शंकराचार्य को गिरफ्तार कर मुलायम ने क्या चाल चली, विहिप और पीएम के होश उड़ गए?

27-28 जनवरी 1990. प्रयागराज में संगम किनारे विश्व हिंदू समर्थक (विहिप) समर्थक संतों का एक सम्मेलन हुआ. इसमें अयोध्या मंदिर निर्माण के लिए 14 फरवरी से कारसेवा का ऐलान हुआ. ऐलान ने केंद्र सरकार को चिंता में डाल दिया. उस वक्त देश के प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह थे जो राजीव गांधी के सहयोगी से उनके प्रतिद्वंद्वी बन पीएम की कुर्सी तक पहुंच गए थे. वो भी दो ध्रुवों लेफ्ट राइट माने बीजेपी और लेफ्ट पार्टियों के समर्थन से.

खैर, 7 फरवरी को वीपी सिंह और तमाम संतों की दिल्ली में एक बैठक हुई. इसमें विहिप के नेता कारसेवा करने के अपने ऐलान पर अड़े रहे. खैर, रामचंद्र परमहंस ने सभी को पीएम को कुछ और वक्त देने के लिए तैयार किया. वीपी सिंह ने निवेदन किया- पहले आप लोग कारसेवा की तारीख टालिए, उसके बाद एक कमेटी बनाई जाए जो आपस में संवाद कायम करे. विहिप के नेता वीपी का अनुरोध मान गए. उनको चार महीने का वक्त दिया गया. माने ये एक तरह से वीपी सिंह की मंदिर मसले पर पहली जीत थी.

पर क्या ये जीत काफी थी? वो जानने से पहले हम आपको बता दें कि अयोध्या आंदोलन से जुड़े ये रोचक किस्से हम ला रहे हैं एक खास किताब से जिसका नाम है ‘युद्ध में अयोध्या’. किताब के लेखक हैं टीवी9 नेटवर्क के न्यूज डायरेक्टर हेमंत शर्मा.

वापस वीपी की पहली जीत पर आते हैं जिसके आड़े आकर खड़े हो गए उस वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव. वो वीपी की इस मीटिंग के बाद एक ऐसा फैसला करते हैं कि वीपी सिंह की सिट्टी पिट्टी गुम हो जाती है. दरअसल, मुलायम ने उन्हीं संतों को गिरफ्तार करवा दिया था, जिनसे वीपी आश्वासन लिए बैठे थे. बातचीत किए बैठे थे. बड़ी मशक्कत के बाद वीपी ने इन संतों को खुद प्रयास कर छुड़वाया था.

किताब के मुताबिक, वीपी सिंह का मानना था कि इस मामले को सुलझाने का जरिया अदालत हो सकती है. मगर साधु संत अड़े थे कि वे अदालत की नहीं सुनेंगे. यह आस्था का सवाल है. जिसका फैसला तर्क से नहीं हो सकता है. वीपी सिंह का इस पर साफ जवाब था कि उनको तो संविधान के दायरे में रहकर ही काम करना पड़ेगा. वीपी ने इसके बाद दोनों पक्षों से बात करने के लिए एक कमेटी बना दी. वीपी सरकार में मंत्री मधु दंडवते, जॉर्ज फर्नांडिस और मुलायम सरकार में स्वास्थ्य मंत्री मुख्तार अनीस इसके सदस्य थे.

मुलायम सिंह ने वीपी के खिलाफ मोर्चा खोला

वीपी सिंह का कहना था कि उन्होंने जानबूझकर इस कमेटी में मुलायम सिंह और गृहमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद को नहीं रखा. क्योंकि अगर ये दोनों संवाद में उलझ गए तो अंतिम फैसला कौन लेगा? पर इस काम से कुछ ऐसा हुआ जो वीपी की इस कोशिश में काफी मुश्किलें खड़ी करने वाला था. दरअसल, मुलायम सिंह यादव ने इसको अपने खिलाफ साजिश समझा और वीपी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. उनको लगता था कि वीपी उनको किनारे कर इस मामले में इसलिए फैसले ले रहे हैं ताकि मुलायम सरकार गिराने में आसानी हो.

