शादी और नौकरी की चाह ने बनाया ‘डंकी’, अब हरियाणा के छोरे भाग रहे अमेरिका

हरियाणा में कैथल शहर से सटा हुआ एक गांव है नरड. करीब 5000 की आबादी वाले इस गांव में 127 युवा गांव छोड़ कर परदेस चले गए हैं. ऐसा कोई नरड में ही नहीं है. तितरम, पाई, क्योडक आदि तमाम गांवों के युवाओं में होड़ मची है. मौका मिलते ही अमेरिका या कनाडा का रुख करो. अधिकांश युवा उच्च शिक्षा के नाम पर इन मुल्कों में जा रहे हैं. वहां पढ़ेंगे तो जॉब भी पा जाएँगे फिर वहीं बस जाएंगे. और यह कोई कैथल जिले की ही बात नहीं बल्कि करनाल, कुरूक्षेत्र, अंबाला आदि सभी जिलों के युवाओं को अच्छी जॉब के लिए अमेरिका, कनाडा चले जाना ही सही लग रहा है. पिहोवा का आलम यह है कि यह गांव-गांव 18 से 30 साल के युवाओं से एकदम ख़ाली हो गया है. अधिकांश गांवों में अब सिर्फ़ बुजुर्ग ही बचे हैं, जो अपने घर और खेतों की रखवाली करते हैं.

सस्ते मजदूरों का मोह

इनमें से अधिकांश युवा कनाडा गए हैं और कुछ अमेरिका तथा अन्य मुल्कों में भी. अमेरिका में वैध रूप से जाना आसान नहीं है, इसलिए वे कनाडा का रुख करते हैं. अथवा मध्य अमेरिकी देशों का. फिर वहां से अमेरिका. लेकिन कुछ जो वैध तरीक़े से कनाडा, अमेरिका नहीं जा पाते वे अमेरिका में घुसने का वही तरीक़ा अपनाते हैं, जो डंकी फ़िल्म में दिखाया गया है. अधिकतर युवा वाया मैक्सिको अमेरिका की सीमा पार कर लेते हैं. सच बात तो यह है कि पश्चिमी देश इस घुसपैठ पर चिल्ल-पों भले मचाएं पर कहीं न कहीं वे इस घुसपैठ को रोकने की कोई कोशिश नहीं करते. क्योंकि अवैध रूप से अमेरिका और कनाडा जाने वाले आप्रवासी उनकी अर्थव्यवस्था को ढहने से बचाते भी हैं. इन घुसपैठियों को काम पाने के लिए न्यूनतम मजदूरी दर से कम वेतन पाने को मजबूर होना पड़ता है. ये सिर्फ़ नगद मज़दूरी पाते हैं. इसके अलावा इन देशों में वर्क फ़ोर्स की कमी नहीं होती. सस्ते और हर समय उपलब्ध मज़दूर.

क्यों कनाडा, अमेरिका के लिए चूहा दौड़

सवाल यह भी पैदा होता है कि युवाओं में यह पलायन की वृत्ति क्यों पनप रही है. हरियाणा हमारे देश का एक सर-सब्ज प्रदेश है.कहा ही जाता है, अपना हरा-भरा हरियाणा, जहां दूध-दही का खाणा. ऐसे हरियाणा में यह चूहा-दौड़ क्यों? अभी तक तो पड़ोसी पंजाब के युवा ही कनाडा जाते थे, अब हरियाणा में भी ऐसी भाग-दौड़, अचरज पैदा करती है. पर इसकी तह में ज़ाया जाए तो जो बातें सामने आई हैं, वे चौकाने वाली हैं. पिछले दिनों दो दिन मैं कैथल ज़िले के गांव तितरम, नरड, पाई में खूब घूमा. वहां पाया कि 18 से 25 वर्ष के युवाओं में पैसा कमाने के लिए अमेरिका और कनाडा जाने की होड़ मची है. इन युवाओं को लगता है कि वहां पहुंच कर वे फटाफट वे करोड़ों कमाने लगेंगे. बड़ी-बड़ी गाड़ियां होंगी, उनके पास भी बँगला होगा. और यदि वे गाँवों में पड़े रहेंगे तो कुछ नहीं मिलेगा.

