कश्मीर में BJP के पूरे वोट पर अकेले भारी पड़े उमर अब्दुल्ला, जम्मू में भाजपा के अरमानों पर कहां फिर गया पानी?
जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनाव इस बार कई मायनों में खास रहा. धारा 370 हटाए जाने, राज्य का विभाजन कर उसे दो केंद्रशासित प्रदेशों में तब्दील करने के अलावा भी इस चुनाव में बहुत कुछ था. जमात ए इस्लामी ने 1987 के बाद पहली दफा परदे के पीछे ही से सही पर चुनाव लड़ा. बड़े पैमाने पर अलगाववादी नेताओं ने भी चुनाव में हिस्सा लिया. शायद पहली बार भारतीय जनता पार्टी के सरकार बनाने और मुस्लिम बहुल राज्य को एक हिंदू मुख्यमंत्री मिलने की संभावना जताई जाने लगी. पर बीजेपी की तमाम कोशिशों के बावजूद वह न तो सरकार बनाने के करीब खुद पहुंच सकी और ना ही नेशनल कांफ्रेंस-कांग्रेस-सीपीएम-पैंथर्स पार्टी (इंडिया गठबंधन) को बहुमत से रोक सकी.
49 सीटों पर जीत दर्ज कर जब नेशनल कांफ्रेंस की अगुवाई वाला गठबंधन सरकार बनाने जा रहा है, ये समझना दिलचस्प है कि बीजेपी के अरमानों पर जम्मू कश्मीर में पानी कहां फिर गया. ये ठीक बात है कि भारतीय जनता पार्टी को नेशनल कांफ्रेंस के मुकाबले करीब दो फीसदी वोटों की बढ़त रही है लेकिन वह एनसी से सीट के मामले में 13 पायदान पीछे रही. जम्मू में पार्टी ने अच्छा प्रदर्शन किया लेकिन कश्मीर में उसकी स्थिति पूरी तरह डंवाडोल रही. और यह कई मायनों में. पहली बात – बीजेपी कश्मीर की 47 में से 19 सीट पर चुनाव लड़ रही थी. यानी दो तिहाई सीट पर पार्टी ने चुनाव से पहले ही सरेंडर कर दिया था. इन 19 सीटों पर BJP को जितने वोट मिले, उससे ज्यादा उमर अब्दुल्ला अकेले ले आए.
कश्मीर में BJP को न माया मिली न राम
कश्मीर में भाजपा को कुल 56 हजार के करीब वोट मिले जो उमर अब्दुल्ला को गांदरबल (32,727) और बड़गाम (36,010) में मिले कुल 68,737 वोट से कम से कम 12 हजार वोट कम है. पार्टी इससे जरुर सब्र कर सकती है कि कश्मीर की 6 सीटों पर उसके कैंडिडेट्स टॉप थ्री में रहे हैं. लेकिन यहीं उसे यह भी गौर करना होगा कि घाटी में तमाम नॉर्मल्सी और शांति के बातों के बावजूद वह 6 सीटों पर पांचवे नंबर और कुछ पर तो दसवें, बारहवें नंबर पर रही है. दूसरी बात – कश्मीर में बीजेपी को जिन निर्दलीय उम्मीदवारों और भाजपा को लेकर नरम समझे जाने वाले राजनीतिक दलों (मसलन अपनी पार्टी, गुलाम नबी आजाद की डीपीएपी) से उम्मीद थी, वह न तो खुद कुछ अच्छा कर सके और न ही एनसी-कांग्रेस का ठोस तरीके से नुकसान पहुंचा पाए. लिहाजा, घाटी में पहले ही से न के बराबर जनाधार वाली बीजेपी परास्त हो गई.
जम्मू में BJP का वो दांव जो कारगर नहीं रहा!
जम्मू के नतीजों में जरूर भारतीय जनता पार्टी को बढ़त हासिल रहा. केवल बढ़त कहना ठीक नहीं होग, बीजेपी ने जम्मू में नेशनल कांफ्रेंस को तो कुछ हद तक लेकिन कांग्रेस को बुरी तरीके से हराया है. जम्मू में बीजेपी जहां दो तिहाई सीट जीत गई तो कांग्रेस 29 सीट पर लड़कर भी केवल 1 सीट जीत सकी. लेकिन फिर भी बीजेपी को जिस एक दांव से सबसे ज्यादा उम्मीद थी, वह कारगर नहीं साबित हुआ. वोटों की गिनती से पहले तलक भाजपा और उसका नेतृत्व, जम्मू कश्मीर बीजेपी के अध्यक्ष रविंदर रैना तक कहे जा रहे थे कि हम जम्मू की 43 में से 30 से 35 सीटों पर जीत दर्ज करेंगे. नतीजों में पहले तो रैना खुद अपनी सीट हार गए और इस तरह पार्टी का ग्राफ 29 पर सिमट गया. पर असल बात इससे आगे हैं. बीजेपी को जम्मू में एसटी समुदाय के लिए पहली बार आरक्षित की गई 6 सीटों से बड़ी उम्मीदें थी. पार्टी ने उसके लिए क्या-क्या जतन नहीं किए, मगर…
जम्मू की ST सीटों की ये पूरी कहानी क्या है?
