ईरान ने मध्य पूर्व में इतने सारे मोर्चे क्यों खोल रखे हैं?

रान के इसराइल पर हमले के बाद मध्य-पूर्व में उसकी भूमिका पर दुनिया का ध्यान गया है.

तेहरान ने 13 अप्रैल को 300 ड्रोन और कई मिसाइलें इसराइल पर दागी थीं. उसका कहना था कि ये दमिश्क में उसके कॉन्सुलेट (वाणिज्य दूतावास) पर हुए हवाई हमले का जवाब है.

 

इसराइल के सहयोगियों ने उससे गुज़ारिश की है कि वो ईरान के साथ संघर्ष को आगे न बढ़ाए. सात अक्तूबर को इसराइल पर हुए हमले के बाद से ही ईरान और उसके सहयोगी मध्य-पूर्व में तनाव बढ़ाने का काम कर रहे हैं.

ईरान हमास का समर्थन करता है. लेकिन वो मध्य-पूर्व में हाल के दिनों में किसी भी प्रकार के सीधे हस्तक्षेप से इनकार करता है.

हालांकि लेबनान के भीतर से इसराइल पर मिसाइलें दागने, जॉर्डन में अमेरिकी सैन्य अड्डों पर ड्रोन हमले और लाल सागर में पश्चिमी देशों के समुद्री जहाज़ों को निशाने बनाने के आरोप अप्रत्यक्ष रूप से ईरान पर लगते रहे हैं. क्योंकि इन हमलों के लिए ईरान समर्थित गुटों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है. ये गुट कौन से हैं और ईरान के तार इनसे किस तरह जुड़े हुए हैं.

ईरान समर्थित हथियारबंद गुट

 मध्य-पूर्व में कई हथियारबंद गुट हैं जिनके तार ईरान से जुड़ते हैं. इनमें ग़ज़ा में हमास, लेबनान में हिज़बुल्लाह, यमन में हूती विद्रोही शामिल हैं. इसके अलावा ईरान सीरिया, इराक़ और बहरीन में भी कई गुटों का समर्थन करता है.

इसे प्रतिरोध की धुरी ( एक्सिस ऑफ़ रेज़िस्टेंस) कहा जाता है. इनमें कई गुटों को पश्चिमी देशों में ‘आतंकवादी समूह’ करार दिया गया है.

‘क्राइसिस ग्रुप’ नामक थिंक टैंक में ईरान के मामलों के एक्सपर्ट अली वाएज़ के अनुसार इन गुटों का उद्देश्य ‘मध्य पूर्व को अमेरिकी और इसराइली ख़तरों से सुरक्षित रखना है.’

अली वाएज़ कहते हैं, “ईरान को सबसे बड़ा ख़तरा अमेरिका से है और उसके बाद नंबर आता है इसराइल का. ईरान उसे मध्य-पूर्व में अमेरिका के प्रॉक्सी के रूप में देखता है. ईरान ने इसलिए क्षेत्र में एक ऐसा नेटवर्क बनाया है जिसके ज़रिए वो अपनी ताक़त को प्रोजेक्ट करता है.”

ईरान को कोई युद्ध लड़े 30 बरस हो गए हैं और अक्सर अपने प्रॉक्सी के ज़रिए किए गए हमलों में खुद के शामिल होने से इनकार करता रहा है.

ग़ज़ा युद्ध के बाद बढ़ते हमले

लेकिन तेहरान ने 45 वर्ष पहले हुई इस्लामी क्रांति के बाद से ही इन मिलिटेंट गुटों का साथ दिया है. 1980 के दशक से ही ये गुट ईरान की नेशनल सिक्योरिटी की रणनीति का अभिन्न अंग रहे हैं.

ईरान के सहयोगी गुटों ने ग़ज़ा में जारी सैन्य संघर्ष के दौरान इसराइल को निशाना बनाया है. हिज़बुल्लाह ने लेबनान पर रॉकेट दागे हैं तो यमन के हूती विद्रोहियों ने लाल सागर में मालवाहक जहाज़ों को निशाना बनाया है.

इनमें प्रमुख घटना 28 जनवरी को घटी थी जब एक अमेरिकी सैन्य अड्डे पर हुए हमले में तीन अमेरिकी नागरिक मारे गए थे. इसकी ज़िम्मेदारी ‘इस्लामिक रेज़िस्टेंस इन इराक़’ नामक संगठन ने ली थी.

ईरान ने इस हमले में शामिल होने के आरोपों का खंडन किया था.

इस हमले के जवाब में अमेरिका ने ईरान की क़ुदस फ़ोर्स और उससे जुड़े इराक़ और सीरिया के मिलिटेंटों को निशाना बनाया था.

इसके बाद अमेरिका और ब्रिटेन ने एक साझे ऑपरेशन में यमन के हूती विद्रोहियों पर हवाई हमले किए थे.