परदेसी कन्या से ब्याह रचाएंगे

इसलिए 12वां पास करते ही वे अपना भविष्य विदेशों में देख रहे हैं. अभी तक हरियाणा में युवा 12वीं करते ही दो तरह की नौकरियों में जाते थे. फ़ौज की अथवा पुलिस भर्ती में.मगर जब से अग्निवीर जवानों के ज़रिये फ़ौज में शुरू हुई, तब से उन्हें निराशा होने लगी. चार साल के बाद कोई जरूरी नहीं कि वे नियमित सेवा के हकदार हो जाएं और अगर अग्निवीर से मुक्त होने के बाद न तो कोई पेंशन और न ही आगे की नौकरी के लिए भविष्य. क्योंकि चार वर्ष बाद वे ओवर एज हो जाएंगे. इसके अतिरिक्त गांवों में प्रति व्यक्ति खेती का रक़बा घट रहा है. आज की तारीख़ में हरियाणा में औसत जाट दो या ढाई एकड़ ही है. तितरम में रह रहे सामाजिक कार्यकर्ता कुमार मुकेश बताते हैं- हरियाणा में आदमी और औरत का अनुपात में अंतर पहले से ही कम था ऊपर से यहां की प्रमुख किसान जाति जाटों में गोत्र और खाप के झंझट इतने अधिक हैं कि लड़कों को लगता है बाहर जा कर वे बीवी ले आएंगे. मालूम हो कि हरियाणा के युवा दूसरे प्रदेशों से बीवियां ले कर आते हैं. यहां केरल की बहुएं सबसे अधिक हैं.

हरियाणा के युवाओं का कोई सहारा नहीं

विदेश जाने में हरियाणा के युवाओं की एक और दिक़्क़त है, कि पंजाब और गुजरात के अप्रवासियों की तरह उन्हें कोई छतरी भी विदेशों में नहीं मिलती. पंजाब और गुजरात के लोगों का एक नेटवर्क है और वे अपने यहां से आए लोगों की मदद भी करते हैं. परदेस में उन्हें एडजस्ट करने के लिए वे सहायक साबित होते हैं. उन्हें जॉब दिलाने से लेकर उनके लिए उनके अनुकूल माहौल भी पंजाबी और गुजराती समुदाय का संगठन उपलब्ध कराता है. भारत में पड़ोसी होते हुए भी हरियाणा के युवाओं को इन पंजाबियों के संगठन से कोई सहायता नहीं मिलती. वे वहां अपने बूते जाते हैं और अपने श्रम, कौशल और प्रतिभा से नौकरी पा पाते हैं. अमेरिका और कनाडा में पटेल ब्रदर्स एक ऐसी चेन है, जिसमें गुजरात के युवा फ़िट हो जाते हैं. इसी तरह कनाडा का पंजाबी समाज अपने यहाँ से आए युवाओं की मदद को तत्पर रहते हैं.

आईलेट्स कोचिंग की लूट

यूरोप, अमेरिका और कनाडा जाने के लिए आईलेट्स (IELTS) की परीक्षा पास करनी जरूरी होती है. यह परीक्षा विदेशों में बसने की इच्छा से जाने वाले युवाओं की अंग्रेज़ी में दक्षता को जानने का पैमाना है. आईलेट्स की परीक्षा में पास कराने के लिए कोचिंग क्लासेज भी खूब चल रही हैं. पहले आईलेट्स के ये कोचिंग सेंटर पंजाब और दिल्ली में ही थे, अब हरियाणा की गली मुहल्ले में भी खुल गए हैं. नरड में भी आईलेट्स की कोचिंग होती है. गुजरात और पंजाब में तो आईलेट्स की कोचिंग तो फ़र्ज़ी तौर पर परीक्षा दिलाने के लिए बदनाम हैं. इसका खुलासा तब हुआ, जब कुछ गुजराती अमेरिका पहुंचे और पता चला कि उन्हें अंग्रेज़ी में ABCD भी नहीं आती, जबकि उनके पास आईलेट्स पास होने का सर्टिफ़िकेट था. इससे यह राज खुला कि इन क्षेत्रों में आईलेट्स पास कराने के लिए कैसा फ़र्ज़ीवाड़ा होता है. 12वीं करने के बाद कई युवा ग्रेजयुएशन के लिए कनाडा अथवा अमेरिका के कॉलेज में जाते हैं. इसलिए अंग्रेज़ी की तैयारी के लिए वे आईलेट्स की कोचिंग का सहारा लेते हैं.