दरअसल, जम्मू कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने और उसका राज्य का दर्जा घटा केंद्रशासित प्रदेश किए जाने के साथ केंद्र ने दो और चीजें की. एक तो परिसमीनः जिसके बाद विधासनभा के सीटों की संख्या 87 से बढ़कर 90 हो गई. वह भी तब जब लेह-कारगिल की 4 सीटों का वजूद लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश बनाने के साथ ही मिट गया था. इस तरह प्रदेश में न केवल 7 सीट (6 जम्मू और 1 कश्मीर में) बढ़ा. बल्कि 9 सीट एसटी समुदाय के लिए आरक्षित कर दिया गया. एसटी समुदाय के लिए जम्मू में 6 सीटें (गुलाबगढ़, राजौरी, बुढाल, थन्नामंडी, सुरानकोट और मेंधार) आरक्षित हुईं जबकि 3 कश्मीर (गुरेज, कोकेरनाग और कंगन) में की गई.
BJP के मास्टरस्ट्रोक की जम्मू में सीमाएं!
एसटी सीट रिजर्व करने के अलावा भारतीय जनता पार्टी ने यहां एक और दांव चल अपना समीकरण दुरुस्त करने की कोशिश की. इसी बरस फरवरी में केंद्र की मोदी सरकार ने जम्मू कश्मीर में एसटी समुदाय का दायरा बढ़ा दिया. 4 नए समुदाय को इसमें शामिल किया. एसटी लिस्ट में इस बरस जिन 4 तबकों को जोड़ा गया. इनमें पहाड़ी, पड्डारी, गड्डा ब्राहम्ण और कोली तबके के लोग थे. जम्मू कश्मीर के एसटी लिस्ट में पहले ही से गुज्जर और बकरवाल समुदाय के लोग थे. अब इसमें ताकतवर पहाड़ी समुदाय को भी जोड़े जाने से गुज्जर-बकरवाल कबीले के लोग अपने हक को लेकर थोड़े असहज हो गए.
राजौरी और पुंछ जिलों में गुज्जर और बकरवाल समुदाय के लोगों की अच्छी-खासी तादाद है. और 6 में से 5 सीटें इन्हीं दो जिलों मे थी. गुज्जर और बकरवाल समुदाय के मुसलमानों की पहचान कश्मीरी मुसलमानों से थोड़ी अलग है. इसीलिए बीजेपी को इनमें संभावना नजर आई थी. पर यहां एक अजीबोगरीब स्थिति हो गई. गुज्जर-बकरवाल को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देने की बात कहते हुए बीजेपी की सरकार ने 9 सीटें आरक्षित कीं थी. लेकिन एसटी लिस्ट का जिस तरह से ठीक लोकसभा चुनाव से पहले विस्तार किया गया और उसमें पहाड़ी कबीले को जोड़ा गया. इसने भाजपा के अरमानों को विधानसभा चुनाव से ठीक पहले सुलझाने के बजाय और उलझा दिया.
मुमकिन है कि यह विवाद भारतीय जनता पार्टी को जम्मू में खासकर एसटी सीटों पर नुकसान पहुंचा गया हो. पहाड़ी कबीला के लोगों को आरक्षण दिए जाने से गुज्जर-बकरवाल समुदाय में एक दबे-छिपे असंतोष की बात तो थी ही और चुनाव परिणाम में यह साफतौर पर दिखता है कि बीजेपी यहां एक भी सीट नहीं जीत सकी. एसटी समुदाय के लिए आरक्षित जम्मू की 6 सीट में से ती पर नेशनल कांफ्रेंस, एक पर कांग्रेस और दो पर निर्दलीय जीते. जिससे बीजेपी का ग्राफ 35 तक नहीं पहुंच सका. कुल जमा बात ये कि भारतीय जनता पार्टी के ‘एसटी मास्टरस्ट्रोक’ की सीमाएं थीं और इसने जम्मू में बीजेपी के अरमानों पर पानी फेर दिया.