एक अप्रैल को सीरिया की राजधानी दमिश्क में स्थित ईरान कॉन्सुलेट पर हुए हमले में 13 लोगों की मौत हुई थी.

इनमें ईरान की क़ुदस फ़ोर्स के सीनियर कमांडर और हिज़बुल्लाह के मददगार की मौत हो गई थी.

ईरान इस हमले के लिए इसराइल को दोषी मानता है. इसराइल ने ये नहीं कहा है कि कॉन्सुलेट पर हमला उसने किया था पर माना जाता है कि ये इसराइल का ही काम था.

हाल के महीनों में सीरिया में ईरान के कई कमांडर मारे गए हैं. इन सब हमलों के पीछे इसराइल का ही हाथ माना जाता है.

ईरान ने कहा है कि 13 अप्रैल को उसने इसराइल पर जो रॉकेट और मिसाइल दागे थे वो एक अप्रैल उसके कॉन्सुलेट पर हुए हमले का ही जवाब थे.

ईरान का इतिहास और अमेरिका के साथ उसके संबंध

 मध्य-पूर्व में ईरान की भूमिका और अमेरिका के साथ तनावपूर्ण रिश्तों को दो घटनाओं के ज़रिए समझा जा सकता है.

साल 1979 में ईरान में हुई इस्लामी क्रांति ने उसे पश्चिमी देशों से अलग-थलग कर दिया था.

उस क्रांति के दौरान अमेरिका के 52 कूटनयिकों को तेहरान के अमेरिकी दूतावास में बंदी बनाकर रखा गया था. उस वक्त के अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर का पूरा ध्यान इनकी रिहाई पर था.

अमेरिका में ऐसी भावना थी कि ईरान को इस घटना के लिए सज़ा दी जाए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अकेला छोड़ दिया जाए.

यही वजह थी कि पश्चिमी देशों ने इराक़ का साथ देना शुरू कर दिया. 1979 से लेकर 2003 तक इराक़ पर सद्दाम हुसैन का राज था.

साल 1980 से 1988 तक ईरान और इराक़ के बीच जंग चलती रही.

इस युद्ध का अंत तब हुआ जब दोनों देश युद्धविराम के लिए राज़ी हुए लेकिन दोनों को काफ़ी नुकसान का सामना करना पड़ा. दोनों तरफ़ करीब दस लाख लोगों की जान गई थी और जंग से ईरान की अर्थव्यवस्था तहस नहस हो गई थी.

इस युद्ध ने ईरान रणनीतिकारों को ये बता दिया कि भविष्य की जंग लड़ने के लिए उन्हें कई तरह के हथकंडे अपनाने होंगे. इनमें बैलिस्टिक मिसाइलों का इस्तेमाल और क्षेत्रीय मिलिटेंट ग्रुपों का समर्थन शामिल था.

इसके बाद अफ़ग़ानिस्तान (2001) और इराक़ (2003) पर अमेरिका की चढ़ाई ने ईरान के आकलन को और मज़बूती दी.

ईरान क्या चाहता है और क्यों?

 सैनिक ताक़त के लिहाज से ईरान अमेरिका के सामने बहुत कमज़ोर माना जाता है. इसलिए बहुत से विशेषज्ञों का मानना है कि ईरान के सत्तारूढ़ निज़ाम ने खुद को बचाए रखने के लिए प्रतिरोध की जिस तथाकथित नीति का सहारा ले रखा है, वो लंबे समय से उसके लिए निर्णायक रही है.

एलेक्स वाटंका मिडिल ईस्ट इंस्टीट्यूट (एमईआई) के ईरान कार्यक्रम के संस्थापक निदेशक हैं.

उनका कहना है, “ईरान अमेरिका को मध्य पूर्व से बाहर करना चाहता है. उसकी लंबे समय से ये रणनीति रही है कि दूसरे पक्ष को थकाकर बाहर कर दो.”

अमेरिका में यूनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स के कामरान मार्टिन की राय में “ईरान वैश्विक मंच पर खुद को एक ताक़तवर खिलाड़ी के रूप में देखना चाहता है.”

अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सीनियर लेक्चरर कामरान कहते हैं, “प्राचीन ईरान जिसे इतिहास में पर्सिया के नाम से जाना जाता है, का एक गौरवशाली अतीत रहा है. ईरान का पश्चिमी एशिया पर बारह सौ साल तक असर रहा है.”

“ईरान का मानना है कि क्षेत्रीय और वैश्विक मामलों में वो एक महत्वपूर्ण भूमिका का हकदार है. फारसी कला और साहित्य की समृद्ध विरासत के बूते ईरान खुद को एक महान राज्य और ताक़त के रूप में देखता है.”

ईरान के पास कितना कंट्रोल है?

 राजनीतिक कार्यकर्ता और ईरान मामलों की जानकार यास्मीन मादेर यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑक्सफर्ड से जुड़ी हुई हैं. यास्मीन का कहना है कि अपने साथियों पर ईरान का बहुत ज़्यादा नियंत्रण नहीं है.

