लेकिन उन्होंने अपना शहर नहीं छोड़ा. उस दौर को याद करते हुए सुनीता बताती हैं- हमारे मुहल्ले में हिंदू और मुसलमान एक साथ मिलकर रहते थे.कभी हमें लगा ही नहीं कि वो दूसरे धर्म के लोग हैं, लेकिन ये बात कुछ लोगों को पसंद नहीं थी. वो ऐसा दौर था, जब आतंकवादी खुलेआम घूमते थे. हमारे घरों पर पत्थर फेंके जाते थे, हमें वो लोग धमकाते थे कि ये शहर छोड़कर चले जाओ नहीं तो मारे जाओगे. वो लोग हिंदुओं को तो धमकी देते ही थे, लेकिन मुस्लिमों को भी इस बात के लिए धमकाते थे कि वो लोग हमसे क्यों बात करते हैं.
दराबा के ही प्रोफेसर कुरैशी 85 साल के हैं और उनकी तमाम उम्र यहीं गुजरी. आज वो अमन चैन से अपने घर में रहते हैं और गरीब बच्चों के लिए एक स्कूल चलाते हैं, लेकिन उन्होंने वो दौर भी देखा है जब इस इलाके में आतंकियों का राज था. कुरैशी बताते हैं- वो ऐसा वक्त था, जब हर रोज हमारे इलाके में जनाजा निकलता था. मैं हर रात ये सोचकर सोता था कि आज की रात शायद मेरे लिए आखिरी रात होगी. हमें हर पल ये डर सताता था कि कब आतंकवादी हमारा कत्ल कर दें. हम अपने मुहल्ले के हिंदू भाईयों से बात तक नहीं कर सकते थे, वो लोग हमें इस बात के लिए धमकाते थे कि अगर किसी हिंदू से संबंध रखा तो मार दिए जाओगे. उस दौर में इंडियन आर्मी ने हमारी मदद की और इस इलाके से आतंक का सफाया किया जिससे आज हम जिंदा हैं.
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पिछले 2 सालों में इस इलाके में आतंकी घटनाएं भले ही बढ़ी हैं, लेकिन यहां के स्थानीय लोगों को भरोसा है, कि उनकी जिंदगी पर इससे कोई असर नहीं पड़ेगा और यहां की आवाम वैसे ही अमन चैन के साथ रहेगी, जैसे सालों से रह रहे हैं.