दिल्ली के बीचो-बीच किसकी है ‘नमक हराम की हवेली’, गली से जो गुजरता वही बुलाता है गद्दार…
दिल्ली कम से कम सात बार उजड़ी और दोबारा बसी. इसके सीने में तमाम किस्से दफन हैं. ये किस्से वफादारी के भी हैं और दगाबाजी के भी. पुरानी दिल्ली के कूचा घसीराम गली में दगाबाजी का एक निशान आज भी मौजूद है. इस गली में मौजूद ”नमक हराम की हवेली” के सामने से जो भी गुजरता है, उसके मुंह से एक ही शब्द निकलता है ‘गद्दार’.
कैसे बदनाम हुई हवेली?
आपने सही पढ़ा. हवेली का नाम ‘नमक हराम की हवेली’ ही है. तो आखिर इस शानदार बंगले का नाम ‘नमक हराम की हवेली’ कैसे पड़ गया? कौन इसका मालिक था और क्यों बदनाम हुआ? इस कहानी को जानने से पहले थोड़ा पीछे चलते हैं. 19वीं सदी की शुरुआत तक भारत की तमाम रियासतें, राजा-रजवाड़े ब्रिटिश हुकूमत की गुलामी स्वीकार कर चुके थे, लेकिन कुछ रियासतें अब भी अंग्रेजों से लड़ रही थीं. उनमें से एक थे इंदौर के नौजवान महाराजा यशवंतराव होलकर.
मराठा फौज से गद्दारी
तमाम रियासतों ने अंग्रेजों के आगे सिर झुका लिया लेकिन होलकर ने ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी स्वीकार नहीं की, बल्कि अंग्रेजों से लड़ने का फैसला किया. यशवंतराव होलकर के वफादारों में भवानी शंकर खत्री नाम का शख़्स था, लेकिन एक वक्त ऐसा आया जब भवानी शंकर खत्री और होलकर के बीच अनबन हो गई. खत्री इंदौर छोड़ दिल्ली आ गया और अंग्रेजों से हाथ मिला लिया.
अंग्रेजों ने दिया गद्दार को तोहफा
भवानी शंकर की गद्दारी के चलते होलकर को पीछे हटना पड़ा. खत्री की वफादारी से खुश होकर अंग्रेजों ने उसे चांदनी चौक में एक शानदार हवेली तोहफे में दे दी और वह अपने परिवार के साथ यहां रहने लगा. पटपड़गंज की लड़ाई के बाद दिल्ली के लोग अंग्रेजों से बुरी तरह उखड़ गए. 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जब अंग्रेजों ने बहादुरशाह जफर के खिलाफ मुकदमा शुरू किया तो दिल्ली के लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बिगुल फूंक दिया. तरह-तरह से अंग्रेजों की खिलाफत करने लगे.