यास्मीन रेड सी में जहाजों पर हमला करने वाले हूती विद्रोहियों का उदाहरण देती हैं. उनका कहना है कि ईरान हूती विद्रोहियों का यमन में इस्तेमाल कर रहा है.

लेकिन यास्मीन का ये भी कहना है कि “हूती विद्रोही ईरान के सभी आदेशों की फरमाबरदारी नहीं कर रहे हैं. उनका एक अपना एजेंडा है और वे खुद को एक क्षेत्रीय शक्ति के रूप में देखना चाहते हैं. वे ईरान के सिर्फ़ प्रॉक्सी बनकर नहीं रहना चाहते हैं.”

क्राइसिस ग्रुप के अली वाएज़ कहते हैं, “ईरान जैसे किसी देश के साथ दिक्कत ये है कि उसने अपनी क्षेत्रीय नीति का ठेका नॉन स्टेट एक्टर्स (जैसे- हूती विद्रोही) को दे दिया है. इन नॉन स्टेट एक्टर्स के नेटवर्क पर ईरान का पूरा नियंत्रण नहीं है.”

अली वाएज़ का ये भी मानना है कि ईरान की ताक़त को अक़सर ही बढ़ा-चढ़ाकर आंका जाता है.

वे कहते हैं, “एक विचार ये है कि पूरे इलाके में वर्चस्व की लड़ाई का असली मास्टर माइंड ईरान है, वही शतरंज की पूरी बाज़ी को चला रहा है. लेकिन ईरान और उसके साथी अपना कोई भी ख़ास मक़सद पूरा नहीं कर पाए हैं. न वे ग़ज़ा में संघर्ष विराम के लिए इसराइल को मजबूर कर पाए और न ही अमेरिका को मध्य पूर्व से बाहर का रास्ता दिखा पाए.”

हालांकि ईरान के पास परमाणु ताक़त भी है.

इसके बारे में अली वाएज़ कहते हैं, “ईरान का परमाणु कार्यक्रम पिछले 20 सालों में अपने सबसे एडवांस लेवल पर है.”

अली वाएज़ का मानना है कि ईरान अपने साथियों और सहयोगियों के नेटवर्क के जरिए जो कुछ कर रहा है, उसकी तुलना में उसका परमाणु कार्यक्रम इसराइल और पश्चिमी देशों के लिए अधिक बड़ी समस्या है.

‘तृतीय विश्व युद्ध?’

 अमेरिकी थिंक टैंक स्टिमसन सेंटर की बारबरा स्लाविन जैसे कुछ विश्लेषकों के अनुसार, इसराइल पर हमला करने का ईरान का फ़ैसला उसके रवैये में बड़ा बदलाव है.

वो कहती हैं, “इसराइल और ईरान के बीच चला आ रहा छाया युद्ध अब खुलकर सामने आ गया है.”

हालांकि बारबरा ये भी कहती हैं कि इसराइल पर ईरान ने अपनी जवाबी कार्रवाई में बहुत सोच समझकर कदम उठाया है. हमले के लिए उसने धीमी रफ़्तार वाले ड्रोन्स चुने ताकि इसराइल और अमेरिका को तैयारी करने का समय मिल सके.

ईरान के उम्रदराज़ हो रहे सुप्रीम लीडर अयातुल्लाह अली खामेनेई को इस जवाबी कार्रवाई के लिए हरी झंडी देनी पड़ी ताकि रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स के कमांडरों को तसल्ली दी जा सके. ईरान की विदेश नीति में रिवॉल्यूशनरी गार्ड्स की बड़ी भूमिका रहती है.

हालांकि ईरान को ये अच्छी तरह से मालूम है कि इसराइल और अमेरिकी सैनिक ताक़त के साथ बड़ी लड़ाई उसके लिए ख़तरनाक साबित हो सकती है.

ईरान के एक्सपर्ट इस्फ़ांदयार बतमनघेलिडी कहते हैं, “युद्ध से बचे रहना ख़ामेनेई की विरासत के लिए ज़रूरी है. ईरान इसराइल के ख़िलाफ़ जो भी क़दम उठाए, उनका मकसद पूर्ण युद्ध से बचना है.”

मध्य-पूर्व के बिगड़ते हालात के बाद से ही दुनिया भर में ‘वर्ल्ड वॉर थ्री’ गूगल पर सर्च किया जा रहा है.

ईरानी मामलों के एक्सपर्ट अली वाएज़ कहते हैं कि इसराइल पर ईरान के मिसाइल हमलों के बाद युद्ध छिड़ने के डर को सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता.

वाएज़ कहते हैं दोनों देश अब भी एक दूसरे पर छिटपुट वार करते रह सकते हैं लेकिन ये भी संभव है कि ये युद्ध में बदल जाए और इसमें अमेरिका भी शामिल हो जाए.

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