किताब के मुताबिक, मुलायम सिंह को लगता था कि वीपी सिंह हर रोज उनके खिलाफ षड्यंत्र कर रहे हैं. साधु-संतों को बुला उनके खिलाफ भड़का रहे हैं, जबकि वीपी सिंह के ऊपर बीजेपी लगातार दबाव बना रही थी जिसके समर्थन से सरकार चल रही थी. वीपी जानते थे कि टकराव से इस मामले का हल नहीं निकलेगा, लेकिन माहौल जस का तस रहा तो सरकार चलनी मुश्किल होगी.

Yudh Me Ayodhya

किताब के मुताबिक, इससे हुआ ये वीपी जितना बातचीत आगे बढ़ाते रहे, मुलायम उतना ही बाबरी समर्थक पाले में जाते रहे. विश्वनाथ प्रताप सिंह के साथ इस शीत युद्ध में मुलायम सिंह यादव की पीठ पर हाथ चंद्रशेखर का था, जो प्रधानमंत्री पद की दौड़ में पिछड़ गए थे. चंद्रशेखर खरी-खरी कहने वाले समाजवादी थे, पर वी.पी. सिंह से उनकी कभी नहीं बनी. मुलायम सिंह यादव के ‘बाबरी समर्थक स्टैंड’ से उत्तर प्रदेश का मजहबी ध्रुवीकरण तेज होता गया. समाज मंदिर और मस्जिद में बंट गया. स्थिति बिगड़ती चली गई. एक बार रास्ता निकालने के लिए बीजेपी की सहमति से केंद्र सरकार ने अयोध्या की विवादित जमीन के अधिग्रहण का अध्यादेश लागू किया, तो मुख्यमंत्री के तौर पर मुलायम सिंह ने ऐलान किया कि वे इसे लागू नहीं होने देंगे. अविश्वास और संवादहीनता दोनों में इस हद तक थी.

शंकराचार्य कूदे और मुलायम ने चला दांव!

इसी बीच इस विवाद के ठीक बीच में कूद पड़े द्वारका पीठ के शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती. किताब के मुताबिक, सभी जानते थे कि स्वरूपानंद जी की पृष्ठभूमि कांग्रेसी थी. वे विश्व हिंदू परिषद के आयोजनों के शुरू से खिलाफ रहते थे. उन्होंने इस दरम्यान यह कहकर सबको चौंका दिया कि परिषद ने जो शिलान्यास कराया है, वह अशुभ मुहूर्त में था. इसलिए शास्त्रों के प्रावधानों के मुताबिक वे फिर से शिलान्यास करेंगे. अयोध्या में एक और शिलान्यास का प्रबंध हुआ.

मगर 30 अप्रैल को फैजाबाद जाते हुए शंकराचार्य स्वरूपानंद को मुलायम सिंह यादव ने गिरफ्तार कर लिया. आजमगढ़ में गिरफ्तार कर शंकराचार्य को चुनार के किले में नजरबंद किया गया. मंदिर आंदोलन में किसी शंकराचार्य की यह पहली गिरफ्तारी थी. इस फैसले में जोखिम था, पर मुलायम सिंह सरकार ने अपने नफा-नुकसान का हिसाब लगाकर ही ऐसा किया था. इस गिरफ्तारी से मुलायम सिंह यादव रातों रात धर्मनिरपेक्षता के नए ‘चैंपियन’ बन गए. पर मुलायम कोई छोटी बाजी नहीं खेल रहे थे. उन्होंने बाद में 7 मई को शिलान्यास के लिए शंकराचार्य और उनके अनुयायियों को जाने दिया. ऐसा होने से विश्व हिंदू परिषद का एकाधिकार कमजोर होना था. माने मुलायम एक तीर से कई निशाने साध रहे थे.

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