खेत बेच कर कनाडा

कनाडा में तीन वर्ष की स्नातक डिग्री पाने के लिए छह सेमेस्टर परीक्षाएं पास करनी पड़ती हैं. प्रति सेमेस्टर की फ़ीस 8 से 10 हज़ार केनेडियन डॉलर (CAD) होती है. यानी सिर्फ़ स्नातक की डिग्री के लिए किसी भी भारतीय छात्र को वहां पर 30 से 35 लाख रुपए देने होंगे. इसके बाद आने-जाने का हवाई किराया और वहां रहने तथा खाने-पीने का खर्च जोड़ा जाए तो 60 लाख में सिर्फ़ ग्रेजुएट की डिग्री. इसके लिए इनके परिवार वाले या तो बैंकों से क़र्ज़ लेते हैं अथवा खेत बेचते हैं. चूंकि इस बीच वहां छात्र कोई न कोई नौकरी पा लेते हैं इसलिए यह सौदा भी उन्हें महंगा नहीं लगता. लेकिन हक़ीक़त उलटी है डिग्री पाते ही कोई ऐसी नौकरी उन्हें नहीं मिल पाती जो वहां कि एक मिडिल क्लास ज़िंदगी के लिए पर्याप्त हो. कनाडा में रहने के लिए 5000 डॉलर (कोई 3 लाख रुपए) की मासिक आमदनी भी अधिक नहीं है और इतना कमा पाना बिना किसी विशेषज्ञता और अनुभव के आसान नहीं.

बाद में होती है हताशा

तब फिर इन्हें वहां वह काम करना पड़ता है जो वे अपने देश में नहीं कर सकते. मसलन होटलों में वेटर का काम या वेंडर अथवा टैक्सी चलाने का काम. राज-मिस्त्री का काम. इसके बाद शुरू होता है इंका फ़्रस्टेशन. जो बड़े-बड़े सपने ले कर कनाडा अथवा अमेरिका गए थे, वह तो उन्हें मिला नहीं. कैथल ज़िले के तितरम गाँव के हर्ष पत्रकारिता की पढ़ाई करने कनाडा गए थे. वहां टोरंटो के एक उप नगर यॉर्क से उन्होंने तीन वर्ष की डिग्री ली. फ़ीस का ही खर्च आया, 25 लाख रुपए. फ़िलहाल वे वहाँ एक मीडिया हाउस से एक प्रोजेक्ट ले कर आए हुए हैं. हरियाणा की महिलाओं की स्थिति पर उनका यह प्रोजेक्ट है. उनको वहां किसी मीडिया हाउस में नौकरी मिल ही जाएगी, इसकी गारंटी नहीं और भारत में मीडिया हाउस में पगार बहुत कम है. ऊपर से मन-मुताबिक़ काम नहीं मिलेगा. इसलिए हर्ष वहां आईफ़ोन और मैक एयर की रिपेयरिंग के काम में लगे हैं. इससे वहां उनको 1500 डॉलर मिल जाते हैं.

जाय बसे परदेस ललनवा

देर-सबेर इस काम से वह और अधिक कमाने लगेंगे. किंतु कब तक? इसका जवाब उनके पास नहीं है. नरड के मनोज पढ़ाई के बाद प्रदेश के सिंचाई विभाग में कार्यरत हैं. लेकिन उनकी यह नौकरी कॉंट्रैक्ट पर है. हरियाणा के मनोहर लाल खट्टर सरकार ने युवाओं की नौकरी का इंतज़ाम तो किया है, पर अधिकांश युवा अनुबंध पर हैं. अनुबंध की नौकरियों में कोई सरकारी सुविधा इन्हें नहीं मिलती. इनको बतौर कंसलटेंट रखा जाता है. विकल्प के अभाव में वे यही नौकरी कर रहे हैं. लेकिन सब युवाओं को यह जॉब भी नहीं मिल पाती. इसलिए उनके मां-बाप खेत बेच कर और कलेजे में पत्थर रखते हुए अपने बच्चों को विदेश भेज रहे हैं. शायद इस तरह हरियाणा में लड़कियाँ लड़कों से अधिक हो जाएंगी. लड़के तो कमाने कनाडा चले जाएँगे.

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