उत्पीड़न, बलात्कार, भेदभाव..’ गुजरात लॉ यूनिवर्सिटी में हो क्या रहा है?

(Gujarat High Court) ने गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी को ज़बरदस्त फटकार लगाई है. यूनिवर्सिटी प्रशासन पर ये आरोप साबित हुए हैं कि उन्होंने बलात्कार, उत्पीड़न और भेदभाव की घटनाओं को दबाया, आंतरिक शिकायत समिति तक नहीं बनाई. फ़ैसला सुनाते हुए हाई कोर्ट की चीफ़ जस्टिस सुनीता अग्रवाल

गुजरात यूनिवर्सिटी में हो क्या रहा था?

सितंबर, 2023 में ख़बरें आईं कि गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी (GNLU) में छात्र शारीरिक उत्पीड़न और भेदभाव की शिकायत कर रहे हैं. आंतरिक शिकायत समिति (ICC) निष्क्रिय होने की वजह से अपनी आपबीती इंस्टाग्राम और अन्य सोशल मीडिया साइट्स पर पोस्ट कर रहे हैं. दो मामले रिपोर्ट किए गए थे. एक केस में एक छात्र ने समलैंगिक होने की वजह से हुए उत्पीड़न की बात बताई थी. दूसरी घटना में एक छात्रा ने आरोप लगाए थे कि उनके एक बैचमेट ने उनका बलात्कार किया.

हाई कोर्ट ने अख़बार की इन क़तरनों का स्वतः संज्ञान लिया. रजिस्ट्रार और अकादमिक मामलों के प्रमुख को नोटिस जारी किया कि छात्रों की पहचान ज़ाहिर किए बिना उनके बयान दर्ज किए जाएं. मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने ICC की भी रिपोर्ट मांगी कि बीते तीन सालों में उन्हें कितनी शिकायतें आईं, कितनों का उन्होंने निपटारा किया. अदालत ने GNLU को समिति के तीन सदस्यों को बदलने की सिफ़ारिश भी की. जो विश्वविद्यालय से संबंद्धित हैं, उन्हें हटाकर समाज के स्वतंत्र लोगों को लगाया जाए, जिनका संस्थान से कोई सरोकार नहीं.

यूनिवर्सिटी प्रशासन की तरफ़ से रजिस्टार जगदीश चंद्र हाई कोर्ट में रिपोर्ट के साथ पेश हुए. विश्वविद्यालय की ओर से पेश महाधिवक्ता कमल त्रिवेदी ने अदालत को बताय कि संस्थान में एक ICC है. लेकिन कुछ समय पहले इसे पुनर्गठित किया गया था और पुनर्गठन से पहले समिति के अध्यक्ष प्रोफे़सर अंजनी सिंह तोमर ने छात्रों को अपने बयान देने के लिए बुलाया भी था, मगर कोई नहीं आया. अदालत को ये भी बताया गया कि गुजरात के पूर्व-डीजीपी केशव कुमार की अध्यक्षता में एक अलग समिति बनाई गई है.

यूनिवर्सिटी के वकील ने अदालत को आश्वासन दिया कि वो सुनिश्चित करेंगे कि विश्वविद्यालय वापस व्यवस्थित हो. लेकिन अदालत को संस्थान की कार्रवाई जमी नहीं. जिस तरह से मामले को डील किया गया, वो उससे बहुत संतुष्ट नहीं थे. अदालत ने पॉइंट आउट किया कि समिति में ICC अध्यक्ष तोमर भी शामिल हैं, जो समिति के पूर्व-अध्यक्ष थे.

अदालत ने रेखांकित किया कि रजिस्ट्रार ने पूरे मामले को दबाने को आतुर लगते हैं. इसके बाद नई समिति बनाई गई. इसमें रिटायर्ड हाई कोर्ट जज हर्षा देवानी, राज्य मानवाधिकार आयोग की सचिव भार्गवी दवे और राष्ट्रीय फोरेंसिक विज्ञान विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर सुरभि माथुर थीं.

पैनल ने अपनी जांच के बाद अपनी रिपोर्ट बंद लिफ़ाफ़े में हाई कोर्ट में जमा कर दी. छात्रों की दलील थी कि एक प्रभावशाली व्यक्ति की वजह से मामले को दबाया जा रहा है. समीति के रिपोर्ट के मुताबिक़, जब छात्रों से पूछा गया कि वे पिछली समिति के पास क्यों नहीं गए, तो उन्होंने कहा कि ‘अमुक प्रोफ़ेसर’ को समिति का प्रमुख नियुक्त करने से बहुत से लोग सामने नहीं आ सके.

रिपोर्ट की सारी बातें सामने नहीं आई हैं. वो बातें, जो जजों ने सुनवाई कर दीं, बस उतनी ही पब्लिक डोमेन में हैं.

यूनिवर्सिटी की आलोचना करते हुए चीफ जस्टिस ने कहा,

अगर कानून के छात्रों की आवाज़ दबा दी जाएगी, तो देश में बोलेगा कौन? उनसे अपेक्षा की जाती है कि वो दूसरों की रक्षा करेंगे और उनकी मदद करेंगे, जिनकी आवाज़ समाज में नहीं सुनी जानी है.. ये छात्र भविष्य के क़ानून संरक्षक हैं. ये तमाम व्याख्यान, वार्ता, सेमिनार, सब कुछ बकवास है, इसका कोई मतलब नहीं है. लॉ कॉलेज का ये हाल है, तो हम किसी को मुंह नहीं दिखा सकते. इस स्थिति के लिए हम सब ज़िम्मेदार हैं… इसके लिए JLNU की उच्च स्तरीय जांच की आवश्यकता है.

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