धरती पर सूर्य की किरणें पहुंचने से रोक रहे धूल के कण, ग्लेशियरों-तापमान को खतरा; एक्सपर्ट ने बताया यह होगा नुकसान
हवा में फैल रहे धूल के कण (ऐरोसोल) सूर्य की किरणों को सीधे पृथ्वी पर पहुंचने से रोक रहे हैं। किरणों के भटकने से वायुमंडल का तापमान बढ़ रहा है। इसका असर जलवायु के चक्र पर पड़ रहा है और ग्लेशियरों के खतरे में पड़ने की आशंका भी बढ़ गई है।
जीबी पंत राष्ट्रीय हिमालयी पर्यावरण संस्थान समेत देश के दस संस्थानों के अध्ययन में ये तथ्य सामने आए हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक मानवजनित कारणों से ये खतरा सबसे ज्यादा बढ़ा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक वायुमंडल में धूल तो लंबे समय से घुल रही है लेकिन अब उसकी गति बढ़ी है। 2001 से 2015 तक के आंकड़ों का अध्ययन किया है।
अध्ययन में शामिल वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. जेसी कुनियाल कहते हैं कि जब सूर्य की किरणें लंबवत होती हैं तो पृथ्वी की सतह को भरपूर ऊर्जा प्राप्त होती है। लेकिन धूल, जल वाष्प, बादल और प्रदूषण जैसी चीजें जब रास्ते में आती हैं तो किरणें तिरछी हो जाती हैं और वायुमंडल में अधिक देर तक यात्रा करती हैं। इससे वायुमंडल तेजी से गर्म होता है।
मानवजनित कारणों से बढ़ा ज्यादा खतरा
ऐरोसोल के बढ़ने में मानवजनित और प्राकृतिक दोनों कारण सामने आए हैं। मानवजनित कारणों से अधिक खतरा बढ़ा है। बढ़ती वाहनों की संख्या बड़ी वजह है। बायोमास जलाने और जीवाश्म ईंधन के अधूरे दहन से भी हवा में धूल के कणों की मात्रा बढ़ रही है। प्राकृतिक कारणों में खनिज धूल का उड़ना, ज्वालामुखी विस्फोट और जंगल की आग मुख्य हैं।
दक्षिण भारत के मुकाबले उत्तर में अधिक मात्रा
ऐरोसोल की मात्रा दक्षिण भारत की अपेक्षा उत्तर भारत के क्षेत्रों में अधिक आंकी गई है। खासकर राजस्थान व गुजरात के क्षेत्रों में वायुमंडल में ऐरोसोल अधिक मात्रा में मिली है। केरल, कर्नाटक व तमिलनाडु के क्षेत्रों में ऐरोसोल की मात्रा कम पाई गई है।
शोध में शामिल संस्थान
जयपुर स्थित जलवायु परिवर्तन और अनुसंधान केंद्र व सतत विकास केंद्र, शिमला का उच्च शिक्षा निदेशालय, जापान स्थित वैश्विक पर्यावरण रणनीतियां संस्थान, जम्मू व कश्मीर के पारिस्थितिकी आदि संस्थानों ने अध्ययन किया।
ऐरोसोल के पर्यावरण पर प्रभाव का अध्ययन किया। हमने पाया कि हवा में धूल के कणों की मात्रा बढ़ने से वायुमंडल के तापमान में वृद्धि हो रही है। इससे ऊंचाई पर स्थित ग्लेशियरों के लिए खतरा पनप सकता है।
डॉ. जे.सी. कुनियाल, वैज्ञानिक जी.बी. पंत संस्थान